विस्तार है अपार..
प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुङ्कार,
ओ गङ्गा की धार, निर्बल जन को, सबल सङ्ग्रामी,
गमग्रोग्रामी,
बनाती नहीँ हो क्यूँ
?
विस्तार है अपार
..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्ल्लज्ज भाव से
, बहती हो क्यूँ ?
अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन
दिक`
मौन हो क्यूँ ?
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित, निष्प्राण समाज को तोड़ती नहीं हो क्यूँ ?
ओ गङ्गा की धार, निर्बल जन को, सबल सङ्ग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार
..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्यूँ ?
पण्डित नरेन्द्र शर्मा
1913-1989
सम्पर्क - आप की सुपुत्री
आ. लावण्या शाह
'निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?'....पाप मानव करे ..निर्लज्ज माता को कहे .....अहसान फरामोशी है ...असाहित्यिक कथ्य है ...
जवाब देंहटाएं----निष्प्राण समाज को तोड़ती नहीं हो क्यूँ ?......यह गंगा के पुत्रों का कार्य है या गंगा का ...अपना पाप गंगा के सिर ...क्या कविता है जी...