30 अप्रैल 2014

समीक्षा - शाकुन्तलम - ’एक कालजयी कृति का अंश’ ....पं० सागर त्रिपाठी

डा० भल्ला की कृति "शाकुन्तलम्" छ्न्दात्मक लयबद्धता की काव्य श्रङ्खला से परे, पौराणिक मूल कथा से भिन्न, मूल लेखकों से अलग थलग अपने आप में नए आयाम में पिरोए व्यकतिगत प्रयास का सान्स्कृतिक मनका है.

मूलग्रन्थ से परे रहकर भी शकुन्तला की व्यथा स्पष्ट है, नारी पात्रों के चयन में सहजता में लेखक का प्रयास झलकता है. नवीन परिवेश में नए स्वयंभू कथानक का समावेश नूतन प्रयास है, पाठक अचम्भित हो कर भी रसात्म होंगे यह पर्यवेक्षण का विषय होगा. कुछ प्रश्न चिन्ह लेखक की खोजी प्रवृति के द्योतक हैं. प्रगतिशील विचारों को आकर्षित करने की क्षमता लेखक की लेखनी में है. मात्र पर्यवेक्षक हो कर भी मैंने इसे आत्मसात किया है. सकारात्मक अनुभूति से भर गया हूँ. ऐसी कालजयी कृतियों पर आलोचना, आकलन, समालोचना फबती नहीं है.








मूलग्रन्थ अभिज्ञानशाकुन्तलम्पौराणिक धरोहर और नाट्य कृति का अनुपम संयोग है. डा० भल्ला की रचना धर्मिता, काव्य भक्ति और लेखन उत्साह प्रतिम अदभुत और किसी सीमा तक अविश्वसनीय सा है. 

उनकी व्यक्तिगत तेजस्विता स्पष्ट रूप सेशाकुन्तलम् एक अमर प्रेम गाथाके कण कण में झलकती है. कालिदास की कालजयी कृति का अन्श मात्र होना भी एक गौरव का विषय है. पाठकगण, शोधकर्ता, समालोचक, निश्चित ही नए आयाम इस ग्रन्थ में ढूँढेंगे यह मेरा मन्तव्य है.

डा. विनोद कुमार भल्ला, मुम्बई - सम्पर्क - 8080083611 

2 टिप्‍पणियां:

  1. बढा के प्यास मेरी उसने हाथ खींच लिया ...... अब ये किताब पढनी ही होगी ---मयंक

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