31 दिसंबर 2010

आने वाले नये साल [केलेंडर ईयर] की ढेर सारी शुभकामनाएँ

टेंशन सारी छोड़ के, बढ़िया करें विचार|
बढ़िया पहनें-खायँ हम, बढ़िया हों व्यवहार||
बढ़िया हों व्यवहार, यार आमद या खर्चे|
बढ़िया हों आधार, करें सब बढ़िया चर्चे|
बढ़िया मेल मिलाप होयँ बढ़िया ट्रांजेक्शन|
बढ़िया हो नव-वर्ष, रहे ना कोई टेंशन||

नीती में अंतर न हो, प्रीति बढ़े दिन रात|
दुर्बल- निर्धन व्यक्ति पे, करें न हम आघात||
करें न हम आघात, बात बस इतनी प्यारे|
दम दम दमके चंद्र, साथ जब चमकें तारे|
हिल मिल हम रह पायँ, भूल कर बातें बीती|
औरों को बतलायँ - वही - जो पालें नीती||


सभी साहित्य रसिकों को आने वाले नये साल [केलेंडर ईयर] की ढेर सारी शुभकामनाएँ|

30 दिसंबर 2010

प्रेम - उत्पत्ति, विकास और प्रभाव

भाव जभी उदगार बन - सहज, पूछते क्षेम|
अनुभूति की कोख से, तभी जन्मता प्रेम||
तभी जन्मता प्रेम, नेम से फलता बढ़ता|
सरोकार के साथ, गगन सा ऊँचा चढ़ता|
रहता दिल में, ख़ाता गुस्सा, पीता नफ़रत|
लेता कुछ ना, हरदम देने को ही उद्यत||

चल फिर हम तुम प्रेम से, करें प्रेम की बात|
प्रेम सगाई विश्व में, सर्वोत्तम सौगात||
सर्वोत्तम सौगात, घात ना करती है ये|
कैसा भी हो जख्म, फटाफट भरती है ये|
प्रेम बिना पुरुषार्थ - विनाशक, नारि - निरंकुश|
प्रेम बढ़ा कर लेता, नर, हाथी पर अंकुश||

23 दिसंबर 2010

पहली समस्या पूर्ति - चौपाई

हम में से कई ने अपने बचपन की पाठ्य पुस्तकों में यह कविता पढ़ी होगी:

उठो लाल अब आँखें खोलो|
पानी लाई हूँ, मुँह धो लो|
बीती रात, कमल दल फूले|
उन के ऊपर भँवरे झूले|

हम में से ज़्यादातर ने रामायण और हनुमान चालीसा भी ज़रूर पढ़ी है| आइए देखें कुछ पंक्तियाँ:-

मंगल भवन अमंगल हारी|
द्रवहु सू दसरथ अजर बिहारी||

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर|
जय कपीश तिहुँ लोक उजागर||

ऊपर की पंक्तियों को अगर ध्यान से पढ़ा जाए, तो आप पाएँगे ये चौपाई 'छंद' हैं|

चौपाई छंद

सबसे सरल छंद है ये| चार चरणों में बँटा होता है ये| प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं| पहले-दूसरे चरणों के अंत में समान शब्द आते हैं, और तीसरे-चौथे चरणों के अंत में समान शब्द आते हैं| यदि कवि चारों के चारों चरणों में समान शब्द लेना चाहे, तो सुंदरता और भी बढ़ जाती है| चरणांत में तगण और जगण वर्जित|

उदाहरण देखिए:-

उठो लाल अब आँखें खोलो
१२ २१ ११ २२ २२ = १६ मात्राएँ

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर
११ ११२१ २१ ११ २११ = १६ मात्राएँ


देखा आपने कितना आसान है ये छंद| तो चलो इस मंच पर की सबसे पहली 'समस्या पूर्ति' शुरू करते हैं| यह समस्या पूर्ति लोगों में रुझान जागने तक जारी रहेगी| उस के बाद सदस्यों / रचनाकारों के उत्साह को देखते हुए दूसरी पॅक्ति की घोषणा की जाएगी|


पहली समस्या पूर्ति की पंक्ति है:-

"कितने अच्छे लगते हो तुम|"

आपको ऊपर दी गयी पंक्ति को ध्यान में रखते हुए कम से कम चार चरणों वाली ३ चौपाई लिख कर navincchaturvedi@gmailcom पर भेजनी हैं, जिन्हें समय समय पर यहाँ मंच पर प्रकाशित किया जाएगा| रचनाकारों के समझने हेतु एक प्रस्तुति यहाँ दी जा रही है?:-

सब के सब अपने लगते हैं| पर जब तब हम को ठगते हैं|
सबकी बातें मोहित करतीं| आँखों में आँसू भी भरतीं|१|

अपने अपने कारण सबके| कोई न रहना चाहे दब के|
विजय पताका लहराते हैं| अपना दम खम दिखलाते हैं|२|

इन सब में तुम अलग थलग हो| उच्च गगन के मुक्त विहग हो|
सचमुच सच्चे लगते हो तुम| कितने अच्छे लगते हो तुम|३|

'कितने अच्छे लगते हो तुम', ये हिस्सा प्रस्तुति के किसी भी चरण में लेने के लिए स्वतंत्र हैं सभी रचनाकार|

आप सभी अपनी अपनी रचनाएँ navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें

20 दिसंबर 2010

हिंद युग्म पुरस्कृत ग़ज़ल: अच्छा लगता है - नवीन

इस ग़ज़ल पर नया काम
तनहाई का चेहरा अक्सर सच्चा लगता है।
ख़ुद से मिलना बातें करना अच्छा लगता है।१।

दुनिया ने उस को ही माँ कह कर इज़्ज़त बख़्शी।
जिसको अपना बच्चा हरदम बच्चा लगता है। २।

वक्त बदन से चिपकी स्थितियों के काँधों पर।
सुख-दुख संग लटकता जीवन झोला लगता है।३।

हम भी इसी दुनिया के रहने वाले हैं यारो।
हमको भी कोई बेगाना अपना लगता है।४।

सात समंदर पार बसे वो, उस को क्या मालूम।
उस को फ़ोन करूँ तो कितना पैसा लगता है।५। 
 
ताज़्ज़ुब होता है हम-तुम कैसे पढ़ लिख गये यार।
अब तो पैदा होने में भी खर्चा लगता है।६।

दुनिया ने जब मान लिया फिर हम क्यूँ ना मानें!
तेंदुलकर हर किरकेटर का चच्चा लगता है।७।

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नवंबर माह की हिंद युग्म द्वारा आयोजित यूनिप्रतियोगिता में इस ग़ज़ल को पुरस्कृत किया गया है| इस अनुग्रह के लिए हिंद युग्म परिवार का शत शत आभार|




Monday, December 20, 2010
NAVIN C. CHATURVEDI
प्रतियोगिता मे छठा स्थान नवीन चतुर्वेदी की ग़ज़ल को मिला है। हिंद-युग्म पर यह उनकी पहली रचना है। नवीन सी चतुर्वेदी का जन्म अक्टूबर 1968 मे मथुरा मे हुआ। वाणिज्य से स्नातक नवीन जी ने वेदों मे भी आरंभिक शिक्षा ग्रहण की है। अभी मुम्बई मे रहते हैं और साहित्य के प्रति खासा रुझान रखते हैं। आकाशवाणी मुंबई पर कविता पाठ के अलावा अनेकों काव्यगोष्ठियों मे भी शिरकत की है और आँडियो कसेट्स के लिये भी लेखन किया है। ब्रजभाषा, हिंदी, अंग्रेजी और मराठी मे लेखन के साथ नवीन जी ब्लॉग पर तरही मुशायरों का संचालन भी करते हैं। ज्यादा से ज्यादा नयी पीढ़ी को साहित्य से जोड़ने का प्रयास है।


पुरस्कृत रचना: अच्छा लगता है


तनहाई का चेहरा अक्सर सच्चा लगता है|
खुद से मिलना बातें करना अच्छा लगता है। |१|

दुनिया ने उस को ही माँ कह कर इज़्ज़त बख़्शी|
जिसको अपना बच्चा हरदम बच्चा लगता है। |२|

