धार्मिक जातिओं में अगर गिनती शुरू की जाये तो , सबसे
पहले ब्राह्मण समाज की गिनती होती है | जो धार्मिक क्रिया
कलापो पर ही जीवन यापन करते है | मानव मात्र अपने आप को जानें कि हम किन
संस्कारी महात्माओं के अंश है , उनके जीवन का किस तरह
रहन-सहन-बर्ताव - जीवन शैली, करने न करने योग्य जो भी बातें
थी ,वो सब किसी-न-किसी ग्रन्थ में उल्लखित हैं |
जैसे --
स्मृतियाँ ( ४५) - पुराण ( 19 ) -
धर्मसूत्र ( ६ ) - गृह्यसूत्र ( ३ ) -
उपनिषद्( ३) - ज्योतिष (२) - आयुर्वेद (
४) - तंत्र ( ४) - नीति ( ७) - विविध ( १५) -- [{ १) महाभारत , २) वाल्मीक रामायण ,
३) श्रीमद्भगवतगीता ,४) धर्मसिन्धु ,५) निर्णयसिंधु , ६)
भगवन्तरभास्कर , ७) यतिधर्मसंग्रह , ८)
प्रायश्चित्तेन्दुशेखर ,९) भर्तृहरिशतक , १०) कौशिक रामायण , ११) गुरुगीता , १२) वृद्धसूर्यारुणकर्मविपाक , १३)
सिद्धसिद्धांतसंग्रह ,१४) सर्ववेदांतसिद्धांतसारसंग्रह ,
१५) किरातार्जुनीयम }]
लगभग १०५ ग्रंथों में से कुछ सूत्र निकले गए हैं , जिन्हे सहज में अपने पितृ अपनाते थे | जिसे एक नाम
दिया जा सकता है - ""आचार-संहिता"" |
हिन्दू
संस्कृति अत्यंत विलक्षण हैं | इसके सभी सिद्धांत पूर्णतः वैज्ञानिक
और मानवमात्रकी लौकिक तथा पारलौकिक उन्नति करनेवाले है | मनुष्य
मात्र का सुगमतासे एवं शीघ्रतासे कल्याण कैसे हो - इसका जितना गम्भीर विचार
हिन्दू-संस्कृतिमें किया गया है, उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं
होता | जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त मनुष्य जिन-जिन वस्तुओं
एवं व्यक्यिओं के संपर्क में आता है और जो-जो क्रियाएँ करता हैं , उन सबको हमारे क्रांतिदर्शी ऋषि-मुनियोंने बड़े वैज्ञानिक ढंग से सुनियोजित, मर्यादित एवं सुसंस्कृत किया है और सबका पर्यवसान परमश्रेयकी
प्राप्ति में किया है | इसलिए भगवानने गीता में बड़ें स्पष्ट शब्दों में कहा है ----
य: शास्त्रविधिमुत्सुज्य वर्तते
कामकारत: |
न स
सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्
||
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं
ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्त्तं कर्म
कर्तुमिहर्हसि || ( गीता १६/२३-२४ )
" जो
मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है , वह
न सिद्धि (अन्तः करणकी सुद्धि) - को, न सुख (शान्ती) - को और
न परमगति को ही प्राप्त होता है |. अतः तेरे लिये
कर्तव्य-अकर्त्तव्यकी और व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है- ऐसा जानकर तू इस
लोकमें शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य -कर्म करनेयोग्य है अर्थार्त तुझे
शास्त्रविधिके अनुसार कर्त्तव्य -कर्म करने चाहीये|”
तात्पर्य
है क़ि हम 'क्या करें, क्या न करें ? - इसकी
व्य्वस्थामें शास्त्र को ही प्रमाण मानना चाहीये | जो
शास्त्र के अनुसार आचरण करते हैं, वे 'नर' होते हैं और जो मनके अनुसार (मनमाना) आचरण करते हैं, वे 'वानर’ होते हैं -
मतयो यत्र
गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति वानराः .|
शस्त्राणि
यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति ते नराः .||
गीतामें
भगवानने ऐसे मनमाना आचरण करनेवाले मनुष्योंको
'असुर' कहा
हैं|
प्रवृत्तिं
च निवृत्तिं च जन न विदुरासुरा: | ( गीता १६/७)
वर्तमान
समय में उचित शिक्षा ,
संग , वातावरण आदि का अभाव होने से समाज में
उच्छ्रंखलता बहुत बढ़ चुकी है | शास्त्र के अनुसार क्या करना
चाहीये और क्या नहीं करना चाहीये - इस नयी
पीढ़ी के लोग जानते
भी नहीं और जानना चाहते भी नहीं | जो शास्त्रीय
व्यवहार जानते है , वे बताना चाहे तो उनकी बात न मानकर उनकी हंसी उड़ाते हैं | लोगों क़ि अवहेलना के कारण हमारे अनेकधर्मग्रन्थ लुप्त होते जा रहे है |
जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं , उनको पड़ने वाले भी
बहुत कम हैं| पढ़ने की रुचि भी नहीं है और पढ़ने का समय भी
नहीं है | शास्त्रों को जाननेवाले , बतानेवाले
