30 अप्रैल 2014

गङ्गा बहती हो क्यूँ - नरेन्द्र शर्मा

विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्यूँ ?

नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?


इतिहास की पुकार, करे हुङ्कार,
ओ गङ्गा की धार, निर्बल जन को, सबल सङ्ग्रामी,
गमग्रोग्रामी,
बनाती नहीँ हो क्यूँ ?


विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्ल्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?


अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ?
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित, निष्प्राण समाज को तोड़ती नहीं हो क्यूँ ?
ओ गङ्गा की धार, निर्बल जन को, सबल सङ्ग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?


विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्यूँ ?


पण्डित नरेन्द्र शर्मा
1913-1989

सम्पर्क - आप की सुपुत्री आ. लावण्या शाह

1 टिप्पणी:

  1. 'निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?'....पाप मानव करे ..निर्लज्ज माता को कहे .....अहसान फरामोशी है ...असाहित्यिक कथ्य है ...
    ----निष्प्राण समाज को तोड़ती नहीं हो क्यूँ ?......यह गंगा के पुत्रों का कार्य है या गंगा का ...अपना पाप गंगा के सिर ...क्या कविता है जी...

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