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मेरा श्याम है मस्ताना - नवीन


माखन चोर कृष्ण / Makhan Chor Krishn
जमुना के तट नटखट मो सों अटकत
झटकत मटकत गैल अटकावै है

मैं जो कहों गुप-चुप माखन तू खाय लै तौ
माखन न खावै ग्वाल - बालन बुलावै है

ग्वाल-बाल सङ्ग लावै गगरी छुड़ावै फिर
खाय औ खवाय, ब्रज - रज में मिलावै है

तीन लोक स्वामी जा के ताईं वा के ताईं होय
मेरे ताईं चोर - मेरौ माखन चुरावै है


कृष्ण विराट स्वरूप / Krishn Virat Swarup

लल्ला बन जाय और हल्ला हू मचावै फिर
खेलत-खेलत चौका बीच घुस आवै है

डाँट औ डपट मो सों घर के करावै काम
ननदी बनै तौ कबू सास बन जावै है

बन कें देवर मोहि दिखावै तेवर कबू
बन कें ससुर मो पै रौब हू जमावै है

ग्वाला बन गैया दुहै, गैया बन दूध देय
दूध बन मेरे घट भीतर समावै है 


चित चोर कृष्ण / Chit Chor Krishn

कोई चोर आता है तो कपड़े चुराये और
कोई-कोई चोर अन्न-धन को चुराता है

ज़र को चुराये, कोई ज़मीन चुराये, कोई
हक़ को चुरा के बड़ा कष्ट पहुँचाता है

दुनिया ने देखे कई तरह के चोर, किन्तु
चोर ये अनोखा मेरे दिल को लुभाता है

माखन चुराने के बहाने आये श्याम और
मन को चुरा के मालामाल कर जाता है



माना कि ज़माना तेरे रूप का दीवाना, पर
मैं ने तो ये जाना – श्याम – चोरी तेरा काम है

निठुर, निगोड़े, कपटी, छली, लबार, ढीठ
दिलों को दुखाना तेरा काम सुबोशाम है

जाने कैसे नाथा होगा ज़हरीला नाग - तू ने -
कपड़े चुराये – तेरा चर्चा ये आम है

यशोदा का प्यारा होगा, नन्द का दुलारा होगा
राधा से तू हारा – रणछोड़ तेरा नाम है 



ये छन्द इस मुखड़े और अन्तरे के साथ गाये जाते हैं

मुखड़ा:
क्या रूप सलौना है जग जिस का है दीवाना
कहीं नज़र न लग जाये मेरा श्याम है मस्ताना

अन्तरा:
है चोर बड़ा छलिया - कपटी है काला है
झूठा भी है लेकिन - सच्चा दिलवाला है 

[यहाँ बीच में छन्द गाये जाते हैं]

कोई चोर अगर ऐसा - देखा हो तो बतलाना
कहीं नज़र न लग जाये मेरा श्याम है मस्ताना

सभी साहित्य रसिकों को कृष्ण जन्माष्टमी की बहुत बहुत बधाइयाँ


: नवीन सी. चतुर्वेदी

ग्राम सुधार - यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

सुघरे मकान होंय, चहुंधा उद्यान होंय,
सब ही समान होंय, ध्यान होंय काम में।

 छोटे परिवार होंय, ब्रिच्छ हू हज़ार होंय,
होंय व्हाँ बजार, मिलें - वस्तु सत्य दाम में।

कूप होंय, ताल होंय, सुंदर चौपाल होंय,
बाल हू खुसाल होंय, खेलें केलि धाम में।

'प्रीतम' अपार अन्न-धन के भण्डार होंय,
होंय यों सुधार यथा सीघ्र गाम-गाम में।।
:- यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'
['राष्ट्र हित शतक' से साभार]

लघु उद्योगन तें गरीबन सँभार होत - यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

लघु उद्योगन तें गरीबन सँभार होत
प्यार होत समृद्धि औ संपति के पाये ते

छोटे परिवारमें दुलार होत संतति कौ
सार औ सँभार होत दो ही सुत* जाये ते

सिच्छा के प्रचार ही ते पावन विचार होत
कोऊ ना लाचार होत बुद्धि बिकसाये ते

'प्रीतम' अपार अन्न-धन कौ भण्डार होत
सुख कौ अधार होत खेत हरियाये ते

*यहाँ 'दो सुत' का अभिप्राय 'दो बच्चों' से है 

:- यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'
['राष्ट्र हित शतक' से साभार]

एकता अधार राष्ट्र-भाषा एक भारती - यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'



फल की सफलता में मूल ही अधार होत
मूल कौ अधार बीज, बीज धरा धारती

धरा उरबरा हेतु नीर है अधार सार
नीर की अधार, नभ - घटा वारि ढारती

'प्रीतम' विवेक, ता की - बुद्धि त्यों अधार रही
बुद्धि की अधार सिच्छा - नेकता उभारती

नेकता अधार प्यार, एकता की माल गुहै
एकता अधार राष्ट्र - भाषा एक भारती 


:- यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

घनाक्षरी समापन पोस्ट - १० कवि, २३ भाषा-बोली, २५ छन्द

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
कोस कोस पे पानी बदले तीन कोस पे बानी

इस पोस्ट को पढ़ने के लिए विशेष समय और रुचि की आवश्यकता है

देखते ही देखते चौथी समस्यापूर्ति के समापन का समय भी गया| खड़ी बोली में १६ कवियों / कवियत्रियों के ४२ घनाक्षरी छंदों को पढ़ने के बाद, प्रांतीय / आंचलिक भाषा / बोलियों को समर्पित इस समापन पोस्ट में हम पढ़ेंगे १० कवियों द्वारा २३ भाषा / बोलियों में शब्दांकित किए गये २५ घनाक्षरी छंदों को|

पोस्ट काफी बड़ी होने के कारण नो मोर प्रस्तावना - नो मोर भूमिका और नो मोर टिप्पणियाँ मंच की तरफ से| इतना ज़रूर कहेंगे कि बड़ी ही मेहनत से तैयार किए गए छंदों से सजी इस पोस्ट को तसल्ली से पढ़ कर टिप्पणी में वह लिखें, जो भविष्य में और अच्छे काम का हेतु बने|