वक्त बदन से चिपके हालातों के काँधों पर|
सुख दुख संग लटकता जीवन झोला लगता है|३|

हम भी तो इस दुनिया के वाशिंदे हैं यारो|
हमको भी कोई बेगाना अपना लगता है। |४|

सात समंदर पार रहे तू, कैसे समझाऊँ|
तुझको फ़ोन करूँ तो कितना पैसा लगता है। |५|

मुँह में चाँदी चम्मच ले जन्मे, वो क्या जानें?
पैदा होने में भी कितना खर्चा लगता है। |६|

शहरों में सीमेंट नहीं तो गाँव करे भी क्या|
उस की कुटिया में तो बाँस खपच्चा लगता है। |७|

वर्ल्ड बॅंक ने पूछा है हमसे, आख़िर - क्यों कर?
मर्सिडीज में भी सड़कों पर झटका लगता है। |८|

दुनिया ने जब मान लिया फिर हम क्यूँ ना मानें!
तेंदुलकर हर किरकेटर का चच्चा लगता है। |९|

19 दिसंबर 2010

सलाम सचिन तेंदुलकर

अंतरराष्ट्रीय टेस्ट क्रिकेट में शतकों का अर्ध शतक पूरा करने पर सचिन तेंदुलकर के सम्मान में:-

सचिन सचिन सच्चिन सचिन, सचिन सचिन सच्चिन्न|
दुनिया की किरकेट का, तुम हो भाग अभिन्न||
तुम हो भाग अभिन्न, भिन्न है खेल तुम्हारा|
खिन्न हुआ था वार्न, देख कर स्वप्न, बेचारा|
आज तलक है याद, सचिन हमको वो मंज़र|
'बच्चू' जिसने कहा, उसी को मारा सिक्सर||

16 दिसंबर 2010

नवगीत : आप हम सब खुश रहें

आप हम सब खुश रहें!

खेत खलिहानों में
पैदावार हो,
हसरतों का ना कहीं
व्यापार हो,
बाल बच्चों को मिले
शिक्षा अमित,
बहन बेटी घूम पाएँ
भय रहित,
हो तरक्की
और
नदियाँ भी बहें|
आप हम सब खुश रहें।1|

गैर की दहलीज पर
जब जाएँ हम,
मोल इज़्ज़त का
न दे के आएँ हम,
बाँह फैला के
सभी को स्थान दें,
साथ ही सरहद पे भी
हम ध्यान दें,
ताकि भावी पीढ़ियाँ
सब सुख लहें|
आप हम सब खुश रहें।2|

हम रहें खुश
इस तरह कुछ
इस बरस,
विश्व को
आए न हम तुम पे
तरस,
हम भी हैं कुछ
विश्व को
बतलाएँ हम,
कंधे से कंधा मिला
बतियाएँ हम,
देख तन गोरा
न स्तर से ढहें|
आप हम सब खुश रहें।3|

9 दिसंबर 2010

सब से छोटी बहर की ग़ज़ल

मुद्दतों से एक जुनून था, सब से छोटे रूक्न पर ग़ज़ल लिखूं| गूगल पर सर्च किया, 'फाइलातुन' और 'फाइलुन' रूक्न पर ग़ज़लें मिलीं| फिर सोचा अगर इस से भी छोटे रूक्न को पकड़ा जाए तो कैसा! एक कोशिश जो की सिर्फ़ ३ मात्रा वाले रूक्न 'फअल' पर, जो अब आप सभी के सामने हाजिर है| आप सभी की राय मेरे लिए महत्वपूर्ण है| कृपया अपनी राय से ज़रूर अवगत कराने की कृपा करें|

सजन |
नमन |१|

सिफ़र |
सघन |२|

स-धन |
सु-जन |३|

महक |
चुभन |४|

शरम |
वसन |५|

धरम |
न हन |६|

समय |
वहन |७|

फिकर |
अगन |८|

कुमति |
पतन |९|

सफ़र |
जतन |१०|

8 दिसंबर 2010

नव-युवकों का करना ही होगा अभिनंदन

अद्भुत, अत्युत्तम, अमित, अनुपम, अगम, अपार|
कल थी सारी इंडिया, यूसुफ़ पर बलिहार||
यूसुफ़ पर बलिहार, यार सब हक्के बक्के|
घुमा घुमा कर क्या मारे हैं चौके छक्के|
खेल-कला-व्यापार-राजनीति या प्रबंधन|
नव-युवकों का करना ही होगा अभिनंदन||

4 दिसंबर 2010

हरिगीतिका छन्द विधान

हरिगीतिका छन्द विधान 

सोलह गिनें मात्रा, रुकें फिर, सांस लेने के लिए|
फिर बाद उस के आप मात्रा - भार बारह लीजिए||

चरणान्त में लघु-गुरु, तुकान्तक, चार पंक्ति विधान है|
हरिगीतिका वह छन्द है जो, महफ़िलों की शान है||




उदाहरण मात्रा गणना सहित  


सोलह गिनें मात्रा, रुकें फिर, 
२११ १२ २२ १२ ११ = १६ मात्रा, यति 

सांस लेने के लिए|
२१ २२ २ १२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 


फिर बाद उस के आप मात्रा - 
 ११ २१ ११ २ २१ २२ = १६ मात्रा, यति

भार बारह लीजिए||
२१ २११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु


चरणान्त में लघु-गुरु, तुकान्तक, 
११२१ २ ११ ११ १२११ = १६ मात्रा, यति 
 
चार पंक्ति विधान है|
 २१ २१ १२१ २ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु

हरिगीतिका वह छन्द है जो, 
११२१२ ११ २१ २ २ = १६ मात्रा, यति 
 
महफ़िलों की शान है||
 १११२ २ २१ २ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु


हरिगीतिका छंद १६+१२=२८ मात्रा वाला छंद होता है| अंत में लघु गुरु अनिवार्य है| इस छंद का अलिखित नियम यह है कि इस की धुन -

ला ला ल ला 
ला ला ल ला ला 
ला ल ला 
ला ला ल ला 

के अनुरूप चलती है| यहाँ धुन वाले ला का अर्थ गुरु अक्षर न समझ कर २ मात्रा भार समझना चाहिए|

ठीक इसी तरह का एक और छंद है - उसे सार या ललित छंद के नाम से जाना जाता है| इस छंद में भी १६+१२=२८ मात्रा होती हैं| अंत में गुरु गुरु आते हैं| और इस सार / ललित छंद की धुन होती है - 

ला ला ला ला 
ला ला ला ला 
ला ला ला ला 
ला ला

यहाँ भी धुन वाले ला का अभिप्राय गुरु वर्ण से न हो कर २ मात्रा भार से है|

हरिगीतिका को कभी कभी कुछ व्यक्ति गीतिका समझने की भूल कर बैठते हैं| जब कि वह एक अलग ही छंद है| गीतिका में १४+१२=१६ मात्रा होती हैं| अंत में लघु गुरु| इस छंद की धुन होती है -

ला ल ला ला 
ला ल ला ला 
ला ल ला ला
ला ल ला 

यहाँ भी धुन वाले ला का अभिप्राय गुरु अक्षर न हो कर २ मात्रा भार है| गीतिका छंद का उदाहरण - "हे प्रभो आनंद दाता ज्ञान हमको दीजिये"|

1 दिसंबर 2010

सरस्वती वन्दना


सरस्वती वन्दना


पद्मासनासीना, प्रवीणा, मातु, वीणा-वादिनी।
स्वर-शब्द-लय-सरगम-समेकित, शुद्ध-शास्वत-रागिनी॥
 
सब के हृदय सन्तप्त हैं माँ! निज-कृपा बरसाइये।
भटके हुए संसार को माँ! रासता दिखलाइये॥
 

यति-गति समो कर ज़िन्दगी में, हम सफल जीवन जिएँ।
स्वच्छन्द-सरिता में उतर कर, प्रेम का अमृत पिएँ॥
व्यवहार में भी व्याकरण सम, शुद्ध-अनुशासन रहें।
सुन कर जिन्हें जग झूम जाए, हम वही बातें कहें॥ 
 

इक और छोटी सी अरज है, शान्ति हो हर ठौर में।
परिवार के सँग हम खुशी से, जी सकें इस दौर में॥  
कह दीजिये अपनी बहन से, रह्म हम पर भी करें।
हे शारदे! वर दीजियेगा, हम सरसता को वरें॥


नवीन सी. चतुर्वेदी

छन्द हरिगीतिका




YouTube link :- Saraswati vandana - https://m.youtube.com/watch?v=hA3leJgE4Do

30 नवंबर 2010

लघु कथा : घोटाला

पति:-
[अख़बार पढ़ते हुए]
अजी सुनती हो, तुमने पढ़ा क्या एक और घोटाला राजनेताओं का?

