न जाने
कितनी बार...
प्रीति में
रँगी
किन्तु...
प्रतीति
में टँगी
एक
प्रणयातुर प्रतीक्षा
नैराश्य के
अँधेरे में
सिसककर
रोयी है,
पंथ
निहारती
एक जोड़ी
आँखों ने
'अ-योग' की उदासी ढोयी है...
न जानेsss
कितनी बार...!
●
न जाने
कितनी बार...
भावों की
कल्लोलिनी लहरों ने
किनारों के
चरण पखारे हैं
सीमाओं के
सदके उतारे हैं;
उपेक्षा के
तटस्थ प्रस्तरों से टकराकर
प्रत्यावर्तन
की
'वर्तुलाकार' पीड़ा भोगी है;
अहासस्स...
यह
प्रेम...फिर भी
एक
निष्ठावान कर्मयोगी है...!!
●
न जाने
कितनी बार...
एक आरोही
ने
शिखर-यात्रा
के बीच
'सुयोग' के संभावनाशील पलों में
केन्द्रेतर
दुर्योंगों से
गोपनीय
गठबंधन कर
शीर्ष-संयोग
की झोली में
वियोग का
रुदन भरा है,
फिर भी
अविराम...
अभिराम...
अन्तस के
उपवन में
प्रेम-पराग
ही झरा है...!
●
न जाने
कितनी बार...
अनुभूतियों
का लहूलुहान गौरव
विवशता के
कँटीले उद्यान से
सस्मित
लौटा है-
अनगिन
खरोंचों का पारितोषिक लेकर...!
●
न जाने
कितनी बार...
एक याचक मन
भावना की
भीख पर
धनवान हुआ
है,
यह जानते
हुए भी
कि-
भिक्षाटन
पर निकला
कोई आदमक़द
स्वाभिमान
कभी कुबेर
बनकर नहीं लौटता...
फिर भी
प्रेम के
गीले नयन
एकल द्वार
पर
दृष्टि
पसारकर
अहर्निश
निहारते रहे
एकटक...
अपलक...
न जानेsss
कितनी बार...!!
●
न जाने
कितनी बार...
विडम्बनाओं
ने
कुछ यूँ
विवश किया है
कि-
एक जीते
हुए योद्धा ने
अपने ही
रण-शिविर में आकर
पराजय-बोध
को जिया है...!!
●
न जाने
कितनी बार...
जीवन
छद्म के
हाथों लुटा है,
फिर भी
भस्मीभूत
अस्तित्व का फीनिक्स
अपनी ही
राख से
जी उठा है
नयी उड़ान
नये गान का
हौसला लेकर...!
न जाने
कितनी बार...!
न जानेsss
कितनी बार...!!
न जाने...कितनीsss बार...!!!
:- जितेन्द्र 'जौहर' 9450320472
प्रीति में रँगी
जवाब देंहटाएंकिन्तु...
प्रतीति में टँगी
●
उपेक्षा के तटस्थ प्रस्तरों से टकराकर
प्रत्यावर्तन की
'वर्तुलाकार' पीड़ा भोगी है;
●
'सुयोग' के संभावनाशील पलों में
केन्द्रेतर दुर्योंगों से
गोपनीय गठबंधन कर
शीर्ष-संयोग की झोली में
प्रेम-पराग ही झरा है...!
●
अनुभूतियों का लहूलुहान गौरव
●
भिक्षाटन पर निकला
कोई आदमक़द स्वाभिमान
कभी कुबेर बनकर नहीं लौटता...
●
एक जीते हुए योद्धा ने
अपने ही रण-शिविर में आकर
पराजय-बोध को जिया है...!!
●
भस्मीभूत अस्तित्व का फीनिक्स
अपनी ही राख से
जी उठा है
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उपर्युक्त पंक्तियों को पढने के बाद जितेन्द्र भाई मुझे ये कहना है कि !!!!!! ---
न जाने कितनी बार एक जितेन्द्र विद्रोही ने !!
आत्ममुग्ध साहित्यिक पुरोधाओं दर्पण दिखाया है !!
शब्द के अधोमुखी विभव को अपने जौहर से
ऊर्ध्वमुखी दीप्ति पुंज बना कर
साहित्याकाश को देदीप्यमान किया है !!
कितनी बार इस शिव की तीसरी आँख ने अपनी गहन दृष्टि के लेजर से
छद्म कुमारो के आरोपित विश्वास तंत्र का विनष्टीकरण किया है
कितने राअनाओं की दमित कालिमाओं को मुनव्वर किया है
कितने डबरालो को सायास सजीव किये जीवंत युग बोध के समक्ष अपराधबोध से ग्रस्त किया है !!
न जाने कितनी बार !! लेकिन इस नाबीना समाज के कितने हले नज़र उन अश्जार की जडो को पहचान सके जिनके नीचे छन्द के उद्यान का वैभव शेष है ??!! –मयंक
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