एक और बात इस पोस्ट में सम्पादन को ले कर बहुत ज्यादा काम नहीं किया गया है, बल्कि छंदों को यथावत प्रस्तुत करने को प्राथमिकता दी गयी है|

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - पढ़ें और सुनें भी - लोग हमें कहते थे इश्क़ का बीमार है

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

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इस पोस्ट में एक विशेष घोषणा भी है, जिसे पढ़ना न भूलें
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यह पोस्ट दो दिन लेट है| इस बार हम औडियो क्लिप्स भी देना चाह रहे थे, इसलिए देरी हो गयी| इस बार की पोस्ट में आप घनाक्षरी छंदों को सुन भी सकते हैं| हम सब के चहेते तिलक राज कपूर जी ने अपनी आवाज में उन के छंदों को रिकार्ड कर के भेजा है और रविकान्त भाई के छंदों को मैंने अपनी आवाज में रिकार्ड किया है| अंतर्जाल पर यह मेरा पहला प्रयास है, और इस प्रयास पर आप लोगों के सुझावों का सहृदय स्वागत है|

तो आइये पहले हम पढ़ते हुए सुनते हैं तिलक राज जी के छंदों को|





तेरा-मेरा, मेरा-तेरा, बातें हैं बेकार की ये,
आप भी समझिये, उसे भी समझाइये|

वाद औ विवाद से, न सुलझा है कभी कुछ,
प्यार को बनाये रखे, 'हल' अपनाइये|

छोटी छोटी बातें बनें, बड़े-बड़े मतभेद,
छोड़ इन्हें पीछे, कहीं, आगे बढ़ जाइये|

ज्ञानीजन-गुणीजन, सभी ने बताया हमें,
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||

[शायरी करने वाले लोग बखूबी जानते हैं ऊला और सानी का क्या और क्यों महत्व होता है|
थोड़ा स्पष्ट कर दें, घनाक्षरी के पहले दो चरण विषय को उपस्थित करते हैं, फिर तीसरा
चरण विषय को तान देता है और चौथा वाला चरण 'सटाक' की आवाज के साथ
न सिर्फ छन्द समापन करता है बल्कि उक्त विषय पर निष्कर्ष भी दे देता है|
यहाँ गिरह बाँधने वाली बात भी खास महत्व रखती है]

=====


तिलक भाई के आदेशानुसार इस छन्द के साथ फोटो भी जोड़ा गया है


image.png


नयना हैं कजरारे, केश घटा ने सँवारे,
वक्ष कटि से कटा रे, कलियों सी काया है|

गोरे गाल तिल धारे, अधर गुलाब प्यारे,
इन्द्र की सभा से तुझे कौन खींच लाया है|

अधर अधीर कहें, बड़े ही जतन कर,
काम के लिए रति ने तुझको सजाया है|

बदली की ओट से निहारता कनखियों से,
देख तेरी सुंदरता, चाँद भी लजाया है||

['कनखियों से'............... नीरज भाई की स्टाइल में बोले तो आप तो उस जमाने में
पहुँचे ही, हम सभी को भी दशकों पीछे ले गए हो भाई साब| हाए हाए हाए,
वो कनखियों वाला किस्सा आप के साथ भी रहा है,
पता नहीं था हमें!!!!!!!!!!]


=====


हमने भी सोचा, चलो - उस से ही शादी करें,
जिस पे फिदा ये सारा, नगर-बाज़ार है|

अम्मा-बापू-भाई-भाभी, कोई नहीं माना कभी,
सब को लगा कि छोटा-मोटा ये बुखार है|

उस को निहारते थे, खिड़की के तले खड़े,
लोग हमें कहते थे इश्क़ का बीमार है|

घोड़ी पर चढ़ कर, उसे देखा, जाना तभी,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||

[क्या बात करते हैं............. आप भी.........!!!!! फिर क्या हुआ? कैसे पिण्ड छूटा?
या अभी भी उस रोग से ग्रस्त हैं आप भाई साब? चलो अब इस घनाक्षरी
को जो एक बार भी पढ़ लेगा, खिड़की के अंदर जा कर डिटेल में
जरूर देखेगा, मान्यवर]




और अब पढ़ते हैं उन्हें - जो छंदों से प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं| श्लेष अलंकार वाली विशेष पंक्ति पर आपने एक नहीं दो-दो छन्द, और वो भी दो प्रकार के प्रयोगों के साथ प्रस्तुत किए हैं| मैंने इन छंदों को अपनी आवाज में रिकार्ड किया है, आशा है आप लोग मेरी आवाज की खराश को नज़र अंदाज़ कर देंगे|


:- रविकान्त पाण्डेय‍‍


पहला प्रयोग - अभंग श्लेष अलंकार



निज-निज प्रकृति के, सब अनुसार चलें,
विषम का किए प्रतिकार बिन चले ना|

बिन पुरुषार्थ कुछ, प्राप्त नहीं होता कभी,
ध्रुव सत्य बात ये स्वीकार बिन चले ना|

कुछ नहीं पूर्ण यहाँ, सब को तलाश कुछ,
नाव कोई जैसे पतवार बिन चले ना|

शिष्य को न नींद आए, मछली को शोक भारी,
पुरुष संताप ग्रस्त - 'नार' बिन चले ना||

[इस छन्द में रवि जी ने 'नार' शब्द के तीन अर्थ लिए हैं [१] ज्ञान [२] पानी और [३] स्त्री|
अभंग श्लेष का अर्थ होता है कि दिये / लिए गए शब्द को जैसे का तैसे ही लेना]


