मौसम के कोडे पडे , सूखा
बेबस ताल
और कुदाले पूछतीं अब कैसा है हाल
थीं अपनी मजबूरियाँ , टूटे
उम्र तमाम
वर्ना बह कर धार संग होते शालिग्राम
जिनके कारन नट बने करतब किये हजार
निगल गयी वो रोटियाँ सपनों का संसार
अधरो पर चिपकी रहे देढ इंच मुस्कान
ऐसे चेहरो से बचा मुझको दयानिधान
है ऐसी अनुभूति कुछ , रोम-रोम
प्रत्यंग
तडपे-उछले गिर पडे , ज्यो
परकटा विहंग
दावा करते नेह का , किंतु
चुभोते डंक
रिश्तो ने छोडा किसे क्या राजा क्या
रंक
रिश्तो के संसार का यह कैसा दस्तूर
ज्यो ज्यो घटती दूरियाँ , दिल
से होते दूर
जो रिश्ता जितना अधिक अपने रहा करीब
जडी उसी ने पीठ पर उतनी बडी सलीब
अपनो ने ही है दिया कुछ ऐसा अपनत्व
मन मे खारे सिन्धु सा, बढता
गया घनत्व
एक किये जिसके लिये घाटी और पहाड
वही नीड लगता कभी खुद को जेल तिहाड
गाँव शहर मे आजकल दिखते यही चरित्र
पोर पोर मे विष भरा ऊपर महके इत्र
उन रिश्तो से कीजिये , हर
पल छिन अनुबन्ध
जिन रिश्तो से विश्व मे फैले धूप
सुगन्ध
:- शैलेन्द्र शर्मा
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