देख ज़हर इंसान का, नहीं
नाग ही दंग॥
गिरगिट भी हैरान हैं, देख
बदलते रंग।
मन की पीड़ा का यहाँ, कौन
करे एहसास।
पत्थर की चट्टान से व्यर्थ नमी की
आस ॥
तन-मन से सींचा जिसे, उस
बगिया का फूल।
मज़दूरी देने लगा, गया
भावना भूल॥
जिसकी छाया मे पली, पा
कर शीत बयार ।
उस ही तरू को खा गई, दीमक
खरपतवार॥
धन-दौलत की चाह में, भटके
लोग तमाम।
विद्या जैसा धन कहाँ, गुरुपद
जैसा धाम॥
:- सुशीला शिवराण
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