दूसरा प्रयोग - सभंग श्लेष अलंकार


प्रेम बिन रिश्तों वाली, गाड़ी नहीं चलती है,
घनघोर युद्ध, हथियार बिन चले ना|

वन-वन डोल-डोल मृग यही कहता है,
लगे प्यास जब, जलधार बिन चले ना|

आभूषण कितने भी सुंदर हों बंधु, पर,
स्वर्ण की दुकान तो 'सु-नार' बिन चले ना|

लाख हों हसीन मोड, इस की कहानी बीच,
जीवन का मंच सूत्रधार बिन चले ना||

[इस प्रयोग में रवि जी ने 'नार' शब्द को 'सु' से जोड़ कर दो भिन्न अर्थ उत्पन्न किए गए
हैं| यही होता है सभंग श्लेष अलंकार| यहाँ एक पंक्ति में कवि कह रहा है दो बातें-
जैसे कि [१] स्वर्ण की दुकान सुनार के बिना नहीं चलती| दूसरे अर्थ के साथ
[२] स्वर्ण की दुकान सुंदर नारी के बिना नहीं चलती| यही होती है कवि
की कल्पना| रवि भाई आप बीच बीच में गायब हो जाते हैं|
सो गाँठ बाँध लें, इस तरह से चलने वाला नहीं|
भाई साहित्य सेवा का मामला है]


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विशेष घोषणा
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ये सेकंड लास्ट पोस्ट है, अगली पोस्ट होगी 'समापन वाली पोस्ट'| आदरणीय आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के परामर्श के अनुसार उस पोस्ट को 'विषय मुक्त' किया जा रहा है| कई सारे कवि / कवियात्रियों ने रचनाएँ भेजी हैं, कुछ परिष्कृत जैसी हैं, कुछ अलग विषय पर हैं और कुछ प्रथम प्रयास वाली हैं| आज के दौर में जिन लोगों ने बढ़ कर छन्द सृजन में रुचि दर्शाई है, मंच उन सभी को प्रस्तुत करना चाहता है| तो ये सारे रचनाधर्मी उस पोस्ट में आएंगे|

सिवाय इस के - इस समापन पोस्ट के लिए -
अन्य रचनाधर्मी भी विषय से इतर अपना कोई एक घनाक्षरी छन्द भेज सकते हैं| हिन्दी के अलावा यदि कोई साथी भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, पंजाबी, सिंधी, ब्रजभाषा, गुजराती, मराठी जैसी अन्य भाषाओं के अतिरिक्त आंचलिक भाषाओं में भी छन्द भेजना चाहें तो उन का सहर्ष स्वागत है| भाषा संदर्भ के साथ साथ शब्दों के अर्थ अवश्य दें| आप अपनी औडियो क्लिप भी भेज सकते हैं| हमारी अपेक्षा रहेगी कि पाठक उस छन्द को सब से पहली बार यहीं पढ़ें| कारण स्पष्ट है कि हम जब पहले पहले कुछ पढ़ते हैं, तब हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया अपने आप आती है| बाद में फोर्मेलिटी अधिक लगती है|

ये रचनाएँ जल्द से जल्द मंच तक [navincchaturvedi@gmail.com] पहुँच जाएँ, तो समापन पोस्ट को रुचिकर बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल सकेगा|

इन छंदों के प्रकाशन के संबंध में एक और विशेष योजना भी है - जिस के बारे में समापन पोस्ट में बताया जाएगा, और आप सभी के सुझाव भी आमंत्रित किए जाएँगे|

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छंदों के प्रेमियो - कैसे लगे ये छन्द और कैसा चल रहा है आयोजन, लिखिएगा अवश्य|
हमें इंतज़ार है समापन पोस्ट के लिए आने वाली घनाक्षरियों का|

जय माँ शारदे!

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - स. पा. सोहे साले जी को, सरहज ब. स. पा. ई


सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन 

छंदों में स्वाभाविक और रचनात्मक रुझान जगाने के बाद मंच के सामने दूसरा लक्ष्य था छंदों में विशिष्टता के प्रति आकर्षण उत्पन्न करना| कठिन था, पर असंभव नहीं| घनाक्षरी छन्द ने इस अवसर को और भी आसान  कर दिया| मंच ने तीन कवियों को टार्गेट किया, उन से व्यक्तिगत स्तर पर विशेष अनुरोध किया गया, और खुशी की बात है कि तीनों सरस्वती पुत्रों ने मंच को निराश नहीं किया|

पहले क्रम पर धर्मेन्द्र भाई ने श्लेष वाले छन्द में जादू बिखेरा| दूसरे नंबर पर शेखर ने गिरह बांधने के लिए 16 अक्षर वाली उस पंक्ति को ८ बार लिखा और अब अम्बरीष भाई ने भी अपना सर्वोत्तम प्रस्तुत किया है| इस की चर्चा उस विशेष छन्द के साथ करेंगे|

घनाक्षरी छन्द पर आयोजित समस्या पूर्ति के इस ११ वें चक्र में आज हम पढ़ते हैं दो कवियों को| पहले पढ़ते हैं अम्बरीष भाई को| हम इन्हें पहले भी पढ़ चुके हैं|  अम्बरीष भाई सीतापुर [उत्तर प्रदेश] में रहते हैं और टेक्नोलोजी के साथ साथ काव्य में भी विशेष रुचि रखते हैं|| 



गैरों से निबाहते हैं, अपनों को भूल-भूल,
दिल में जो प्यार भरा, कभी तो जताइये|

गैर से जो मान मिले, अपनों से मिले घाव, 
छोटी-मोटी चोट लगे, सुधि बिसराइये|

पूजें संध्याकाल नित्य, ताका-झांकी जांय भूल,
घरवाली के समक्ष, माथा भी नवाइये|

फूट डाले घर-घर, गंदी देखो राजनीति,
राजनीति का आखाडा, घर न बनाइये||

[हाये हाये हाये, क्या बात कही है 'गैरों से निबाहते हैं'............ और साथ में
वो भी 'अपनों से मिले घाव', क्या करे भाई 'रघुकुल रीति सदा चल आई'
 जैसी व्यथा है| जो समझे वही समझे]

