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कविता - रहे रेडियो के हम श्रोता, बड़े प्रेम से सुनते थे - अटल राम चतुर्वेदी

 


रहे रेडियो के हम श्रोताबड़े प्रेम से सुनते थे 

फिल्मी गीतों को सुन-सुन कर, स्वर्णिम सपने बुनते थे 

रहे रेडियो के हम श्रोता, बड़े प्रेम से सुनते थे

कविता - बिछड़े सभी बारी-बारी - सन्ध्या यादव

 

बिछड़े सभी बारी-बारी...

 1 ) बारी -बारी बिछड़ने

का एक फायदा हुआ

कच्चे मकान सा दिल बैठा नहीं

पहाड़ सा मजबूत हो गया...

कविता - मैं दुखी हूँ - सन्ध्या यादव

 

मैं  दुखी हूँ...

मैं बहुत दुखी हूँ...

पर उतनी नहीं ,

जितनी वो माँ है

जिसकी बेटी के अधमरे शरीर को

गुंडे घर में फेंक गये चार दिन बाद,

कविता - अब तुम मर क्यों नहीं जाते दद्दा - सन्ध्या यादव


"बुढ़ऊ कमरा छेके बैइठे हैं "

बेटे -बहुरिया के ये संस्कारी

आत्म -सम्वाद दिन में पचास बार

सुनने और पोते -पोतियों को 

"मेरा कमरा " के नाम पर

लड़ने-झगड़ने के बाल सुलभ

आशावादीस्वप्निल वार्तालाप को

सुन दद्दा की ऐंठी गर्दन

तकिये पर थोड़ी और सख़्त

हो जाती है ...

कविता - भोर - अनिता सुरभि

 


संवेदनाओं के पोरों से

अंधेरे को पीछे धकेल

आँखें मलती किरणों को 

अपने अन्तर्तम में सहेज

सुनहरा दिन

आसमान की साँकल खोल

धीरे-धीरे धरा पर

उतरता है, तो

कविता - मैं लौटना चाहता हूँ - हृदयेश मयंक


दुखों को पार कर

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट आता है सूरज

रोज़ रोज़ अल सुबह

 

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट आता है चाँद

बुशरा तबस्सुम की क्षणिकाएं


ये सत्य है कि तुमसे प्रेम है

प्रेमरत जिसे निहारती हूँ रोज़ 

उस चाँद का घटना-बढ़ना भी सत्य है

कड़ुआ सच यह भी है कि

पूर्णता में चाँद की

सड़क किनारे खड़े वृक्षों में

जो चमकता है सर्वाधिक

वो एक ठूँठ है

निर्बाध चलती सड़क भी सत्य है

शेष सब झूठ है...

मुबारक साल नया – देवमणि पाण्डेय



आकाश में दिन भर जलकर जब

घर लौट के सूरज आया है

तब शाम ने अपने आंचल में

हौले से उसे छुपाया है

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं – सन्ध्या यादव



भाग्यशाली हूँ, ईर्ष्या, कुण्ठा, प्रतिस्पर्धा का कारण हूँ

वैसे तो रीढ़ की हड्डी ही उसके संसार की हूँ ,पर

ब्रांडेड, चमकदार कपड़ों से ढँकी -छुपी रहती हूँ

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं…

अन्तर्मन से - सरल और मृदुल कविताओं का संकलन

आभा दवे मूलतः गुजराती भाषी हैं साथ ही हिंदी भाषा पर उनका अधिकार दर्शनीय है . विवेच्य कविता संग्रह में आप ने भाषा के सरल और सरस प्रारूप को चुना है . विषय भी बहुत बोझल न हो कर आम जन से जुड़े हुए प्रतीत होते हैं . दरअसल कविता लिखते समय कुछ लोग विशिष्ट शैली के उपदेशक होने का प्रहसन करने से स्वयं को रोक नहीं पाते . इस दृष्टिकोण से आभा दवे ने स्वयं को साक्षीभाव के स्तर पर बनाए रखा है . यह इनका चौथा काव्य संग्रह है और इन्होंने भूमिका में स्पष्ट रूप से लिखा है कि इनकी कविताएँ स्वान्तः सुखाय हैं . पुस्तक का प्रकाशन इण्डिया नेट बुक्स द्वारा किया गया है और इसका मूल्य है २५०.०० रुपये . इस कविता संग्रह से कुछ उद्धरण 

 

जमुना किनारे राधा पुकारे 

ढूँढे फिरे वह साँझ सकारे 

छुप गये कान्हा तुम कहाँ

तुम तो बने थे मेरे सहारे 

 

*

 

चिलचिलाती धूप में वो बनाता है मकान आलीशान 

जिसका खुद के रहने के लिए भी नहीं होता मकान

पर उसके चेहरे पर रहता नहीं है कोई भी मलाल

रह जायेगा उसके ही काम का इस धरा पर निशान 

 

 

जब मुस्कुराती हैं ये लड़कियाँ

गजब ही ढाती हैं ये लड़कियाँ 

जमाना दुश्मन क्यों न बन जाये

हर जुल्म सह जाती हैं ये लड़कियाँ

 

ऐसी सीधी सादी सरल और मृदुल कविताओं को पढने के लिए आप आभा दवे जी की इस पुस्तकको पढ़ सकते हैं . 

