ओ विप्लव के थके साथियो
विजय मिली – विश्राम न समझो
उदित प्रभात हुआ है फिर भी
छाई चारों ओर उदासी
ऊपर मेघ भरे बैठे हैं
किन्तु धरा प्यासी की प्यासी
जब तक सुख के स्वप्न अधूरे
पूरा अपना काम न समझो
विजय मिली – विश्राम न समझो
पदलोलुपता और त्याग का
एकाकार नहीं होने का
दो नावों पर पग धरने से
सागर पार नहीं होने का
युगारम्भ के प्रथम चरण की
गतिविधि को – परिणाम न समझो
विजय मिली – विश्राम न समझो
तुमने वज्र-प्रहार किया था
पराधीनता की छाती पर
देखो आँच न आने पाये
जन-जन की सौंपी थाती पर
समर शेष है – सजग देश है
सचमुच युद्धविराम न समझो
विजय मिली – विश्राम न समझो
:- बलबीर सिंह रङ्ग
बहुत ही सुंदर रचना
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