और अब वो छन्द जो मंच के अनुरोध से जुड़ा हुआ है| यदि आप को याद हो तो 'फिल्मी गानों में अनुप्रास अलंकार' और 'नवरस ग़ज़ल' के जरिये हमने अंत्यानुप्रास अलंकार पर प्रकाश डालने का प्रयास किया था| पढे-सुने मुताबिक यह अलंकार चरणान्त के संदर्भ में है| परंतु आज के दौर में हमें यह शब्दांत और पदांत में अधिक प्रासंगिक लगता है| अंबरीष भाई से इसी के लिए पिछले हफ्ते अनुरोध किया गया था, और उन्होने हमारी प्रार्थना पर अमल भी किया है| मंच इस तरह के प्रयास आगे भी करने के लिए उद्यत है|


गोरी-गोरी देखो छोरी, लागे चंदा की चकोरी,
धन्यवाद सासू मोरी, तोहफा पठाया है|

पीछे-पीछे भागें गोरी, खेलन को तो से होरी, 
माया-जाल देख ओ री, जग भरमाया है|

धक-धक दिल क्यों री, सूरत सुहानी तोरी,    
दिल का भुलावा जो री, खुद को भुलाया है| 

कंचन सी काया तोरी, काहे करे जोरा जोरी,    
देख तेरी सुन्दरता, चाँद भी लजाया है||

[गोरी, छोरी, चकोरी, मोरी, होरी, ओ री, तोरी, जो री और जोरा जोरी  जैसे
 शब्दों के साथ अंत्यानुप्रास अलंकार से अलंकृत किया गया यह छन्द
है ना अद्भुत छन्द!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
बाकी तारीफ करने की ज़िम्मेदारी आप लोगों की]


गोल-गोल ढोल जैसा, अँखियाँ नचावे गोल, 
मूँछ हो या पूँछ मोहै, भाया सरदार है|

चाचा-चाची डेढ़ फुटी, मामा-मामी तीन फुटी, 
सरकस लागे ऐसा भारी परिवार है|

पड़े जयमाल देखो, काँधे पे सवार बन्ना, 
अकड़ी खड़ी जो बन्नी, बनी होशियार है|

जल्दी ले के सीढ़ी आओ, बन्ना साढ़े एक फुटी,   
बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||

[लो भाई घनाक्षरी में सरकस को ले आये अम्बरीष जी| सरकसी परिवार 
वाली ये शादी तो बहुत जोरदार हुई होगी वाकई में]



इस चक्र के दूसरे, घनाक्षरी आयोजन के १४ वें और इस मंच के २९ वें कवि हैं वीनस केशरी| पंकज सुबीर जी के अनुसार ग़ज़ल के विशेष प्रेमी वीनस भाई इलाहाबाद की फिजा को रोशन कर रहे हैं, पुस्तकों से जुड़े हुए हैं - बतौर शौक़ और बतौर बिजनेस भी| शायर बनने का बोझ तो पहले से उठा ही रहे थे, अब इन्हें कवि होने की जिम्मेदारी भी निभानी है| वीनस का ये पहला पहला घनाक्षरी छन्द है, और माशाअल्लाह इस ने गज़ब किया है - यदि आप को यकीन न आये तो खुद पढ़ लें| वीनस में आप को भी अपना छोटा भाई दिखाई पड़ेगा - दिखाई पड़े - तो आप भी चुहल कर सकते हैं इस के साथ|




चाहे जब आईये जी, चाहे जब जाईये जी, 
आपका ही घर है, ये, काहे को लजाइये|

मन मुखरित मेरा, अभिननदन  करे, 
मीत बन आईये औ, प्रीत गीत गाइये|

स. पा. सोहे साले जी को, सरहज ब. स. पा. ई, 
रोज आ के बोलें - जीजा - रार निपटाइये| 

घर से भगा न सकूं,  उन्हें समझा न सकूं -
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||

[अरे वीनस भैया ये तो उत्तर भारत में बोले तो 'कहानी घर घर की' है| न जाने 
बिचारे कितने सारे जीजाओं को साले और साले की बीबी यानि सरहजों
के बीच सुलह करवानी पड़ती होंगी| अभिनन्दन को बोलते समय
अभिननदन करने की रियायतें लेते रहे हैं पुराने कवि भी|
गिरह बांधने का इनका तरीका भी विशिष्ट लगा]


कवियों ने अपनी कल्पनाओं के घोड़ों को क्या खूब दौड़ाया है भाई!!!! भाई मयंक अवस्थी जी ने सही कहा था कि "यह  सभी विधाएँ [छन्द] किसी काल खण्ड विशेष में सुषुप्तावस्था में तो जा सकती हैं; परन्तु उपयुक्त संवाहक और प्रेरक मिलने पर इन्हें पुनर्जीवित होने में देर नहीं लगती""| ये सारी प्रतिभाएं कहीं गुम नहीं हो गयीं थीं - बस वो एक सही मौके की तलाश में थीं| मौका मिलते ही सब आ गए मैदान में और चौकों-छक्कों की झड़ी लगा दी|

अम्बरीष भाई और वीनस भाई के छंदों पर अपनी टिप्पणियों की वर्षा करना न भूलें, हम जल्द ही फिर से हाजिर होते हैं एक और पोस्ट के साथ| एक बार फिर से दोहराना होगा कि ये अग्रजों के बरसों से जारी अनवरत प्रयास ही थे / हैं जिनके बूते पर आज हम इस आयोजन का आनंद उठा रहे हैं| कुछ अग्रज अभी भी मंच से दूरी बनाए हुए हैं, पर हमें उम्मीद है और भाई उम्मीद पे ही तो दुनिया कायम है|

जय माँ शारदे!