 



आभा दवे जी का पता और फोन नंबर 

बी//१०३,साकेत काम्प्लेक्सथाने - पश्चिम - ४००६०१ (मुम्बई)

मोबाइल - ९८६९३९६७३१

 

 

करवा चौथ कविता - मेरे तो तुम ही ईश्वर हो - अटल राम चतुर्वेदी

 

 

 तुम ढूँढ़ो दुनिया में ईश्वर।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

मेरी है हर साँस तुम्हारी।

तुम पर ही मैं सब कुछ हारी।

सदा तुम्हारी आस करूँ मैं।

तुम ही तो शीतल तरुवर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

तुम बिन मैं तड़फूँ बन मछली।

तुम्हें देखकर ही मैं सँभली।

होश नहीं रहता मुझको कुछ।

तुम हो तो मुझ पर है सब कुछ।

तुम ही तो मेरे सहचर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

"अटल" प्रीत का तुमसे बंधन।

तुमसे बिंदिया, चूड़ी, कंगन।

तुम्हीं सितारे मेरे सिर के।

तुम बिन भटकूँ बिन मंजिल के।

तुम्हीं शक्ति व बुद्धि प्रवर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।

तुमसे जुड़ा अनूठा नाता।

साथ तुम्हारा मुझको भाता।

झेलूँ दिन भर भूख-प्यास मैं।

लगे उमर तुमको चाहूँ मैं।

मैं नदिया तो तुम सागर हो।

मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।


अटल राम चतुर्वेदी 

मैं ने जल को जल कहा, लोगों ने मछली सुना - हृदयेश मयंक


आज यूं हीं कुछ ........

हमेशा

सच को सच कहा

झूठ को झूठ

रहा जहां भी

पूरा रहा

नहीं होना था जहां

नहीं रहा कभी भी.

कोशिश की निभाने की

जीवन से

और रिश्तों से भी

नहीं रहा अबूझा

जीवन और रिश्तों में कहीं भी,कभी भी.

सहन शक्ति में

पूरे का पूरा गांव  था

गांव में किसान

खेतों में फसल बन जिया

बैलों की तरह सौंपता रहा कंधा

हांकते रहे किसिम किसिम के हलवाहे .

जल को जल कहा

लोगों नें  मछली सुना

आग और सूर्य  को समझा  जीवन स्रोत

लोग तापते रहे ईंधन की तरह

नींद और अंधेरों में  इंतज़ार किया

सुबह का. ( जो अभी तक नहीं आई )

जानते पहचानते हुए भी

चुप रहा  हर बार

लोगों नें कमजोरी समझी

और मैंनें शालीनता पर गर्व किया

हारा ग़ैरों से नहीं

अपनों नें हराया बार बार .

यही सब करते करते

जीया अबतक तमाम उम्र

सोचता हूँ कि

बीत जायें और शेष कुछ वर्ष

इसी तरह यूं हीं

अच्छे, भले, बुरों में।

( 69वें जन्मदिन की पूर्व संध्या पर  )

17 -09-2020

 

: हृदयेश मयंक

सम्पादक – चिंतन दिशा

मुम्बई के सम्माननीय वरिष्ठ साहित्यकार


वे लौट रहे हैं - शैलेश सिंह


वे लौट रहे हैं, इस बार खाली हाथ
उनकी जेबों में महज गांव का पता है
और मर चुके पिता का नाम।

उनकी आंखें सूनी हैं, जैसे  छीन ले कोई
मार कर दो थप्पड़
वे थप्पड़ और ठोकर खाकर लौट रहे हैं।

उनका लौटना हर बार से अलग है।

इस बार नहीं है कोई सामान
मसलन पत्नी का पिटारा
नहीं है माई के लिए लुग्गा
और भाई के लिए लमका छाता।

उनका लौटना, उनका नहीं है
वे तो लौटने के लिए गए ही नहीं थे
वे तो  बसना चाहते थे बीराने देस में

वे लौट रहे हैं ठीक उसी तरह
जैसे  लौटता है हारी  हुई पलटन  का सिपाही
वे लौट रहे हैं, जैसे खूंखार बाघ से बचकर भागती हुई लौटती है हिरनी
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटे थे  चित्रकूट से भरत
वे लौट रहे हैं, अपनी खौफनाक यादों के साथ
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटते हैं  अंतिम संस्कार के बाद परिजन
वे लौट रहे हैं, कभी वापस न आने की झूठी शपथ के साथ
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटते हैं नदी जल के लिए हाथी
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटा था पूस की रात का हलकू
वे लौट रहे हैं जैसे लौटते हैं प्रवासी पक्षी