पत्नी:-
[अनसुना करते हुए]
आपने बताया नहीं, आपकी जेब में जो २० हज़ार पड़े हैं, वो कहाँ से मिले आपको?

नव-कुण्डलिया - IND vs NZ 2nd ODI JAIPUR 01.12.10

गोवाहाटी में दिखी, हट कर युवा ब्रिगेड|
कीवी जिसके सामने, करते दिखे परेड||
करते दिखे परेड, ग्रेड दिखलाई जम के|
अश्विन, युवी, विराट, श्रिसन्त धमक कर चमके|
हमने तो यारो ये ही निरधार कर लिया|
भारत जब भी खेला, जीती टीम इंडिया||

27 नवंबर 2010

क्या कहते हैं आप?

साहित्यकार कैसा होना चाहिए?

बड़ा ही सीधा सा प्रश्न है ना ये! फिर भी कुछ है जो अनुत्तरित सा लगता रहता है|

मसलन:-

क्या साहित्यकार वो है :-

जो लिखता है.......
जो दूसरों के लिखे को भी पढ़ता है..............
जो सिर्फ़ अपनी आत्मा की आवाज़ पर ही लिखता है.............
जो दूसरों के कहने पर ही लिखता है...........
जो तारीफ करना जानता है............
जो तारीफ सुनने का शैदाई होता है............
जो साधारण बात को भी अलंकृत कर दे.........
जो सिर्फ़ अपनी दुनिया में ही सुखी और संतुष्ट रहता है..............
जिसे बाहर की दुनिया को देखने का भी शौक हो............
जो झक्की मिज़ाज हो.............
जिसकी सदाशायता के चर्चे सभी जगह हों.............
जिसके यहाँ महफ़िलों का दौर चलता रहता हो...............
जिसकी बातों में हमेशा आदर्श की बातें हों...............
जो जन साधारण से ऊपर उठ कर हो.............
जिसे सरकार पुरस्कृत करे...............
जो कई कई सालों से लिख रहा हो और जिसे सभी जानते हों............
जो पहचान का मोहताज होने के बावजूद साहित्य के प्रति समर्पित हो...................
जो स्थापित लोगों की रचनाओं को सम्मान देना जनता हो............
जो नयी पौध को भी उत्साहित करने में विश्वास रखता हो.......
जो दिल पे चोट करने वाली ग़ज़ल लिखे............
जिसकी हिन्दी पर अच्छी पकड़ हो.................
जिसने कुछ नयी विधा का प्रादुर्भाव किया हो.................


आदि आदि आदि...............


और भी बहुत कुछ| क्या ये सभी लक्षण होने चाहिए एक साहित्यकार में? या इन में से कुछ? या इनके अलावा भी.....
वो!
वो!!
वो!!!
वो!!!!

क्या कहते हैं आप? हम किसे समझें साहित्यकार? क्या परिभाषा होनी चाहिए साहित्यकार की? क्या आप सभी बुद्धिजीवी अपने कीमती वक्त में से कुछ पल निकाल कर इस विषय पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणी देना चाहेंगे? इस विद्यार्थी को आप सभी के उत्तरों की प्रतीक्षा रहेगी|

आपका अपना ही
नवीन सी चतुर्वेदी

नवरात्रि का त्यौहार, मानव मात्र का त्यौहार है

मस्ती भरे आबाल बच्चे, नाचते अरु झूमते।
पावस अनंतर तरु सघन, जैसे धरा को चूमते।।

हर ओर सुख समृद्धि के ही, दृश्य दिखते हैं घने।
जैसे कि हलधर, देख अपनी - फसल, खुशियों से तने।१।


कर्मठ मनुज, करते दिखें, बस - कर्म की आराधना।
वाणी-हृदय- व्यवहार से, बस - शक्ति की ही साधना।।

जिसने इसे अपना लिया, उस - का सफ़ीना पार है।
नवरात्रि का त्यौहार, मानव - मात्र का त्यौहार है।२। 

हरिगीतिका छंद

25 नवंबर 2010

किस का हम करें यक़ीं, सारे एक थैली के चट्टे-बट्टे - नवीन

क़रीब 10-15 साल पहले संझा जनसत्ता में प्रकाशित


किस का हम करें यक़ीं, सारे एक थैली के चट्टे-बट्टे
खाने को नहीं मिले तो फ़रमाया, अंगूर हैं खट्टे

जनता के तारनहार बड़े मासूम, बड़े दरिया दिल हैं
तर जाएँगी सातौं पीढ़ी, लिख डाले हैं इतने पट्टे

मज़हब हो या फिर राजनीति ठेकेदारों को पहिचानो
धन से बोझल, मन से कोमल तन  से होंगे हट्टे-कट्टे

जनता की ख़ातिर, जनता के अरमानों पर, जनता से ही -
जनता के हाथों जनसेवक सब खेल रहे खुल कर सट्टे 

11 नवंबर 2010

दिवाली गीत - दीपावली दीपावली दीपावली - नवीन

हर साल मेरी रूह को,
कर डालती है बावली। 
दीपावली दीपावली दीपावली॥ 

इक वजह है ये मुस्कुराने की। 
फलक से,
आँख उट्ठा कर मिलाने की। 
घरों को, 
रोशनी से जगमगाने की। 
गले मिलने मिलाने की। 
वो हो मोहन,
कि मेथ्यू,
या कि हो ग़ुरबत अली। 
दीपावली दीपावली दीपावली॥ 

हृदय-मिरदंग बजती है,
तिनक धिन धिन। 
छनकती है ख़ुशी-पायल,
छनक छन छन। 
गली में फूटते हैं बम-पटाखे भी,
धना धन धन। 
अजब सैलाब उमड़ता है घरों से ,
हो मगन, बन ठन। 
लगे है स्वर्ग के जैसी,
शहर की हर गली। 

दीपावली दीपावली दीपावली॥ 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

9 नवंबर 2010

धोनी की तकदीर चली, भाई बल्ले बल्ले

वी वी. एस. उड़ा दिए, न्यूजिलेंड के होश|
भज्जी में भी आ गया, उन्हें देख के जोश||
उन्हें देख के जोश, रोशनी ऐसी छाई|
कीवी ने दुम दुपका कर के जान बचाई|
फ़ील्डर-बौलर पस्त, पड़े ना कुछ भी पल्ले|
धोनी की तकदीर चली, भाई बल्ले बल्ले||

6 नवंबर 2010

दीपावली के उपलक्षय में एक बाल गीत - नवीन

बच्चों के सँग हर त्यौहार
लगता है सब को सुख-सार

बच्चों की मीठी मुस्कान
मातु पिता की है वो जान

बच्चों के सपने अनमोल
इन का कोई मोल न तोल

बच्चों के सँग हम भी गाएँ
दीवाली का पर्व मनाएँ

बच्चो तुम से प्यारा कौन
तुम से अधिक दुलारा कौन

तुम सब हो भारत की शान
बिन तुमरे ना हिंद महान

देते हैं आशीष तुम्हें
सब कुछ देवें ईश तुम्हें

जग में रोशन नाम करो
कुछ ऐसा तुम काम करो

देख जमाना गर्व करे
हाथ तुम्हारे शीश धरे

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

नव-गीत: ज्योति जला जगमग - नवीन

ज्योति जला जगमग.............