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - रात भर बदली की ओट से निहारता है

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन 

समस्या पूर्ति मंच द्वारा घनाक्षरी छन्द पर आयोजित इस चौथी समस्या पूर्ति के दसवें चक्र में एक बार फिर से एक नौजवान कवि को पढ़ते हैं हम लोग| मूल रूप से मथुरा के परन्तु वर्तमान में अहमदाबाद में रहने वाले शेखर चतुर्वेदी को काव्य विरासत में मिला है|



:- शेखर चतुर्वेदी 


प्यार-त्याग- विश्वास का,  सदा ही बसेरा यहाँ,
आतमीयता की फुलवारी ये बचाइए|

मिल जुल कर साथ-साथ प्यार बाँटिये जी,
अहम का मैल कभी, दिल में न लाइए|

छोटों को दुलार और, बड़ों का सम्मान करें,
होकर सजग रिश्ते-नातों को निभाइए|

कहीं अनमोल रिश्ते-नाते नहीं छुट जाएँ,
राजनीति का अखाडा, घर न बनाइये||

[संसार को देखने और समझने की उम्र में इस तरह का छन्द कवि के संस्कारी 
होने का पुख्ता सुबूत है|  'आत्मीयता की फुलवारी' के माध्यम से 
कवि अपनी बात कहने में सफल है]


नयना कटार जैसे, अधर अंगार जैसे,
कंचन बदन  तेरी कामिनी सी काया है|

मिसरी की डली जैसी बातें मीठी मीठी करे,
शब्द जाल फ़ेंक तूने मन भरमाया है|

मुसकान दामिनी की तरह प्रहार करे,
हाय दिल घायल ने जग बिसराया है|

रात भर बदली की ओट से निहारता है,
देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||

["रात भर बदली की ओट से" वाह वाह वाह क्या कल्पना है भाई!!!!! समस्या पूर्ति
 की पंक्ति को पूर्ण रूप से सार्थक करता हुआ यह  पूर्वार्ध भाग तो कमाल
 का है भाई| छन्द के इस हिस्से ने तो आपके दादाजी और हमारे
 गुरूजी वाले दिनों की याद दिला दी]


लिलिपुट की हाईट, कोयला बदन तेरा,
परियों का फिर भी तुझे तो इंतज़ार है|

नज़र से बचने को आटे का लगाए टीका,
बच्चे डर जाएँ ऐसा मुख पे निखार है|

कैसी घड़ी आज आई, बना है तू भी जमाई,
बन्नो से नैना मिलाने को तू बेकरार है|

नज़र मिलेगी कैसे ? पिद्दी सा बदन तेरा,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||

['गुलिवर्स में लिलिपुट' को ढूँढने चला गया था मैं तो, पर, बाद में पल्ले पडा -
लिलिपुट के लोगों के बीच फंसे गुलिवर्स की नहीं, फिल्मों-सीरियलों में
 काम करने वाले सज्जन 'लिलिपुट' की बात कर रहे हैं आप| पिद्दी से 
बदन वाले आप के बन्ने को वाकई आटे के टीके की जरुरत है]

ये घनाक्षरी / कवित्त छन्द वाला आयोजन तो आप लोगों ने जबरदस्त पोपुलर कर दिया भाई| सुनने में आया है कि अंतरजाल पर छंदों को ले कर कुछ और भी जगहों पर रचनात्मक कार्य शुरू होने वाले हैं| ये तो बड़ी ही खुशी की बात है भाई :० | अग्रजों द्वारा बरसों से की जा रही कठिन तपस्या के सुपरिणाम सामने आने लगे हैं - जय हो|

रस-छन्द-अलंकार के सागर में गोते लगाने के रसिक - आप लोग, शेखर के छन्दों का आनंद लें, अपनी राय जाहिर करें तब तक हम हम अगली पोस्ट की तैयारी करते हैं| दरअसल जरुरत हफ्ते में तीन पोस्ट डालने की महसूस हो रही है, परन्तु अन्य कार्यों की व्यस्तातावश दो ही हो पा रही हैं|


जय माँ शारदे! 

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - बन्नो के हैं आभूषण-परिधान भ्रष्टाचार

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

दो नौजवान कवियों के छन्द पढ़ने के बाद, इस आयोजन के नौवें चक्र में आज हम पढ़ेंगे आदरणीय श्री बृजेश त्रिपाठी जी के छंदों को| इस पोस्ट के साथ इस आयोजन के कवियों की संख्या हो गई ११ और घनाक्षरी छंदों की संख्या हो गई ३०|

आदरणीय श्री बृजेश त्रिपाठी जी को इस मंच पर हम पहले भी पढ़ चुके हैं| जैसा कि हमने पिछली पोस्ट में कहा था कि कवि की कल्पना अथाह सागर की भांति होती है, उसी को चरितार्थ करते हैं आप के छन्द| अनुभवी निगाहें, बात में से कैसे बात निकाल लेती हैं, इस का अच्छा उदाहरण दे रहे हैं आप| हालाँकि रस परिवर्तन जैसी कुछ रियायतें ली हैं आपने, परन्तु उम्र को दरकिनार करती छन्द साहित्य की सेवा और विषय की विशिष्टता उसे ढँक देती है| आइये पढ़ते हैं - भ्रष्टाचार पर निशाना साधते इन के छंदों को:-




साधु-संतो-योगियों पे, कीजिये न अत्याचार,
संतों से ले कर सीख, भ्रष्टता मिटाइए|

सोती हुई जनता पे, लाठियाँ चलाते हुए,
थोडा थमिएगा, थोडा - सा तो शरमाइए|

काले धन की वापसी - पे हैरानी होती है क्यों,
काले धन को वापस, देश में ही लाईये|

खुद ही जो दोषी हों तो, करें प्रायश्चित आप,
राजनीति का अखाडा, घर न बनाईये||

[सम सामयिक विषय पर दो टूक बात कही है आपने| काले धन की वापसी
होनी ही चाहिए| और 'खुद ही दोषी हों' वाली बात तो क्या कहने|
नीतिगत विषय पर उम्दा प्रस्तुति]


ऊबड़-खाबड़ चाँद - से न तुलना करो जी
जानिए कि उसने क्यों - खुद को छिपाया है|

कहाँ सदरीति, कहाँ - रूखा-सूखा निशापति,
तुलना की कल्पना से, व्योम घबड़ाया है|

लाठी - गोली - आँसू-गैस, सारे हथकंडे फेल,
ब्यूटी-कम्पटीशन में, वो हड़बड़ाया है|

जग की अनीति पे तू, भारी सदा सदरीति
देख तेरी सुन्दरता, चाँद भी लजाया है||

[ओहो, इस पंक्ति को ले कर इस तरह की प्रस्तुति!!! है न अनुभव वाली बात!!!!
वाकई सदरीति की भला क्या तुलना रूखे सूखे निशापति से| रस-विषय
परिवर्तन जो थोड़ा सा है भी, विशिष्टता को ले कर आया है|
'ब्यूटी कम्पटीशन' का बहुत ही मनोहारी प्रयोग किया है
आपने, बधाई के पूरे पूरे हकदार हैं आप]