, और तदनुसार आचरण करने वाले सत्पुरुष दुर्लभ-से हो गए है |
ऐसी परिस्थिति में यह आवश्यक
समझा गया क़ि एक ऐसे उपक्रम का का प्रयास किया जाये जिससे कि जिज्ञासु-जनों को
शास्त्रों में आयी आचार-व्यवहार - सम्बन्धी आवश्यकबातों की जानकारी प्राप्त हो सके
| इसी दिशा में यह प्रयत्न किया गया है |
शास्त्र
अथाह समुद्र की भांति है|
जो शास्त्र उपलब्ध हुए, उनका अवलोकन करके अपनी
सीमितसामर्थ्य-समझ-योग्यता और
समयानुसार जानकारी प्रस्तुत की गयी है| जिन बातों की जानकारी
लोगों को कम है, उन बातों को मुख्यतय: प्रकाश में लाने की
चेष्टा की गयी है| यद्यपि
पाठकों को कुछ बातें वर्तमान समय में अव्यवहारिक प्रतीत हो सकती है,
तथापि अमुक विषय में शास्त्र क्या कहता हैं - इसकी जानकारी तो
उन्हें हो ही जायेगी| पाठकों से प्रार्थना है कि वे इन सूत्रो
को पढ़ें और इसमे आयी बातों को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा करे| यह मात्र मेरा संकलन है| कोशिश की गयी है कि प्रत्येक क्रिया-कलाप, किये जाने
वाले कर्म से सम्बंधित सूत्र एक साथ एकत्रित हो।
प्रथम कड़ी
- सदाचार
1 शिक्षा , कल्प
, निरुक्ति, छंद,व्याकरण
और ज्योतिष - इन छ: अंगों सहित अध्यन किये
हुए वेद भी आचारहीन मनुष्य को
पवित्र नहीं कर सकते | मृत्युकाल मे आचारहीन मनुष्य को वेद
वैसे ही छोड़ देते है ,जैसे पंख उगने पर पक्षी अपने घौंसलेको | (वशिष्ठ
स्मृति ६|३, देवी भागवत ११ सदाचार -
प्रशंसा /२/१)
2. मनुष्य
आचार से आयु, अभिलषित संतान एवम अक्षय धन को प्राप्त करता है और आचार से अनिष्ट लक्षण
को नष्ट कर देता है| (मनु स्मृति
४/१५६)
3.
दुराचारी पुरुष संसार में निन्दित , सर्वदा दु:ख भागी ,
रोगी और अल्पायु होता है | (मनु स्मृति ४/१५७ ;वशिष्ठ स्मृति ६/६)
4. आचार
ही धर्म को सफल बनाता है ,
आचार ही धनरूपी फल देता है, आचारसे मनुष्य को
संपत्ति प्राप्त होती है और आचारही अशुभ लक्षणो का नाश कर देता है | (महाभारत, उद्धयोग . ११३/15)
5. "
गौओं ,
मनुष्यों और धन से सम्पन्न होकर भी जो कुल सदाचार से हीन हैं,
वे अच्छे कुलोंकी गणना में नहीं आ सकते | परन्तु
थोड़े धनवाले कुल भी यदि सदाचार से सम्पन्न है तो वे अच्छी कुलोंकीगणनामें आ जाते
हैं और महान यश प्राप्त करते है. (महाभारत उद्योग. ३६/२८-२९)
6. " सदाचर की रक्षा यत्न पूर्वक करनी चाहिए | धन
तो आता और जाता रहता है | धन क्षीण हो जानेपर भी सदाचारी
मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता ; किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट
हो गया, उसे तो नष्ट ही समझाना चाहिए" | (महाभारत उद्योग. ३६/३०)
7. "
मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्यका केवल ऊँचा कुल मान्य नहीं हो सकता; क्योकि
नीच कुलमें उत्पन्न मनुष्यों का सदाचार श्रेष्ठ माना जाता है, | (महाभारत उद्योग ३४/४१)
8. आचार से धर्म प्रकट होता है और धर्म के स्वामी
भगवान विष्णु हैं |
अत: जो अपने आश्रमके आचार में संलग्न है, उसके
द्वारा भगवान श्रीहरि सर्वदा पूजित होते हैं | ( नारद पुराण ,
पूर्व. ४/२२)
9. सदाचारी मनुष्य इहलोक और परलोक दौनौं को ही जीत
लेता है |
"सत" शब्दका अर्थ साधू है और साधू वही है, जो दोषरहित हो | उस साधु पुरुष का जो आचरण होता है, उसीको सदाचार
कहते हैं | ( विष्णु पुराण ३/११/२-३)
10. आचारहीन मनुष्य संसार में निन्दित होताहै और
परलोक मैं भी सुख नहीं पाता | इसलिए सबको आचारवान होना चाहिए |
(शिवपुराण वा. उ. १४/५६)
11.
"आचार से ही आयु ,
संतान तथा प्रचुर अन्न की उपलब्धि होती है | आचार
संपूर्ण पातकों को दूर कर देता है| मनुष्यों के लिए आचार को
कल्याणकारक परम धर्म माना गया है | आचारवान मनुष्य इस लोक
में सुख भोगकर परलोक में सुखी होता है | (देवी भागवत
११/१/१०-११)
12.
" (भगवान नारायण बोले -) नारद ! आचारवान मनुष्य सदा पवित्र, सदा
सुखी, और सदा धन्य है - यह सत्य है, सत्य
है | ( देवी भागवत
११/२४/९८)
विनीत
-- आनंद मोहनलाल चतुर्वेदी ( नंदा ) 9022588880
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