30 अप्रैल 2014

अजीब मंज़र ए दिलकश है मुल्क के अंदर - अब्बा जान

अजीब मंज़र ए दिलकश है मुल्क के अंदर
उछल रहे हैं हर इक शाख पर कई "बन्दर"

है शहर शहर "चुनावों " की आज सरगर्मी
बलंदियों प है नेताओं की भी "बेशर्मी"

हया का नाम नहीं है "खबीस" चेहरों पर
चिपक रही है गिलाज़त "ग़लीस" चेहरों पर

गली गली में नज़र आ रहे हैं "आवारा"
ये पाँच सालों में हाज़िर हुए हैं दोबारा

भरे हुए हैं ये वादों के फूल झोली में
मिठास घोल के लाये हैं अपनी बोली में

खड़े हुए हैं भिखारी ये हाथ जोड़े हुए
हैं अपना दामन ए गैरत भी ये निचोड़े हुए

किसी के हाथ में "झाड़ू" , कोई "कमल" के साथ
किसी का "हाथी" तो कोई है "साइकल" के साथ

हिला रहा है कोई ज़ोर ज़ोर से "पंखा"
दिखा रहा है कोई नेता "हाथ का पंजा"

है कोई "राजकुंवर" और कोई है "शहजादा"
किसी का चाय का होटल किसी का है ढाबा

कोई है "सुर्ख" , कोई "सब्ज़" और कोई "नीला"
कोई "सफ़ेद" , कोई "केसरी" कोई "पीला"

तरह तरह के हैं झंडे सभी उठाये हुए
सफ़ेदपोश दरिंदे... हैं भनभनाये हुए

डरा रहे हैं ये इक दूसरे से वोटर को
लुभा रहे हैं ये पैसे रुपए से वोटर को

किसी के हाथ में "हिंदुत्व" का है एजेंडा
किसी ने थाम लिया फिर से "धार्मिक झंडा"

किसी ने काली "खदानों" का कोयला खाया
मवेशियों का किसी ने चबा लिया "चारा"

नहीं है इनको ग़रज़ हिंद के "मसायल" से
ये ख़ाक धोयेंगे हालात को "फिनायल" से
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हमारे हल्के में आये बड़े बड़े नेता
उन्हीं के बीच खड़े थे ये कानपुर के हुमा

लहक लहक के ये खड़का रहे थे भाषन को
बला का कोस रहे थे पुराने शासन को

फ़लाना ऐसा ... फ़लाँ वेसा .. और फ़लाँ वेसा
नहीं है कोई भी नेता कहीं मिरे जैसा

अब आप लोग मुझे चुन के देख लो इक बार
तमाम उम्र न भूलूँगा आपका उपकार

बस एक बार जिता दो मुझे इलेक्शन में
न आने दूँगा मुसीबत में कोई जीवन में

पलक झपकते ही बस्ती संवार दूँगा मैं
खराब नालियाँ, सड़कें सुधार दूँगा मैं

खुला रहेगा सभी के लिए मिरा दरबार
जहाँ पे होगा खुले मन से आपका सत्कार

फक़त अवाम की खातिर जियूं मरूंगा मैं
जो आप लोगों ने चाहा वही करूँगा मैं
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अभी उरूज प भाषन ज़रा सा आया था
सभा के बीच से इक बुड्ढा बडबडाया था

सवाल करता हूँ नेताजी ... कुछ जवाब तो दो
गुज़िश्ता पाँच बरस का ज़रा हिसाब तो दो

घिसट रहे हैं सभी सुबह ओ शाम गड्ढों में
सड़क को ढूढ रहे हैं अवाम गड्ढों में

झलक दिखाती है हफ्ते में एक दिन बिजली
कभी गुज़ारा है इक दिन भी तुमने बिन बिजली

नलों के खुश्क गले कैसे तर करोगे तुम
बगैर पानी के कैसे गुज़र करोगे तुम

ये औरतों की हिफाज़त भी कर सकोगे क्या
गरीब भूखों का तुम पेट भर सकोगे क्या

हमारे बच्चों को क्या रोज़गार दे दोगे
तुम अपने हिस्से की हमको पगार दे दोगे

नज़ारा देख के कुछ सटपटा गए थे "हुमा "
इस एहतिजाज से सकते में आ गए थे "हुमा "

