देहरी क्यों लाँघता है आज गदराया
बदन
क्या मनमीत का संदेश ले आया पवन
या किसी शहनाई के स्वर ने कोई जादू
किया
या दिखाई दे गया है स्वप्न में मन
का पिया
कंचुकी के बन्ध ढीले हो रहे क्यों
बार-बार
क्यों लजाये जा रहे हैं आज कजराये
नयन
और ही है रंग कुछ गालों पे तेरे
मनचली
फूल जैसी खिल रही कचनार की कोमल कली
बाग ने सींचा कि भँवरों का बुलावा आ
गया
जो हथेली से छिपाया जा रहा पूरा गगन
मौन अधरों में दबी है बात किस के
प्यार की
दे रही बिंदिया,
उलहना आज क्यों, शृंगार की
गरम साँसें उठ रही हैं मन ये बेक़ाबू
हुआ
जैसे शादी के किसी मण्डप में होता
है हवन
:- ब्रजेश पाठक मौन
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