10 अक्तूबर 2010

भटक रहा हर चेहरा जाना-पहिचाना सा लगता है - नवीन

भटक रहा हर चेहरा जाना-पहिचाना सा लगता है
बस अपना ख़ुद का चेहरा ही बेगाना सा लगता है


जाने कैसा रोग लगा है, कैसी है ये बीमारी
जिस को भी देखो उस से ही याराना सा लगता है


हर क़िस्से के साथ, अमूमन, गुज़रे हैं अपने पल-छिन
अब तो हर अफ़साना, अपना अफ़साना सा लगता है


कहीं आँसुओं के रेले हैं, कहीं बहारों के मेले
सारा जग, अहसासों का ताना-बाना सा लगता है


हम जैसों को अपनी कोई ख़बर कब रहती है साहब 
लोगों का कहना है 'नवीन' अब दीवाना सा लगता है







फालुन फालुन फालुन फालुन फालुन फालुन फा 
22 22 22 22 22 22 22 2

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