पकड़ के हाथ वो इक सम्त ले गए इसको
दिए हज़ार रुपए और कहा .कि .. अब खिसको

क़सम है तुमको ज़रा मुझ को जीत जाने दो
मज़े तुम्हें भी कराउंगा ... वक्त आने दो

परी .. को बगल में लेकर चमन में लेटेंगे
चुनाव जीत कर संसद भवन में लेटेंगे

बहुत मज़े से कटेंगे ये पाँच साल मियाँ
करूँगा तुमको भी इक रोज मालामाल मियाँ

कहा बुज़ुर्ग ने मुझको ये घास मत डालो
मिरे बदन पे ये मैला लिबास मत डालो

ज़मीर अपना किसी हाल में न बेचूंगा
तुम्हें जिताएगा कौन आज मैं भी देखूंगा

रखे उम्मीद क्या चूहा किसी भी बिल्ली से
ये पंजे मारा करेगी सभी को दिल्ली से

चुनाव जीत कर तुम काम कुछ न आओगे
हमें ये शक्ल तुम अपनी न फिर दिखाओगे

करोगे देखना पहचानने से भी इंकार
मिलेगी वोट के बदले में लात और दुत्कार

ज़लील ओ ख्वार समझ कर भगाए जायेंगे
तुम्हारे हाथों ये मुफलिस सताए जायेंगे

इज़ाला कर न सकोगे कभी मुसीबत का
तुम अपने पांव से कुचलोगे सर अखुव्वत का

करोगे मुल्क की अस्मत का बार हा सौदा
पचास बरसों से देते रहे हो तुम धोखा

किसी गिरोह किसी पार्टी के पट्ठे हो
कि तुम भी इक ही थैली के चट्टे बट्टे हो

तुम अपनी तान पर हमको नचाना चाहते हो
हर एक हाल में इज्ज़त बचाना चाहते हो

बुरे बुरों में भले को चुना नहीं जाता
ये ख्वाब हम से तो "अब्बा " बुना नहीं जाता

नज़र में जितने हैं नेता सभी तो हैं बेकार
बताओ कौन चलाएगा मुल्क की सरकार

अब्बा जान
420 840 1680

शुरू में [?] मार्क लगाना न भूलें

1 टिप्पणी:

  1. अब्बा जान !! इस किरदार के अरूज़ मे एक शाइर सालिम शुजाअ अंसारी ने खुद को तक़्सीम किया है जिसे शहदत से कम नहीं कहा जा सकता !! बेहद संजीदा और दौरे हाज़िर के सबसे सम्भावनापूर्ण , और फिलबदीह के बादशाह सालिम शुजाअ अंसारी ने –इस दौर के ज़ख़्मों का मुदावा अब्बा –जान के किरदार में तलाश किया और इस आऎ डी ने पिछले 4 बरसों से इण्टरनेट पर धूम मचा रखी है !! यह एक लेखकीय पेन नेम है लेकिन आज आलम यह है कि – सालिम खुद अब्बा जान के सामने कासिर नज़र आते हैं –आर्थर कानन डायल का बनाया किरदार शर्लाक होम्स – अमर नायक है !! वैसे ही अब्बा जान का नक़्श अब अदब में ज़ाविदाँ हो चुका है !! -- काँधे पे है जनाज़ा , मुल्के अदम मे रूह
    कोसों बढा हुआ है पियादा सवार से !!
    अब्बा जान हमारी ही आवाज़ का दस्तावेज़ हैं –जो उनकी गज़ल से ज़ाहिर है –लेकिन कमाल ये हैं कि यही रचनाकर उर्दू अदब में सबसे संजीदा गज़लें कहने के लिये भी जाना जाता है सालिम शुजाअ अंसारी के नाम से –अब आलम ये है कि -- वो मेरा आईना है या मैं उसकी परछाई हूँ
    .मेरे ही भीतर रहता है मेरे जैसा जाने कौन –निदा
    अब्बा जान !! आपको बहुत बहुत बधाई !! –मयंक

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