बन्नो सरकारी वेश-भूषा में सुन्दर लगे,
बन्ने का तो भेष ही, रोचक समाचार है|

बन्नो के हैं आभूषण-परिधान भ्रष्टाचार,
बन्ने का तो भगवा दुपट्टा कंठहार है|

बन्नो शरमीली, मुँह - ढाँपे फिरे दशकों से,
बन्ने का तो ऊँचा स्वर एक इश्तहार है|

बन्नो खिसियाई बिल्ली, खम्भा नोचने में लगी,
बन्ने का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||

[ हास्य रस पर केन्द्रित इस पंक्ति पर आपने गज़ब की
व्यंग्यातमक प्रस्तुति दी है| कवि की कल्पना है भाई]


जहाँ चाह, वहाँ राह| कवि ठाने, तो कल्पनाएं खुद-ब-खुद चल कर आती हैं उस के पास| रूपक और उपमाएँ हाजिर रहती हैं उस के दरबार में| विषय - कल्पना - व्याकरण - रस - छन्द -अलंकार वगैरह का संसार बहुत बड़ा है| आलोचक और समीक्षक अभी भी उस पर काम कर रहे हैं, निष्कर्ष प्रतीक्षारत है :)| परिवर्तन संसार का अकाट्य नियम है|

छंदों को सिर्फ एक फॉर्मेट / उपकरण मानते हुए, यदि उन पर समय के अनुसार हम लोग अच्छे, तार्किक और जन-साधारण को रुचिकर प्रयोग करते रहेंगे, तो इन छंदों को अगली पीढ़ियों तक 'सहज-स्वीकृत' रूप में पहुँचा पाएंगे, अन्यथा सत्य हम सब जानते ही हैं|

आदरणीय त्रिपाठी जी के इन अनमोल छंदों का रस पान करने के साथ साथ इन पर अपनी टिप्पणी रूपी पुष्प वर्षा आप को करनी है और हमें तैयारी करनी है एक और हिलाऊ टाइप पोस्ट की|

कुछ और मित्रों ने भी छन्द भेजे हैं, उन की लगन और दृढ़ इच्छा शक्ति को प्रणाम| व्यस्तता वश उत्तर पेंडिंग हैं, पर जल्द ही ये काम भी शुरू किया जायेगा| तब तक उन सभी मित्रों से निवेदन है कि इस आयोजन की घनाक्षरी छन्द संबन्धित अब तक की सभी पोस्ट पढ़ें, घोषणा वाली पोस्ट को बार बार पढ़ें, दी गईं औडियो लिंक्स को बार बार सुनें, इस से हमारा और उन का - दोनों का काम काफी आसान हो जाएगा| उन की आसानी के लिए सारी की सारी लिंक्स एक बार फिर से यहीं इसी पोस्ट में नीचे दी गई हैं|


इस आयोजन को आप लोगों द्वारा प्रदत्त सहयोग के लिए बहुत बहुत आभार| मित्रो, कभी कभी ठाले-बैठे भी देख लिया करो, भाई कवि हैं हम भी तो, आप की राय की प्रतीक्षा हमें भी रहती है|


जय माँ शारदे!

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - घुंघटे की तिजोरी में बंद सरमाया है

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


आज पोस्ट लिखते हुए गुरुजी [स्व. 'प्रीतम' जी] की बहुत याद आ रही है| वो अक्सर कहते थे, दूसरों को उन की गलतियाँ बताना जितना जरूरी है, उस से हजार गुना ज्यादा जरूरी है उन की अच्छाइयों को सारे जमाने के साथ शेयर करना|

पिछली पोस्ट में हम ने धर्मेन्द्र भाई के बेजोड़ छंदों का आनंद उठाया| आज की पोस्ट में मिलते हैं एक नौजवान शायर / कवि से| शायर इसलिए कि ये गज़लों पर ही ज्यादा बातें करते रहे हैं, और कवि इसलिए कि इन्होंने छन्द भी भेजे हैं| फ़ौज़ में हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि इन के छंदों में देशभक्ति ज्यादा है|




सीमा पार से जो हो रहा है उग्रवाद अभी,
उस पर आपकी तवज्जो अभी चाहिए|

नेता, मंत्री, सांसद जी आपसे है इल्तिजा ये,
देश के ही लोगों में तो दोष न गिनाइये|

चंद वोटों के लिए न आपस में लड़िए जी,
भाई भाई को तो आपस में न लड़ाइये|

मुल्क अपना ये घर कहता है आर पी ये,
राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये||

[वाह आर. पी., इस पंक्ति पर बेहतरीन प्रस्तुति| जियो मित्तर जियो| टी वी वाले छंद
पढे, घर गृहस्थी वाले छंद पढे और अब ये देश भक्ति
वाला छंद| बहुत खूब]



बड़ा धनवान और पूंजीपति है वो बड़ा,
तेरे जैसा महबूब जिसने भी पाया है |

पागल बनाया कितनों की है उडाई नींदें,
कितनों का सुख चैन तुमने चुराया है |

लाखों हैं लुटेरे यहाँ लूट लें न इसीलिए,
घुंघटे की तिजोरी में बंद सरमाया है |

इतराता था जो कभी अपनी सुंदरता पे,
देख तेरी सुंदरता चाँद भी लजाया है||

['घुंघटे की तिजोरी में बंद सरमाया' हाए हाए हाए, क्या कल्पना
है भई वाह| घनाक्षरी में शायरी की खूबसूरती,
क्या कहने| ]



डेढ़ फुटिया बन्ना भी चला ब्याह करने को,
उसको भी घोड़ी चढने का अधिकार है |

आइना भी डर जाये बन्नो की सूरत देख,
कहे मुझ पर हुआ भारी अत्याचार है |

भेंगी आँख, टेढ़ी नाक, हाथी जैसे कान लिए,
वरमाला थामे बन्नो कब से तैयार है |

गोंद में ही वरमाला पहनानी पड़ी क्यूंकि,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुबमीनार है||

