रहे रेडियो के हम श्रोता, बड़े प्रेम से सुनते थे
फिल्मी गीतों को सुन-सुन कर, स्वर्णिम सपने बुनते थे
रहे रेडियो के हम श्रोता, बड़े प्रेम से सुनते थे
रहे रेडियो के हम श्रोता, बड़े प्रेम से सुनते थे
फिल्मी गीतों को सुन-सुन कर, स्वर्णिम सपने बुनते थे
रहे रेडियो के हम श्रोता, बड़े प्रेम से सुनते थे
बिछड़े सभी बारी-बारी...
1 ) बारी -बारी बिछड़ने
का एक फायदा हुआ
कच्चे मकान सा दिल बैठा नहीं
पहाड़ सा मजबूत हो गया...
मैं दुखी हूँ...
मैं बहुत दुखी हूँ...
पर उतनी नहीं ,
जितनी वो माँ है
जिसकी बेटी के अधमरे शरीर को
गुंडे घर में फेंक गये चार दिन बाद,
"बुढ़ऊ कमरा छेके बैइठे हैं "
बेटे -बहुरिया के ये
संस्कारी
आत्म -सम्वाद दिन में पचास
बार
सुनने और पोते -पोतियों को
"मेरा कमरा " के
नाम पर
लड़ने-झगड़ने के बाल सुलभ
आशावादी, स्वप्निल वार्तालाप को
सुन दद्दा की ऐंठी गर्दन
तकिये पर थोड़ी और सख़्त
हो जाती है ...
संवेदनाओं के पोरों से
अंधेरे को पीछे धकेल
आँखें मलती किरणों को
अपने अन्तर्तम में सहेज
सुनहरा दिन
आसमान की साँकल खोल
धीरे-धीरे धरा पर
उतरता है, तो
दुखों को पार कर
मैं लौटना चाहता हूँ
जैसे लौट आता है सूरज
रोज़ रोज़ अल सुबह
मैं लौटना चाहता हूँ
जैसे लौट आता है चाँद
ये सत्य है कि तुमसे प्रेम है
प्रेमरत जिसे निहारती हूँ
रोज़
उस चाँद का घटना-बढ़ना भी
सत्य है
कड़ुआ सच यह भी है कि
पूर्णता में चाँद की
सड़क किनारे खड़े वृक्षों
में
जो चमकता है सर्वाधिक
वो एक ठूँठ है
निर्बाध चलती सड़क भी सत्य
है
शेष सब झूठ है...
भाग्यशाली हूँ, ईर्ष्या, कुण्ठा, प्रतिस्पर्धा का कारण हूँ
वैसे तो रीढ़ की हड्डी ही उसके संसार की हूँ ,पर
ब्रांडेड, चमकदार कपड़ों से ढँकी -छुपी रहती हूँ
एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं…
आभा दवे मूलतः गुजराती भाषी हैं साथ ही हिंदी भाषा पर उनका अधिकार दर्शनीय है . विवेच्य कविता संग्रह में आप ने भाषा के सरल और सरस प्रारूप को चुना है . विषय भी बहुत बोझल न हो कर आम जन से जुड़े हुए प्रतीत होते हैं . दरअसल कविता लिखते समय कुछ लोग विशिष्ट शैली के उपदेशक होने का प्रहसन करने से स्वयं को रोक नहीं पाते . इस दृष्टिकोण से आभा दवे ने स्वयं को साक्षीभाव के स्तर पर बनाए रखा है . यह इनका चौथा काव्य संग्रह है और इन्होंने भूमिका में स्पष्ट रूप से लिखा है कि इनकी कविताएँ स्वान्तः सुखाय हैं . पुस्तक का प्रकाशन इण्डिया नेट बुक्स द्वारा किया गया है और इसका मूल्य है २५०.०० रुपये . इस कविता संग्रह से कुछ उद्धरण
जमुना किनारे राधा पुकारे
ढूँढे फिरे वह साँझ सकारे
छुप गये कान्हा तुम कहाँ
तुम तो बने थे मेरे सहारे
*
चिलचिलाती धूप में वो बनाता है मकान आलीशान
जिसका खुद के रहने के लिए भी नहीं होता मकान
पर उसके चेहरे पर रहता नहीं है कोई भी मलाल
रह जायेगा उसके ही काम का इस धरा पर निशान
*
जब मुस्कुराती हैं ये लड़कियाँ
गजब ही ढाती हैं ये लड़कियाँ
जमाना दुश्मन क्यों न बन जाये
हर जुल्म सह जाती हैं ये लड़कियाँ
ऐसी सीधी सादी सरल और मृदुल कविताओं को पढने के लिए आप आभा दवे जी की इस पुस्तकको पढ़ सकते हैं .
आभा दवे जी का पता और फोन नंबर
बी/७/१०३,साकेत काम्प्लेक्स, थाने - पश्चिम - ४००६०१ (मुम्बई)
मोबाइल - ९८६९३९६७३१
मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।
मेरी है हर साँस तुम्हारी।
तुम पर ही मैं सब कुछ हारी।
सदा तुम्हारी आस करूँ मैं।
तुम ही तो शीतल तरुवर हो।
मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।
तुम बिन मैं तड़फूँ बन मछली।
तुम्हें देखकर ही मैं सँभली।
होश नहीं रहता मुझको कुछ।
तुम हो तो मुझ पर है सब कुछ।
तुम ही तो मेरे सहचर हो।
मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।
"अटल" प्रीत का तुमसे बंधन।
तुमसे बिंदिया, चूड़ी, कंगन।
तुम्हीं सितारे मेरे सिर के।
तुम बिन भटकूँ बिन मंजिल के।
तुम्हीं शक्ति व बुद्धि प्रवर हो।
मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।
तुमसे जुड़ा अनूठा नाता।
साथ तुम्हारा मुझको भाता।
झेलूँ दिन भर भूख-प्यास मैं।
लगे उमर तुमको चाहूँ मैं।
मैं नदिया तो तुम सागर हो।
मेरे तो तुम ही ईश्वर हो।
अटल राम चतुर्वेदी
हमेशा
सच
को सच कहा
झूठ
को झूठ
रहा
जहां भी
पूरा
रहा
नहीं
होना था जहां
नहीं
रहा कभी भी.
कोशिश
की निभाने की
जीवन
से
और
रिश्तों से भी
नहीं
रहा अबूझा
जीवन
और रिश्तों में कहीं भी,कभी भी.
सहन
शक्ति में
पूरे
का पूरा गांव था
गांव
में किसान
खेतों
में फसल बन जिया
बैलों
की तरह सौंपता रहा कंधा
हांकते
रहे किसिम किसिम के हलवाहे .
जल
को जल कहा
लोगों
नें मछली सुना
आग
और सूर्य को समझा जीवन स्रोत
लोग
तापते रहे ईंधन की तरह
नींद
और अंधेरों में इंतज़ार किया
सुबह
का. ( जो अभी तक नहीं आई )
जानते
पहचानते हुए भी
चुप
रहा हर बार
लोगों
नें कमजोरी समझी
और
मैंनें शालीनता पर गर्व किया
हारा
ग़ैरों से नहीं
अपनों
नें हराया बार बार .
यही
सब करते करते
जीया
अबतक तमाम उम्र
सोचता
हूँ कि
बीत
जायें और शेष कुछ वर्ष
इसी
तरह यूं हीं
अच्छे, भले,
बुरों में।
( 69वें जन्मदिन की पूर्व संध्या पर )
17
-09-2020
: हृदयेश
मयंक
सम्पादक
– चिंतन दिशा
मुम्बई
के सम्माननीय वरिष्ठ साहित्यकार