पर्व प्रकाश पुंज का आया
बाल-अबाल हृदय हरषाया
नर-नारी सब चहक रहे हैं
बन के नभ के खग...............
ज्योति जला जगमग

मालपुआ, बरफी, रसगुल्ला
बम्ब, पटाखे - खुल्लमखुल्ला
हर दुकान पर भाँति भाँति के
सजे हुए हैं नग.............
ज्योति जला जगमग

तम-प्रकाश का साथ पुरातन
सुख-दुख का मेला है जीवन
ध्यान रहे जब कष्ट पड़े तो
कदम न हों डगमग................
ज्योति जला जगमग

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

5 नवंबर 2010

उपमा, श्लेष और अनुप्रास अलंकार युक्त दोहे

अनुप्रास:
सुखद, सरस, सदगुण सना, शुभ्र, सुसंस्कृत, सार|
सत्य, सुरम्य, सुहावना, दीपों का त्यौहार||

यहाँ 'स' अक्षर के बार बार आने से अनुप्रास अलंकार होता है|

श्लेषालंकार:
सीधी चलते राह जो, रहते सदा निशंक|
जो करते विप्लव, उन्हें, 'हरि' का है आतंक||

यहाँ 'हरि' शब्द के दो अर्थ होने से श्लेषालंकार बनता है|
पहला अर्थ: नारायण / ईश्वर
दूसरा अर्थ: बंदर

उपमा अलंकार:
घी घटता ही जाय ज्यों, बाती जलती जाय|
नव यौवन सी झूमती, दीपाशिखा बल खाय||

सांगोपांग सिंहावलोकन छंद - घनाक्षरी कवित्त - नवीन

सांगोपांग सिंहावलोकन छंद
घनाक्षरी कवित्त

कवित्त का विधान
टोटल ४ पंक्तियाँ
हर पंक्ति ४ भागों / चरणों में विभाजित
पहले, दूसरे और तीसरे चरण में ८ वर्ण
चौथे चरण में ७ वर्ण, १६+१५ भी चलता है।
इस तरह हर पंक्ति में ३१ वर्ण

सिंहावलोकन का विधान
कवित्त के शुरू और अंत में समान शब्द
जैसे प्रस्तुत कवित्त शुरू होता है "लाए हैं" से और समाप्त भी होता है "लाए हैं" से

सांगोपांग विधान
ये मुझे प्रात:स्मरणीय गुरुवर स्व. श्री यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम' जी ने बताया कि छंद के अंदर भी हर पंक्ति जिस शब्द / शब्दों से समाप्त हो, अगली पंक्ति उसी शब्द / शब्दों से शुरू हो तो छंद की शोभा और बढ़ जाती है| वो इस विधान के छंन्द को सांगोपांग सिंहावलोकन छंद कहते थे|


कवित्त:
लाए हैं बाजार से दीप भाँति भाँति के हम,
द्वार औ दरीचों पे कतार से सजाए हैं|
सजाए हैं बाजार हाट लोगों ने, जिन्हें देख-
बाल बच्चे खुशी से फूले ना समाए हैं|
समाए हैं संदेशे सौहार्द के दीपावली में,
युगों से इसे हम मनाते चले आए हैं|
आए हैं जलाने दीप खुशियों के जमाने में,
प्यार की सौगात भी अपने साथ लाए हैं||


:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

लयात्मक अतुकान्त आधुनिक कविता - नवीन

जगमग जगमग
जग सारा
और रोशन है
हर द्वार
गली बाजार सजे सँवरे दिखते
चहुँ ओर

दैदीप्यमान
मानव संस्कृति ने रचे
अनेकों पर्व
दिवाली है उन में से एक

युगों युगों से
दीवाली के दिन सब
पूजा करते हैं
धन की देवी
पद्मासन पे आसीन
विष्णु की प्रिया
यशस्वी लक्ष्मी की

कहीं रोशनी
कहीं अंधेरा
ये भी है सच
अंधी दौड़ लगाती
विनिर्दिष्ट
आज की
आदमख़ोर
व्यवस्था का

फिर भी
ग्लास भरा आधा
कहना ही
ये
होगा हितकर
हम सबके लिए
सकारात्मक
परिणामों
की अभिलाषा में

आओ यार
चलो कुछ नया गढ़ें
कुछ नया करें
कुछ अभिनव हो
उत्साह भरें
उन सब के मन में
जो हैं पड़े हुए
कब से ही
छिटके हुए
निराश्रय
दूर
हाशिए पर
तन्हा

गर ऐसा हो पाये
तो ये कोशिस
होगी सफल
हमारा सपना होगा पूर्ण
हमें आनंद आयगा बहुत
एक नव युग का होगा सूत्रपात
धरती को भी होगा गुमान
अपनी जननी का कर्ज़
बहुत जो नहीं
तो थोड़ा तो
उतार पाएँगे हम

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

हाइकु - दीपावली - नवीन

ऊँचे भवनों
पर सजे दीपक
लगें तारों से|१|

लाते थे हम
बमों के साथ साथ
हटरी, कभी|२|

बिकने लगे
शहरों में अब तो
मानव बम |३|

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

25 अक्तूबर 2010

करवा चौथ

बदलता संसार
बदलता व्यवहार
बदलते सरोकार
बदलते संस्कार
बदलते लोग
बदलते योग
बदलते समीकरण
बदलते अनुकरण

बदलता सब कुछ
पर नहीं बदलता
नारी का सुहाग के प्रति समर्पण
साल दर साल निभाती है वो रिवाज
जिसे करवा चौथ के नाम से
जानता है सारा समाज

इस बाबत
बहुत कुछ शब्दों में
बहुत कुछ कहने से अच्छा होगा
हम समझें - स्वीकारें
उस के अस्तित्व को
उस के नारित्व को
उस के खुद के सरोकारों को
उस के गिर्द घिरी दीवारों को

जिस के बिना
इस दुनिया की कल्पना ही व्यर्थ है
दे कर भी
क्या देंगे
हम उसे

हे ईश्वर हमें इतना तो समर्थ कर
कि हम
दे सकें
उसे
उस के हिस्से की ज़मीन
उस के हिस्से की अनुभूतियाँ
उस के हिस्से की साँसें
उस के हिस्से की सोच
उस के हिस्से की अभिव्यक्ति
आसक्ति से कहीं आगे बढ़ कर......................

20 अक्तूबर 2010

इंडिया ओस्ट्रेलिया दूसरा वन ड़े

टेस्ट मॅच सीरीज़ में, दिन जो देखे डार्क|
पोंटिंग को कर के विदा, औसिस लाए क्लार्क||
औसिस लाए क्लार्क, शार्क बन के वो आया|
धोनी ने उसको भी हुलरा कर सुलटाया|
अपनी धरती पे मनमानी करने वालो|
विश्व चषक से पहले अपनी नाक बचा लो||

17 अक्तूबर 2010

आज के रावण


विजया-दशमी की शुभ-कामनाएँ 

अत्याचार अनीति कौ, लङ्काधीस प्रतीक|
मनुआ जाहि जराइ कें, करें बिबस्था नीक||
करें बिबस्था नीक, सीख सब सुन लो भाई|
नए दसानन  -  भ्रिस्टाचार, कुमति, मँहगाई;
छल, बिघटन, बेकारी, छद्म-बिकास, नराधम|
"मिल कें आगें बढ़ें, दाह कौ श्रेय ल़हें हम"|

एक अकेलो है चना! कैसें फोड़े भाड़?
सीधी सी तो बात है, तिल को करौ न ताड़||
तिल को करौ न ताड़, भाड़ में जाय भाड़ भलि|
जिन खुद बनें, बनाएँ न ही हम औरन कों 'बलि'|
खुद की नीअत साफ रखें, आबस्यकता कम|
"चलौ आज या परिवर्तन कौ श्रेय ल़हें हम"|

16 अक्तूबर 2010

वो है भगवान इन्सान के रूप में

सब के दिल में रहे, सबको सजदा करे, 
वो है भगवान इन्सान के रूप में|
जो बिना स्वार्थ खुशियाँ लुटाया करे, 
वो है भगवान इन्सान के रूप में||

