31 जुलाई 2014

4 ग़ज़लें - मेराज फैज़ाबादी

रिश्तों की कहकशां सरे बाज़ार बेचकर
घर को बचा लिया दर-ओ -दीवार बेचकर

शोहरत की भूख हमको कहाँ लेके आ गयी
हम मुहतरम हुए भी तो किरदार बेचकर

वो शख्स सूरमा है ..मगर बाप भी तो है
रोटी खरीद लाया है तलवार बेचकर

जिसके क़लम ने मुद्दतों बोए हैं इन्क़लाब
अब पेट पालता है वो अख़बार बेचकर

अब चाहे जो सुलूक़ करे आपका ये शहर
हम गाँव से तो आ गये घर बार बेचकर
बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
 221 2121 1221 212 


हम ग़ज़ल में तेरा चर्चा नहीं होने देते
तेरी यादों को भी रुसवा नहीं होने देते

कुछ तो हम खुद भी नहीं चाहते शुहरत अपनी
और कुछ लोग भी ऐसा नहीं होने देते

अज़मतें अपने चरागों की बचाने के लिए
हम किसी घर में उजाला नहीं होने देते

आज भी गाँव में कुछ कच्चे मकानों वाले
घर में हमसाये के फ़ाक़ा नहीं होने देते 

ज़िक्र करते हैं तेरा नाम नहीं लेते हैं 
हम समन्दर को जज़ीरा नहीं होने देते 

मुझको थकने नहीं देता ये ज़रूरत का पहाड़
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22


तेरे बारे में जब सोचा नहीं था 
मैं तन्हा था मगर इतना नहीं था 

तेरी तस्वीर से करता था बातें 
मेरे कमरे में आईना नहीं था 

समन्दर ने मुझे प्यासा ही रखा 
मैं जब सहरा में था प्यासा नहीं था 

वो जिसने तोड़ दी सांसों की जन्जीर 
वह था मजबूर दीवाना नहीं था 

मनाने रूठने के खेल में हम 
बिछड़ जायेंगे मैं यह सोचा नहीं था 

सुना है बन्द कर ली उसने ऑंखें 
कई रातों से वह सोया नहीं था 

गुज़र जा इस तरह दुनिया से मेराज 
कि जैसे तू यहाँ आया नहीं था 
बहरे हज़ज  मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन ,
1222 1222 122  


किसी से यूँ भी कभी रस्मो राह हो जाये 
कि अपने आप से मिलना गुनाह हो जाये 

तअल्लुक़ात की इस दास्ताँ को तूल न दे 
यही बहुत है कि दो दिन निबाह हो जाये 

वह जिसने तेरी मुहब्बत खरीद ली जानाँ 
खुदा करे कि वही बादशाह हो जाये 

सुबूत हम से हमारी वफ़ा का जब मांगे 
तो उसका दिल ही हमारा गवाह हो जाये 

बलन्दियों पे नज़र आ रहे हैं कुछ बौने 
अजब नहीं कि ये दुनिया तबाह हो जाय
बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22  

:- मेराज फैज़ाबादी

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