31 जुलाई 2014

दो कवितायें - सुमीता प्रवीण केशवा

उफ़

उफ़! पुरुष!

तुम्हारा उफन के बह जाना
और स्त्री का पिघल कर
तुम्हें समेट लेना
गिड़गिड़ाते हो तुम स्त्री के समक्ष
लूट खसोट लेते हो उसे भीतर तक
रोप लेते हो अपनी वन्शवेल
उस की तहों में
और करवा लेते हो दर्ज़
अपनी जीत ...... अब तृप्त हो तुम

उस की कोख तक पहुँच कर तुम
एक नये रूप में
आकार लेने लगते हो
और वह खाली हो चुकी है
अपना अस्तित्व तुम्हें सौंप कर
यहाँ भी देखो तुम्हारीही जीत है
तुम उसे जकड़ डालते हो बेड़ियों में
तुम्हारे नये रूप को सँवारने में
लग जाती है वह
अपना रूप खो कर
और धीरे-धीरे तुम
विरक्त होते जाते हो उस के सौन्दर्य से

वह सौन्दर्य अब बँट चुका है
नये रूप – नये आकार में
उस की काया शिथिल हो चुकी है
तुम्हारे अक़्स को आकार देने में
और तुम निकल पड़ते हो फिर से
एक नये रूप की तलाश में

क्योंकि तुम्हें
अब वह नहीं लगती
पहले जैसी



एक पूरी दुनिया है औरत

देह से बेख़बर
एक पूरी की पूरी दुनिया है औरत
उस की देह में बहती है नदी - बहते हैं नाले
पूरी देह में उतार-चढ़ाव
कटाव – छंटाव के साथ
उभरे हैं तमाम पर्वत-पहाड़ - टीले-मैदान और
घुमावदार टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियाँ
जिन से हो कर गुजरती हैं
उस की देह की हवाएँ
वह हवाओं को रोक
बनाती है अनुकूल वातावरण बरसने के लिये

बावजूद इस के वह रौंदी जाती है
कुचली-मसली जाती है
फिर बी बेमौसम-बेपरवाह
उग जाती है
कभी भी - कहीं भी

बढ़ाती है अपनी लताएँ
उगाती है अपनी पौधें
सहेजती है बाग-उपवन
बनती है जङ्गल
बनती है हवा
बनती है वज़्ह
जीवन-सञ्चालन की

छोड़ दो उसे
निर्जन सुनसान टापू पर
या छोड़ दो उसे मङ्गल-ग्रह पर
बसा लेगी औरत
एक पूरी की पूरी दुनिया
अपनी देह की मिट्टी से
कभी भी
कहीं भी


सुमीता प्रवीण केशवा – 9773555567 

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