उनका लौटना इतिहास में लौटना  नहीं है
उनका लौटना इतिहास को बदलना भी है
उनका इस तरह आना असंभव  को संभव बनाना था

वैसे वे हर बार असंभव को संभव बनाते रहे हैं।
// इति   //
शैलेश सिंह

इस सन्नाटे शहर में - शैलेश सिंह



हम किस शहर में रह रहे हैं!,
शहर जो अब नहीं रहा कहीं से भी शहर
अपने उद्दात्त व भव्य सौन्दर्य को अर्थहीन करता
यह  सन्नाटे और खौफ़  का आलम  कैसे तारी हो गया!,
एक सियाह चादर फैल गई सबकी छतों, खिड़कियों और दरवाजों पर
भयानक आवाजें गूंजती रहती हैं अक्सर यहां की सड़कों पर
जबकि आलम यह था कि लोग अपनी ही आवाज़ को सुनने को तरसते थे
इतना शोर कि बहरे होने का अंदेशा हमेशा बना रहता था।

भेड़ियाधसान से शायद ही यह शहर कभी मुक्त हुआ हो
याकि होना चाहा हो,
भीड़ ही जिसकी शिनाख्त हो, भीड़ ही जिसकी मौसकी हो
और भीड़ ही जिसकी कभी न गायब होनेवाली रूह हो
यकायक जाने कहां चले गए सब?

सड़कें जिन्हें देखने की हसरत  लिए
लोग चले आते थे दुनिया के हर आबाद और नायाब  गांव व शहर से
जहां चलना हमेशा मौत से टकराने के मानिंद
ख़ौफज़दा होता था।

जहां परिन्दों, कुत्तों और मवेशियों का आना लगभग वर्जित था।

जहां हवाओं तक को जद्दोजेहद करनी पड़ती थी
जहां आसमान की नीलिमा खो गई थी
जहां लदे रहते थे हर सिम्त लोग
जहां कौवों और कोयलों में लोगों ने फर्क करना कभी मुनासिब नहीं समझा
याकि उन्हें फुर्सत ही कहां थी, अपने से बाहर झांकने की

जहां हव्वा की  प्यारी संतानें अपने हसीन सपनों के साथ इस शहर में  दाखिल होती थीं
और सप्ताह के दूसरे इतवार तक  वे भूल जातीं थीं अपनी मादरी जुबान
और समुद्र की लहरों के साथ तरंगें लेने लगतीं थीं ।

वह परदेसी इस शहर से कभी जुदा होना नहीं चाहता था,
अचानक ऐसी बिपदा , ऐसा कुदरत का क़हर, ऐसी बीमारी ऐसी गाढ़ी महामारी
कि कभी किसी भी फितरत से    क़ैद होनेवाला शहर
अपनी मोसकी की रव में मुत्लिबा रहनेवाला यह शहर
सन्नाटे की सांय- सांय -- भांय- भांय में विलीन हो गया।

सड़कें अब परिंदों की सैरगाह  में तब्दील चुकीं हैं
गोया ये कभी सड़कें थीं ही नहीं

कुत्ते खोजते रहते हैं आदम की औलादों को
जो  सरे-आम देखते- देखते गायब हो गए।

कभी - कभी जेठ की दुपहरी में अस्पताल की गाड़ी
दौड़ती है अपने सायरन की खौफ़नाक आवाजों के साथ।

एक आदमी खिड़की से देखता है
और कहता है-- हम इक्कीसवीं सदी के मोहन- जोदारों में आ गए हैं।

यहां निरीह चेहरे बंद आंखें लिए खड़े हैं।

यह शहर कहीं भूल तो नहीं गया अपनी रफ़्तार?

रफ़्तार और तेज रफ्तार जिसका वजूद था।

वह कैसे पस्त हो गया एक न दिखाई देनेवाले अणुजीव से।

हे समुद्र के शहर तुम लौटो अपनी पूरी रफ्तार के साथ,

अपने लोगों के साथ।
अपनी भीड़ के साथ
अपनी रूह के साथ,
अपनी अहर्निश  गति के साथ
अपने वर्तमान  में तुम लौटो,

ताकि लौट सकें जीवन,
ताकि लौट सकें आदम - हौव्वा की संतानें
जिनके हाथ संवारें तुम्हारा और अपना भविष्य
यह  विज्ञापन नहीं , कविता नहीं ,एक गुहार है विज्ञान से,
समुद्र से,
नदियों से
आसमान से
और उन कभी न दिखनेवाले तारों से
//इति//

शैलेश सिंह