अपने माँ-बाप का, बीबी-औलाद का, 
ख्याल रखते हैं सब, इसमें क्या है नया|
दूसरे लोगों की भी जो सेवा करे, 
वो है भगवान इन्सान के रूप में||

ये ही दुनिया का दस्तूर है दोस्तो, 
काबिलों को ही दिल से लगाते सभी,
हौसला हर किसी को जो बख्शा करे, 
वो है भगवान इन्सान के रूप में||

दायरों से न जिसका सरोकार हो, 
मामलों की न परवा करे जो कभी|
मुस्कुराहट के मोती पिरोता रहे, 
वो है भगवान इन्सान के रूप में||

14 अक्तूबर 2010

छंद 'हरिगीतिका' - माँ सदा बच्चों के अनुकूल

माँ आप सत हो, शक्ति दात्री , सुख-समृद्धि प्रदायिनी |
माँ इस धरा पर आप विद्या-वित्त-बल वरदायिनी |
माँ आप जड़-चेतन, चराचर, शुभ-अशुभ का मूल हो |
हर हाल में माँ आप निज संतान के अनुकूल हो ||

हरिगीतिका छन्द का विधान:-
चार चरण वाला छन्द
हर पंक्ति दो भागों में विभक्त
पहले भाग में १६ मात्रा
दूसरे भाग में १२ मात्रा
हर पंक्ति [पंक्ति के दूसरे भाग] के अंत में लघु और गुरु वर्ण / अक्षर अपेक्षित

13 अक्तूबर 2010

नव-कुण्डलिया - टेस्ट में इंडिया द्वारा ओस्ट्रेलिया का क्लीन स्वीप

दीवाली के पूर्व ही , चलो जलाएँ दीप|
बोल रहा हर इंडियन, वॉट ए क्लीन स्वीप||
वॉट ए क्लीन स्वीप, डीप मीनिंग है इस का|
उसे पछाड़ा, दुनिया में 'हौआ' है जिस का|
'भारत के वीरो' देखो तुम भूल न जाना|
वन-डे में भी अपने जौहर को दिखलाना||

घनाक्षरी कवित्त - ब्रजभाषा में कवित्त - राजा होय चोर तो?

समाधान औसधि है - रोग के निवारन कों,
पे औसधि के रोग कों, औसधि कहा दीजिए?

धर्म की सुरच्छा हेतु नीति हैं अनेक किन्तु,
नीति की अनीतिता पे नीति कौन छीजिये?

भने 'कविदास' जो पे ब्याधी होइ सान्त, तो पे,
भर भर घूँट खूब बिस कों हू पीजिये!

चोर करे चोरी तो सुनावे सज़ा राजा, किन्तु,
राजा होय चोर, तो हवाल कौने कीजिए?

10 अक्तूबर 2010

सावन के झूला का छन्द

ब्रजभाषा, घनाक्षरी छन्द

JHULA, RADHA KRISHN


 परम पुनीत, नीक, देह बगिया के बीच,
जोबन कौ ब्रिच्छ, कन-कन रस भीनों है|


ब्रिच्छ पै सनेह साख, साखन पै प्रीत-पात,
पातन कों छुऐ वात आनँद नवीनों है|


छोह की 'नवीन' डोर, फन्द नैन सैनन के,
झूलन के हेतु पाट हिरदे कों कीनों है।


देर न लगाओ अब झूलन पधारो बेगि,
राधिका लली नें श्याम झूला डार लीनों है||

ब्रजभाषा - दुर्मिल सवैया - अनुप्रास अलंकार

बिरहाकुल बीथि-बजारन बीच बढ़े बहुधा बिन बात किए|
मन में मनमोहन मूरत मंजुल, मादकता मधु-राग हिए|
पहचान पुरातन प्रीतम प्रीत, परी पगलाय प्रवीन प्रिए|
सजनी सब सुंदर साज़-सिँगार सहेज सजी सजना के लिए||

१४ हजारी सचिन तेंदुलकर

झुठला कर सरे मिथक, औ अनुमान तमाम|
फोर्टीन थौजेंड हो गए, तेंदुलकर के नाम||
तेंदुलकर के नाम, राम जी उन को राखें|
किरकिट प्रेमी उन के करतब के फल चाखें|
सब के प्यारे, और दुलारे सचिन हमारे|
चर्चा फिर से उनकी होगी द्वारे द्वारे||

कलम के सिपाही - श्री मुंशी प्रेमचंद

क़लम के जादूगर!
अच्छा है,
आज आप नहीं हो|

अगर होते,
तो, बहुत दुखी होते|

आप ने तो कहा था -
कि, खलनायक तभी मरना चाहिए,
जब,
पाठक चीख चीख कर बोले,
- मार - मार - मार इस कमीने को|

पर,
आज कल तो,
खलनायक क्या?
नायक-नायिकाओं को भी,
जब चाहे ,
तब,
मार दिया जाता है|

फिर जिंदा कर दिया जाता है|

और फिर मार दिया जाता है|

और फिर,
जनता से पूछने का नाटक होता है-
कि अब,
इसे मरा रखा जाए?
या जिंदा किया जाए?

सच,
आप की कमी,
सदा खलेगी -
हर उस इंसान को,
जिसे -
मुहब्बत है,
साहित्य से,
सपनों से,
स्वप्नद्रष्टाओं,
समाज से,
पर समाज के तथाकथित सुधारकों से नहीं|

हे कलम के सिपाही,
आज के दिन -
आपका सब से छोटा बालक,
आप के चरणों में -
अपने श्रद्धा सुमन,
सादर समर्पित करता है|


अपना घर सारी दुनिया से हट कर है - नवीन

अपना घर सारी दुनिया से हट कर है|
हर वो दिल, जो तंग नहीं, अपना घर है|१|

माँ-बेटे इक सँग नज़्ज़ारे देख रहे|
हर घर की बैठक में इक 'जलसाघर' है|२|

जिसने हमको बारीकी से पहचाना|
अक़बर उस का नाम नहीं, वो बाबर है|३|

बिन रोये माँ भी कब दूध पिलाती है|
वो जज़्बा दिखला, जो तेरे अन्दर है|४|

उस से पूछो महफ़िल की रंगत को तुम|
महफ़िल में, जो बंदा - आया पी कर है|५|

'स्वाती' - 'सीप' नहीं मिलते सबको, वर्ना|
पानी का तो क़तरा-क़तरा गौहर है|६|

सदियों से जो त्रस्त रहा, दमनीय रहा|
दुनिया में अब वो ही सब से ऊपर है|७|

मेरी बातें सुन कर उसने ये पूछा|
क्या तू भी पगला-दीवाना-शायर है|८|

पहले घर, घर होते थे; दफ्तर, दफ्तर|
अब दफ्तर-दफ्तर घर, घर-घर दफ्तर है|९|

मेरी बाँहों मैं आज तलक, तेरे हुस्न की ख़ुशबू बाकी है - नवीन

कुछ गालों की, कुछ होठों की, 
साँसों की और हया की है
मेरी बाँहों मैं आज तलक, 
तेरे हुस्न की ख़ुशबू बाकी है 
 
तिरछी नज़रें, क़ातिल चितवन, 
उस पर आँखों का अलसाना
तेरा इसमें कुछ दोष नहीं, 
पलकों ने रस्म अदा की है 
 
गोरी काया चमकीली सी, 
लगती है रंग रँगीली सी
  दिलवाली छैल छबीली सी, 
तेरी हर बात बला की है 
 
फूलों सा नरम, मखमल सा गरम, 
शरबत सा मधुर, मेघों सा मदिर
तेरा यौवन मधुशाला है, 
मेरी अभिलाषा साकी है

खाने को नहीं मिले तो फरमाया अंगूर हैं खट्टे

किसका हम करें यकीं दोनों इक थैली के चट्टे बट्टे
खाने को नहीं मिले तो फरमाया अंगूर हैं खट्टे 
 
उल्लू तो केवल रात को ही नजरों को पैनी करता है
हर वक्त तुमहें हर जगह पे मिल जायेंगे उल्लू के पठ्ठे 
 
