मैं लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मैं लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मैं

मैं


मैं
मैं
मैं
ये बकरी वाली 'में-में' नहीं है

ये वो 'मैं' है
जो आदमी को
शेर से
बकरी बनाता है..............

मैं,
हर बार आदमी को,
शेर से बकरी नहीं बनाता...........

कभी कभी
बकरी को भी,
शेर बना देता है................

और कभी कभी,
उस का,
स्वयँ से,
साक्षात्कार भी करा देता है..............

'मैं'
किस के अंदर नहीं है?
बोलो-बोलो!!!

हैं ना सबके अंदर?
कम या ज़्यादा!!!!!!

और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है
इस 'मैं' के बारे में............

पर डरता हूँ मैं भी
उस कड़वे सत्य को
सार्वजनिक रूप से
कहते हुए.................

इसलिए
सिर्फ़ इतना ही कहूँगा
कि मैं
इस 'मैं' का दीवाना तो बनूँ
पर, उतना नहीं-
कि ये 'मैं' तो परवान चढ़ जाए
और खुद मैं-
उलझ के रह जाऊँ,
इस परवान चढ़े हुए,
'मैं' के द्वारा बुनी गयी-
ज़ालियों में............

आप क्या कहते हैं?


मेरी इच्छा थी कि सब से ज्वलंत पर अक्सर ही दरकिनार कर दिए जाने वाले इस विषय 'मैं' पर एक बहुत ही साधारण भाषा में ऐसी कविता लिखूं, जिसे समझने के लिए शब्द कोष या दिमागी घोड़े दौडाने की जरुरत न पड़े| मैं अपने प्रयास में कितना सफल हो पाया हूँ, आप लोग ही बता पायेंगे|

खुद पर तरस आया

मैंने हवा को महसूस किया -
शून्य को सम्पन्न बनाते हुए,
सरहदों के फासले मिटाते हुए,
खुशबु को पंख लगाते हुए,
आवाज की दुनिया सजाते हुए,
बिना कहीं भी ठहरे,
यायावर जीवन बिताते हुए,

और फिर मुझे
खुद पर तरस आया.

मैं -
यानि
कि एक आदम जात,

जो -

संपन्नता को शुन्य की ओर
ले जा रहा है,

सरहदों को छोड़ो,
दिलों में भी
फासले बढाता जा रहा है,

खुशबु की जगह,
जहरीली गैसों का
अम्बार लगाता जा रहा है,

हर वो आवाज,
जो दमदार नहीं है,
उसे और दबाता जा रहा है,

मैं -
जिसे कि पहचाना जाता था,
मानवीय मूल्यों के शोधकर्ता के रूप में,
ठहर चूका हूँ -
इर्ष्या और द्वेष की चट्टान पर.


और जब ये सब -
देखा,
सोचा,
समझा,

सचमुच,
मुझे -
खुद पर तरस आया.