[आईने पर अत्याचार - ओहो, और गोद में वरमाला -
वाह क्या तीर खींच के मारा है, ये डेढ़ फूटिया
भी खूब ढूँढ के निकाला है]

कवि की कल्पना एक अथाह सागर की तरह होती है| माँ शारदे किस से क्या लिखवा दें, कुछ भी पहले से तय नहीं होता| बस इसी तरह साहित्य सृजन चलता रहा है, चल रहा है, चलता रहेगा - कोई माने या न माने| लीक से हट कर चलने वाले कवि / शायरों को इसीलिए तो ज़माना याद करता है भाई| वर्तमान समय की बारीकियों को समझते हुए शायद इसीलिए भाई मयंक अवस्थी जी ने लिखा होगा "अगर साहित्य का मूल्यांकन उस के कला पक्ष पर किया जाये, तो तुलसी से अधिक कालिदास प्रासंगिक होते"|

तो सुधि पाठको, आप सभी आर. पी. के मस्त मस्त छंदों का आनंद लें, और टिप्पणियाँ भी ज़रूर दें|

फिर मिलते हैं अगले हफ्ते अगली पोस्ट के साथ|

जय माँ शारदे!

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - होंठ जैसे शहद में, पंखुड़ी गुलाब की हो

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


घनाक्षरी छन्द पर आयोजित चौथी समस्या पूर्ति के इस सातवें चक्र में भी पढ़ते हैं एक इंजीनियर कवि को| इंजीनियर होने के नाते शब्दों की साज़-सज्जा काफ़ी बेहतरीन किस्म की करते हैं ये| छन्दों के प्राचीन प्रारूप को सम्मान देते हैं और नई-नई बातों को बतियाते हैं| आइए पढ़ते हैं इन के द्वारा भेजे गये छन्द:-





देवरानी मोबाइल, ले कर है घूम रही,
भतीजी ने सूट लिया, दोनों मुझे चाहिये|

सासू जी ने खुलवाया, नया खाता बचत का,
और ज्यादा नहीं मेरा, मुँह खुलवाइये|

ऐश सब कर रहे, हम यहाँ मर रहे,
बोल पड़ा मैं तुरंत, चुप रह जाइये|

सब अपने ही लोग, रहें खुश चाहता मैं,
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||

[एकता कपूर उर्फ छोटे पर्दे की दादी अम्मा और टी. वी. महारानी की इस युग की विशेष
मेहरबानी रूप घर घर की कहानी कैसे कैसे गुल खिला रही है - इस का बहुत ही अच्छा
उदाहरण देखने को मिलता है इस छन्द में| छंदों को जन-मानस से जुडने के लिए
उन की बातें बतियाना बहुत जरूरी है]


आँख जैसे रोशनाई डल-झील में गिरी हो,
गाल जैसे गेरू कुछ दूध में मिलाया है|

केश तेरे लहराते जैसे काली नागिनों को,
काले नागों ने पकड़, अंग से लगाया है|

होंठ जैसे शहद में, पंखुड़ी गुलाब की हो,
पलकों ने बोझ, सारे - जहाँ का उठाया है|

कोई उपमान नहीं, तेरे इस बदन का,
देख तेरी सुंदरता चाँद भी लजाया है||

[रूपक व उपमा जैसे अलंकारों से सुसज्जित इस छन्द की जितनी तारीफ की जाए कम है|
डल-झील, गेरू-दूध के अलावा पलकों ने सारा बोझ वाली बातों के साथ यह घनाक्षरी
किस माने में किसी रोमांटिक ग़ज़ल से कम है भाई? आप ही बोलो...]


सूखा-नाटा बुड्ढा देखो, चला ब्याह करने को,
तन को करार नहीं, मन बेकरार है|

आँख दाँत कमजोर, पाजामा है बिन डोर,
बनियान हर छोर, देखो तार-तार है|

सरकता थोड़ा-थोड़ा, मरियल सा है घोडा,
लगे ज्यों गधा निगोड़ा, गधे पे सवार है|

जयमाल होवे कैसे, सीढ़ी हेतु हैं न पैसे,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||

[करार-बेकरार, कमजोर-बिन डोर-हर छोर, थोड़ा-घोड़ा-निगोड़ा और कैसे-जैसे शब्द प्रयोगों
के साथ आपने अनुप्रास अलंकार की जो छटा दर्शाई है, भाई वाह| जियो यार जियो]

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और अब बारी है उस छन्द की जिस का मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार था| श्लेष अलंकार को लक्ष्य कर के आमंत्रित इस छंद में कवि ने 'नार' शब्द के जो दो अर्थ लिए हैं वो हैं [१] गर्भनाल, और [2] कमलनाल| छन्द क्यों विशेष लगा इस बारे में बाद में, पहले पढ़ते हैं इस छन्द को|


'पोषक' ये खींचती है, तन को ये सींचती है,
द्रव में ये डूबी रहे, किन्तु कभी गले ना|

जोड़ कर रखती है, जच्चा-बच्चा एक साथ,
है महत्वपूर्ण, किन्तु - पड़े कभी गले ना|

जब तक साथ रहे, अंग जैसी बात रहे,
काट कर हटा भी दो, तो भी इसे खले ना|

पहला-पहला प्यार, दोनों पाते हैं इसी से,
'शिशु' हो या हो 'जलज', "नार" बिन चले ना||