मजहब हो या फिर राजनीति, ठेकेदारों को पहिचानो
धन से बोझल, मन से कोमल, तन से होंगे हट्टे कट्टे 
 
जनता के तारनहार, बङे मासूम, बङे दरिया दिल हैं
तर जायेंगी सातों पीढी, लिख डाले हैं इतने पट्टे 
 
जनता की खातिर, जनता के अरमानों पर, जनता से ही
जनता के हाथों, जन सेवक सब, खेल रहे खुल कर सट्टे

खेत का भविष्य

खेतों को काट के इमारतें
बनती ही जा रही हैं
जहाँ देखो -
बेइन्तेहा
तनती ही जा रही हैं

चिन्ता होती है
अगर कोन्क्रीट के ये जंगल
युंही फैलते जायेंगे
तो एक दिन
हम अपनी आने वली पीढी को
म्यूजियम में ले के जायेंगे
और बतायेंगे
देखो देखो
वो जो मिट्टी का मैदान
दूर दूर तक
फैला हुआ दिखता है
एक जमाने में
वो खेत कहलाता था
फसल उगाता था
वसुधैव कुटुम्बकम का
पाठ सिखलाता था
हिनदुस्तान को दुनिया में
सबसे अलग दिखलाता था

देखो आज ये किस तरह
हमको चिढा रहा है
फिलहाल
म्यूजियम की
टिकटें
बिकवा रहा है


ऊंट एक योजनाकार

यूं तो ऊंट
एक बुद्धिमान योजनाकार है

जो रेगिस्तान की गरमी से
बचने के लिये
अपने पेट की पोटली में
पानी भर के रखता है

और जब उसे प्यास लगती है
तो किसी को पता भी नहीं चलता
कि वो प्यासा है
और वो
चुपचाप
पानी पी लेता है

मगर
जब उसे कहीं पानी नहीं दिखता

और
उसके पेट की पोटली का पानी भी
खत्म हो जाता है

तो
वो किसी को बता भी नहीं पाता
कि वो प्यासा है

और बस युँही
मर जाता है

बस इसी कारण से
वो
एक बेहतरीन
योजनाकार
नहीं कहलाता

न जी पाते तसल्ली से, सुकूं से मर नहीं पाते

न जी पाते तसल्ली से, सुकूं से मर नहीं पाते
बहुत कुछ करना चाहते हैं हम, पर कर नहीं पाते

मध्य वर्गीय अपना नाम, सपने देखना है काम
न नीचे हैं - न ऊपर हैं, अधर में लटकते भर हैं
तुफानों की रवानी हैं, सफीनों की कहानी हैं
मुद्दों की बिना हैं हम, मगर मुद्दा बिना हैं हम
अमीरों की हिकारत हैं, गरीबों की अदावत हैं
सहाबों की हुकूमत हैं, हुक्मरानों की दौलत हैं
खुदा की बंदगी हैं हम, जहाँ की गंदगी हैं हम
हबीबों का सिला हैं हम, रकीबों का गिला हैं हम
फकीरों की दुआ हैं हम, नसीबों का जुआ हैं हम
हर इक हम काम करते हैं, सुबहोशाम करते हैं
न कर पाते हैं तो बस हौसला भर कर नहीं पाते
बहुत कुछ करना चाहते हैं हम, पर कर नहीं पाते

किसी की आजमाइश हैं, कुदरत की नुमाइश हैं
मजहबों की धरोहर हैं, सल्तनतों की मोहर हैं
काज का वास्ता हैं हम, राज का रास्ता हैं हम
टुकङों में बँटे हैं हम, उफ कितने छँटे हैं हम
सभी की एक सी पहिचान, फिर भी अलग हर इन्सान
कब हम सत्य समझेंगे, हालातों को परखेंगे
जिस दिन एक हो कर हम, निकल आये कदम - ब - कदम
बदल जायेगी ये दुनिया, निखर आयेगी ये दुनिया
बहुत मनसूब करते हैं, इरादे खूब करते हैं
न कर पाते हैं तो बस फैसला भर कर नहीं पाते
बहुत कुछ करना चाहते हैं हम, पर कर नहीं पाते

एक बाग में तरह - तरह के फूल महकते

गैंदा, चम्पा, जूही, हरसिंगार, चमेली
कमल, गुलाब, कदम्ब, रातरानी अलबेली

तरह - तरह के फूल, सभी के रंग निराले
अलग - अलग खुश्बू सबकी और ढंग निराले

अपने - अपने मौसम में सब धूम मचाते
पंच तत्व का सार, सभी जन को समझाते

एक बाग में तरह - तरह के फूल महकते
आपस में हिल - मिल रहते, ना कभी बहकते

छोटी सी बगिया जैसी है, दुनिया सारी
भाँति - भाँति के फूल जहाँ सब हैं नर नारी

फूलों की ही तरह सभी जीना सीखें गर
सारे दुख मिट जायें और जीवन हो सुखकर
 

प्यारे किस के लिये लिखते हो

तुम लिखते हो, में पढता हूं, मैं कहता हूं, तुम सुनते हो
मुझसे मेरा अन्तस पूछे, प्यारे किस के लिये लिखते हो

कौन करेगा मूल्यांकन, इस परिश्रम का, जो मात्र अकिंचन
कौन करेगा बैठ के पल भर, लिखी हैं उन बातों पे चिन्तन
किसको है फुर्सत, जो आ कर, बात तुम्हारे मन की पूछे
सुने, समझ कर, समझाने को, फिरता डोले कूचे - कूचे
 
थोङा सा भी वक्त मिले तो, आपस मैं होती हैं बातें
कैसे दिन गुजरे हैं तेरे, कैसे काटीं मैं ने रातें
आगे बात बढे तब तक तो, रात गुजर जाती है सहसा
हाल सुबह का रातों जैसा, फिर रातों का वही सुबह सा
 
ऐसे में क्या खाक सुनेगा, आम आदमी बात तुम्हारी
सब को छोङो, खुद की सोचो, मानो जो तुम बात हमारी
इतनी सीधी सच्ची बात, बताने पर ही जान सका मैं
अपनी और जमाने भर की, सूरत को पहचान सका मैं
 
सत्य! अकिंचन श्रम है मेरा, सत्य! न है कोई अभिलाषा
अभिलाषा तो बस इतनी है, जन जन में जागे जिज्ञासा
पूछे हर कोई खुद से, वो जीता है - क्यों जीता है
गुस्सा क्यों खा जाता है, और अश्कों को क्यों पीता है
 
उसको क्यों मालूम नहीं है, मानव की पहचान है क्या
जङ है क्या, चेतन है क्या, ये जिस्म है क्या और जान है क्या
कुदरत से क्यों दूर दूर है, कृत्रिमता का दीवाना
अपने ही घर के अन्दर वो, आज हु आ क्यों बेगाना
 
उसको क्यों मालूम नहीं हैं, अपने फर्ज औ अपने हक
कदम बढाने से पहले ही, आखिर क्यों जाता है थक
खोई खोई आखें, उखङी सांसें, बिखरे सपने क्यों
नास्तिक भी आफत आने पर, लगे राम को जपने क्यों
 
सार्वभौम है यदि मनुष्य, तो ईश्वर का आराधन क्यों
वैज्ञानिक युग में भी, एक पहेली है ये जीवन क्यों
तन तो बहुत तराशा हमने, लेकिन मन संकीर्ण रहा
मानव का मानस मन्दिर, बस जीर्ण रहा और शीर्ण रहा
 
आधी - आधी बात, तुम्हारी समझ नहीं आती हैं ना?
आओ फिर से बन जायें, कुछ पल को हम तोता मैना
खुद से खुद के बारे में, कुछ खुल कर चर्चा आज करें
अद्यतन - पुरातन, मसलों - सिद्धान्तों पर चर्चा आज करें
 
आपस में अपना ज्ञान परस्पर बाँट, बनें हम विज्ञानी
मंशा अपनी है यही फकत, हठ कहो इसे, या मनमानी

ठंडक बो जा, हवा गरम है - नवीन

छुप कर सो जा, हवा गरम है
चुप भी हो जा, हवा गरम है

दाग दिया, चल भला किया, अब
झटपट धो जा, हवा गरम है

आज मुझे अपने अश्क़ों से 
यार भिगो जा, हवा गरम है

गर्म रेत पर भटक न प्यारे
उपवन को जा, हवा गरम है

आज नहीं तो कल फैलेगी
ठंडक बो जा, हवा गरम है 

: नवीन सी. चतुर्वेदी 

 फालुन फालुन फालुन फा
22 22 22 2

8 जून 1996 को मुंबई के दैनिक 'दोपहर' के 'कवितांगन' में प्रकाशित

अगर कोशिश नहीं होती तो लोहा किस तरह उड़ता - नवीन

अदावत को भले ही कोई सी भी दृष्टि से देखें
मुहब्बत को तो केवल बन्दगी की दृष्टि से देखें 
 
ये अच्छा है - बुरा है वो, ये अपना है - पराया वो
अमां इन्सान को इन्सान वाली
दृष्टि से देखें
 
ये राहें आग ने खोलीं, हवा ने हौसला बख़्शा
न हो विश्वास तो ख़ुद को पराई दृष्टिसे देखें
 
अगर कोशिश नहीं होती तो लोहा किस तरह उड़ता
हमारी कोशिशों को हौसलों की दृष्टि से देखें


बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन  मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन 
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

चेहरे बदलने थे मगर बस आइने बदले गये - नवीन

चेहरे बदलने थे मगर बस आइने बदले गये
इनसाँ बदलने थे मगर बस कायदे बदले गये

हर गाँव, हर चौपाल, हर घर का अहाता कह रहा
मंज़िल बदलनी थी मगर बस रासते बदले गये

अब भी गबन, चोरी, छलावे हो रहे हैं रात दिन
तब्दीलियों के नाम पर बस दायरे बदले गये

जिन मामलों के फ़ैसलों के मामले सुलझे नहीं
उन मामलों के फ़ैसलों के फ़ैसले बदले गये



बहरे रजज मुसम्मन सालिम 
मुसतफइलुन मुसतफइलुन मुसतफइलुन मुसतफइलुन 
२२१२ २२१२ २२१२ २२१२

पेङ, पर्यावरण और कागज

कटते जा रहे हैं
पेङ
पीढी दर पीढी
बढता जा रहा है
धुंआ
सीढी दर सीढी
अपने अस्तित्व की
रक्षा के लिये ,
चिन्तित है -
कागजी समुदाय
हावी होता जा रहा है
कम्पयुटर,
दिन ब दिन ,
फिर भी
समाप्त नहीं हुआ -
महत्व,
कागज का अब तक

बावजूद
इन्टरनेट के ,
कागज
आज भी प्रासंगिक है -
नानी की चिठ्ठियों में ,
दद्दू की वसीयत में
कागज ही
होता है इस्तेमाल ,
हर मोङ पर
जिन्दगी के
परन्तु
थकने भी लगा है
कागज
बिना वजह
छपते छपते
कागज के अस्तितव के लिये
जितने जरूरी हैं
पेङ,
पर्यावरण,
आदि आदि ,
उतना ही जरूरी है -
उनका सदुपयोग -
सकारण
अकारण नहीं

मैं तुझ को बहलाऊँ, तू मुझ को बहला - नवीन

मैं तुझ को बहलाऊँ, तू मुझ को बहला
अगर समझता है अपना तो हक़ जतला 

भटक रहा है तू, तो मैं भी तनहा हूँ
बोल कहाँ मिलना है चल तू ही बतला

डाँट-डपट कुछ भी कर, लेकिन मेरे भाई
अपने बीच में दुनियादारी को मत ला

दावा है तुझ को भी तर कर देंगे अश्क़
एक बार तो ख़ुद से मेरा ज़िक्र चला 

आज कई दिन बाद मिले हैं फिर से हम
भाई प्लीज़ ज़रा मेरे सर को सहला

पछतावे के अश्क़ बहा कर आँखों से
मैं तुझ को नहलाऊँ तू मुझ को नहला

जी करता है फिर से खेलें खेल 'नवीन'
आँख-मिचौनी वाला वो पहला-पहला


फालुन फालुन फालुन फालुन फालुन फा
22 22 22 22 22 2


साईं मुझको गले लगा ले

तुझसे बातें करने तेरे दर पे आया हूँ
साईं मुझको गले लगा ले, मैं न पराया हूँ 


ज्ञान की ज्योत जला, मन का अन्धकार हटाया है
श्रद्धा और सबूरी का रसपान कराया है
कुछ भी नहीं इन्साँ की हस्ती, तूने बताया है
कितना गरूर भरा था मन में, तूने मिटाया है
तेरे चरनों में अर्पित करने, वो ही सर लाया हूँ
साईं मुझको गले लगा ले, मैं न पराया हूँ 


मन का मैल मिटा कर इसमें, तुझे बिठाऊँ मैं

करती हैं सब से ही, प्यार वीणा वादिनी


शब्द सागर मैं, स्वर पद्म पर विराजमान,
साजों का करती हैं, शृंगार वीणा वादिनी|

सरगम माध्यम से, लोगों के तन मन मैं,
करती आनन्द का, संचार वीणा वादिनी|

रागों की रिमझिम मैं, थापों की थिरकन पे,
नृत्य नाटिका का हैं, संसार वीणा वादिनी|

सदबुद्धि देती हैं औ, कुमति हर लेती हैं,
करती हैं सब से ही, प्यार वीणा वादिनी||

तू जो कहे

तू जो कहे, तेरी दुनिया से तुझको चुरा ले आऊँ मैं।
तेरी इजाजत हो, तो मुहब्बत की बगिया महकाऊँ मैं।१।

मान सके तो मान ले कहना, दिल मैं है ख्वाहिश एक यही।
तुझको बना लूं अपना दिलबर, और तेरा हो जाऊँ मैं।२।


तेरा भरोसा, तेरा सहारा, प्यार जो तेरा मिल जाये।
सबसे बड़ा किस्मत वाला, इस दुनिया में बन जाऊँ मैं।३।

तेरी ही बातें - तेरी ही यादें, इसके सिवा कुछ काम नहीं।
तुझसे जो वक़्त मिले तब यारा, दुनिया से बतियाऊँ मैं।४।

नजर मिला के, शर्म मिटा के, जो दिल में है - कह दे तू।
ऐसा न हो, कहीं दिल की ये ख्वाहिश, दिल में रखे मर जाऊँ मैं।५।

कितना भी हो सुनहरा अच्छा नहीं लगे है - नवीन

कितना भी हो सुनहरा अच्छा नहीं लगे है
सबको, सपाट चेहरा, अच्छा नहीं लगे है

मेहमान तो बिला शक़ भगवान ही है लेकिन
हद से ज़ियादा ठहरा अच्छा नहीं लगे है

ग़ज़लों का तब मज़ा है कुछ वाह-वाह भी हो
श्रोता अगर हो बहरा अच्छा नहीं लगे है

बच्चों पे ध्यान रखना, बेशक़ ही लाज़िमी है
पर हर घड़ी का पहरा अच्छा नहीं लगे है

दुल्हन तो लाल जोड़े में ही लगे है सुंदर
दुल्हन के सर पे सहरा अच्छा नहीं लगे है




बहरे मज़ारे मुसम्मन अखरब
मफ़ऊलु फ़ाएलातुन मफ़ऊलु फ़ाएलातुन
२२१ २१२२ २२१ २१२२ 

हे अज्ञात विधाता तुझे प्रणाम

हे अज्ञात विधाता तुझे प्रणाम|
ना रूप तेरा, ना रंग तेरा, ना जानू तेरा नाम||
हे अज्ञात विधाता तुझे प्रणाम...
 
कठिन वक्त में आता है तू, सच्ची राह दिखाता है तू|
हम से जो हो पाए न सम्भव, चुटकी में कर जाता है तू|
अहंकार हो ख़त्म जहाँ पर, वहीं है तेरा धाम||
हे अज्ञात विधाता तुझे प्रणाम...
 
हार्डवेयर जो मढ़ा है तूने, उसकी कोई होड़ नहीं है|
सॉफ़्टवेयर जो गढ़ा है तूने, उसकी कोई तोड़ नहीं है|
कितने फीचर, कितने फंक्शन, करता सारे काम||
हे अज्ञात विधाता तुझे प्रणाम...
 
सुना है धरती, अम्बर, पानी, अग्नि, हवा सब तुझसे हैं|
सुख-दुख, अच्छा-बुरा, गतागत, हानि-लाभ सब तुझसे हैं|
सृष्टि के सारे करतब, तुझसे पाते अंजाम||
हे अज्ञात विधाता तुझे प्रणाम...
 
ढाई आखर का तेरा मोबाइल नम्बर है जाहिर|
कइयों फोन अटेंड करे - इक साथ, कौन - तुझ सा माहिर|
तेरा ओफिस चले हमेशा, निशि-दिन , सुबहोशाम||
हे अज्ञात विधाता तुझे प्रणाम...
 
 
हार्डवेयर - मानव शरीर
सॉफ़्टवेयर - मानव मस्तिष्क
ढाई आखर = प्रेम

बारिश आ गयी

टप-टप की आवाज़ सुनी कानों ने,
बारिश आ गयी|
बूँदों का सत्कार किया पेड़ों ने,
बारिश आ गयी|

श्याम वर्ण नभ हुआ अचानक|
भगीं चींटियाँ छितरा के|
पंछी छुपे घरौंदों में जा|
हवा चले है इतरा के|
सौंधी खुश्बू फील करी नथुनों ने,
बारिश आ गयी|
बूँदों का सत्कार किया पेड़ों ने,
बारिश आ गयी||

गरमी फिरती मारी मारी|
झूम रहे सब के तन-मन|
जहाँ भी देखो, हरियाली-
करती धरती का आलिंगन|
तले पकौड़े माँ-बीवी-बहनों ने,
बारिश आ गयी|
बूँदों का सत्कार किया पेड़ों ने,
बारिश आ गयी|

कहीं मस्तियों के मेले हैं|
कहीं मुसीबत तूफ़ानी|
घर वाले आनंद कर रहे|
घुसा झोपडों में पानी|
बिलियन बजट बनाए नेताओं ने,
बारिश आ गयी|
बूँदों का सत्कार किया पेड़ों ने,
बारिश आ गयी|

खुद पर तरस आया

मैंने हवा को महसूस किया -
शून्य को सम्पन्न बनाते हुए,
सरहदों के फासले मिटाते हुए,
खुशबु को पंख लगाते हुए,
आवाज की दुनिया सजाते हुए,
बिना कहीं भी ठहरे,
यायावर जीवन बिताते हुए,

और फिर मुझे
खुद पर तरस आया.

मैं -
यानि
कि एक आदम जात,

जो -

संपन्नता को शुन्य की ओर
ले जा रहा है,

सरहदों को छोड़ो,
दिलों में भी
फासले बढाता जा रहा है,

खुशबु की जगह,
जहरीली गैसों का
अम्बार लगाता जा रहा है,

हर वो आवाज,
जो दमदार नहीं है,
उसे और दबाता जा रहा है,

मैं -
जिसे कि पहचाना जाता था,
मानवीय मूल्यों के शोधकर्ता के रूप में,
ठहर चूका हूँ -
इर्ष्या और द्वेष की चट्टान पर.


और जब ये सब -
देखा,
सोचा,
समझा,

सचमुच,
मुझे -
खुद पर तरस आया.

भटक रहा हर चेहरा जाना-पहिचाना सा लगता है - नवीन

भटक रहा हर चेहरा जाना-पहिचाना सा लगता है
बस अपना ख़ुद का चेहरा ही बेगाना सा लगता है


जाने कैसा रोग लगा है, कैसी है ये बीमारी
जिस को भी देखो उस से ही याराना सा लगता है


हर क़िस्से के साथ, अमूमन, गुज़रे हैं अपने पल-छिन
अब तो हर अफ़साना, अपना अफ़साना सा लगता है


कहीं आँसुओं के रेले हैं, कहीं बहारों के मेले
सारा जग, अहसासों का ताना-बाना सा लगता है


हम जैसों को अपनी कोई ख़बर कब रहती है साहब 
लोगों का कहना है 'नवीन' अब दीवाना सा लगता है







फालुन फालुन फालुन फालुन फालुन फालुन फा 
22 22 22 22 22 22 22 2

लब कहते हुए शरमाते हैं

तेरे मेरे नैना, चुपके चुपके जो बतियाते हैं
दिल को तो मालूम है पर, लब कहते हुए शरमाते हैं



वक़्त कहाँ थमने वाला है, रुत भी आनी जानी है
नहीं आज की, बड़ी पुरानी, अपनी प्रेम कहानी है
तेरा मन मेरे मन से, क्यूं अलग थलग सा रहता है
मेरे दर तक आ कर, तेरे कदम सहम क्यूं जाते हैं


तेरी मरजी पर - मेरी अरजी की किस्मत है यारा
तेरी ख्वाहिश से - मेरी ख्वाहिश का रिश्ता है न्यारा
मेरी साँसें - तेरी साँसों से मिलने को हैं व्याकुल
इक मंजिल के राही दोनों, फिर भी न क्यूं मिल पाते हैं

9 अक्तूबर 2010

बहना की पहचान है राखी

RAKHI
बहना की पहचान है राखी| 
भाई का अभिमान है राखी||

संबंधों की परिभाषा है| 
रिश्तों का गुणगान है राखी||

छोटी सी इक डोर है लेकिन|
 ताक़त लिए महान है राखी||

बहना का अपने भैया से| 
रक्षा का अरमान है राखी||

लड्डू, बरफी, कंद, समौसे| 
इन से सजी दुकान है राखी||

चहचहाते थे लड़कपन में परिन्दों की तरह - नवीन



चहचहाते थे लड़कपन में परिन्दों की तरह ।

आजकल राम रटा करते हैं तोतों की तरह ।।

 

अब तो मुश्किल से नज़र भर के कोई तकता है ।

बस टँगे रहते हैं हम चाँद-सितारों की तरह ।।

 

एक झटके में जुदा हो के फ़ना हो गए हैं ।

आबशारों से बिछड़ती हुई बूँदों की तरह ॥

 

छापने वाले भी शिद्दत से नहीं पढ़ते हमें ।

छाप देते हैं उसूलों की किताबों की तरह ॥

 

अच्छे-अच्छों ने कहा कृष्ण की मुरली हैं हम ।

और समझा हमें ढप-ढोल-नगाड़ों की तरह ॥

 

आबशार – झरना


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पुराना काम : 




अपनी ख़ुशबू तो बिखरनी थी गुलाबों की तरह।
पर बुझा डाला गया हम को चराग़ों की तरह॥

एक झटके में हवाओं ने हमें खींच लिया।
गिरते झरनों से बिछड़ती हुई बूँदों की तरह॥

बोलते सब हैं मगर हम को पढा है किसने।
सिर्फ़ छापा है उसूलों की किताबों की तरह॥

अच्छे-अच्छों ने कहा कृष्ण की मुरली हैं हम।
किन्तु समझा हमें ढप-ढोल-नगाड़ों की तरह॥

यों अगर देखें तो कुछ भी तो न कर पाये हम।
चहचहा भी तो नहीं पाए परिन्दों की तरह॥





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जिस ने इस दिल को खिलाना था गुलाबों की तरह
उस ने ही दिल को बुझा डाला चिराग़ों की तरह।१।

मैंने देखा है ज़माने को तेरी नज़रों से।
तेरी यादें हैं मेरे दिल में क़िताबों की तरह।२।

मन की धरती पे ख़यालों की उगी घास, उस पर।
तेरा एहसास लगे शबनमी बूंदों की तरह।३।

तेरी ख़ामोशी कभी लगती है सन्नाटे सी।
तो कभी लगती है ढप-ढोल-नगाड़ों की तरह।४।


बहरे रमल मुसम्मन मखबून मुसक्कन
फाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फालुन 
२१२२ ११२२ ११२२ २२