[अब देखिये क्या खासियत है इस छन्द की| पहले आप इस पूरे छन्द को (आखिरी चरण
को छोड़ कर) गर्भनाल समझते हुए पढ़िये, आप पाएंगे - कही गई हर बात इसी अर्थ का
प्रतिनिधित्व कर रही है|दूसरी मर्तबा आप इसी छन्द को कमलनाल के बारे में समझते
हुए पढ़िये, आप पाएंगे यह छन्द कमलनाल के ऊपर ही लिखा गया है| यही है जादू
इस विशेष पंक्ति वाले छन्द का| इस प्रस्तुति के पहले वाले छन्द भी श्लेष पर हैं,
पर यह छन्द पूरी तरह से सिर्फ एक शब्द के अर्थों में ही भेद करते हुए श्लेष का
जादू दिखा रहा है| इसके अलावा इस छन्द में एक और चमत्कार है| 'गले ना'
शब्द प्रयोग दो बार है| एक बार उस का अर्थ है 'गर्भनाल / कमलनाल द्रव
में रहते हुए भी गलती नहीं है', और दूसरा अर्थ है 'गले नहीं पड़ती'|
है ना चमत्कार, यमक अलंकार का? इस अद्भुत प्रस्तुति
के लिए धर्मेन्द्र भाई को बहुत बहुत बधाई]

जय हो दोस्तो आप सभी की और अनेकानेक साधुवाद आप लोगों के सतप्रयासों हेतु| धर्मेन्द्र भाई के छंदों का आनंद लीजिये, टिप्पणी अवश्य दीजिएगा| जिन कवि / कवियात्रियों के छन्द अभी प्रकाशित होने बाकी हैं, यदि वो उन में कुछ हेरफेर करना चाहें, तो यथा शीघ्र करें| जिन के छन्द प्रकाशित हो चुके हैं, वो फिर से छन्द न भेजें|

जय माँ शारदे!

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद, कर जोड़

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


कल अचानक ही बैठे बैठे मन में ख़्याल आया क्यूँ न ब्लॉग के फ़ॉर्मेट में कुछ फेरफार किया जाए| फिर क्या, लग पड़ा, और जो परिवर्तन हुए आप के समक्ष हैं| ब्लॉग के दाएँ-बाएँ वाली पट्टियों को देख कर अपनी राय अवश्य दें| "ई- क़िताब" तथा ठाले-बैठे ब्लॉग की 200वीं पोस्ट पर आप लोगों की प्रतिक्रियाएँ पढ़ कर उत्साह में अभिवृद्धि हो रही है|

समस्या पूर्ति मंच द्वारा घनाक्षरी छन्द पर आयोजित चौथी समस्या पूर्ति के इस छठे चक्र में आज हम उन को पढ़ते हैं जो कई वर्षों से अन्तर्जाल पर छन्दों को ले कर सघन और सतत प्रयास कर रहे हैं|


लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों,
भाई को हमेशा गले हँस के लगाइए|

लात मार दूर करें, दशमुख सा -अनुज,
दुश्मन को न्योत घर, कभी भी न लाइए|

भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें,
नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|

छल-छद्म, दाँव-पेंच, द्वंद-फंद अपना के
राज नीति का अखाड़ा घर न बनाइये||

[सलिल जी का छन्द और शब्दों की कारीगरी न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता| 'इंच भर भूमि'
और 'दशमुख सा अनुज' को इंगित कर के आपने 'राजनीति का अखाड़ा' वाली इस
पंक्ति को महाभारत तथा 'रामायण' काल की घटनाओं से जोड़ दिया है]



जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार,
कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|

पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले,
साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|

चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह,
कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|

गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़,
देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||

[क्षृंगार रस में हास्य रस का तड़का, क्या बात है आचार्य जी| चाह, वाह, दाह, आह, अथाह.
प्रवाह जैसे शब्दों से आपने इस छन्द को जो अलंकृत किया है, भई वाह|
'आँख मूँद - कर - जोड़' वाला प्रयोग भी जबर्दस्त रहा]



शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर,
जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|

आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन,
नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|

चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे,
सासू की समधन पे, जग बलिहार है|

गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल,
बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||

[हास्य रस के साथ साथ इस छन्द में अनुप्रास अलंकार की छटा देखते ही बनती है| इस के सिवाय 'माँ' शब्द का एक नया पर्यायवाची शब्द भी पढ़ने में आया है इस छन्द में - 'सासू की समधन']


ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं,
जग है असार पर, सार बिन चले ना|

मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच,
काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|

मनुहार इनकार, इकरार इज़हार,
भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|

रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी,
दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||

[श्लेष अलंकार वाली इस विशेष पंक्ति पर आप के द्वारा 'नार' शब्द के तीन अर्थ लिए गये हैं -
ज्ञान-पानी और स्त्री| आचार्य जी के ज्ञान के बारे में क्या कहा जाए, हम सभी जानते हैं|
इस विशेष पंक्ति वाले विशेष छन्द में आप ने अनुप्रास अलंकार
की जो जादूगरी की है, देखते ही बनती है]


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खुद हमें भी पता नहीं था कि अब तक कुल जमा २८ कवि / कवियत्री इस मंच की शोभा बन चुके हैं| कल गिना तो मालुम पड़ा| आज के दौर में, 'छन्द साहित्य' जैसे कम रुचिकर विषय पर, जुम्मा जुम्मा ६ महीनों के अल्प काल में २८ कवि / कवियत्री, ३३ चौपाइयाँ, १०६ दोहे, ३६ कुण्डलिया और अब तक २० घनाक्षरी छन्दों के अलावा ४२००+ हिट्स के साथ आप लोगों ने जो चमत्कार किया है - उस की प्रशंसा के लिए शब्द नहीं मिल रहे| ये आप लोगों के सक्रिय सहयोग के कारण ही सम्भव हुआ है|

हमारे जो साथी किसी कारण वश वर्तमान में हम से दूर हैं, हम दिल से उन का आभार प्रकट करते हैं| मसलन, हमें याद है - इस मंच की सब से पहली प्रस्तुति - जब कंचन बनारसी भाई उर्फ उमा शंकर चतुर्वेदी जी द्वारा दी गई, तो मंच ने किस अंदाज़ में खुशी मनाई थी| कंचन बनारसी भाई, यह मंच आप का सदैव आभारी रहेगा| जिन लोगों ने समय समय पर मंच का मार्गदर्शन किया, उन के लिए भी मंच कृतज्ञ है| आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप लोग इस मंच को नित नई ऊँचाइयाँ प्रदान करने में सदैव आगे रहेंगे|

अगली पोस्ट में पढ़ते हैं विशेष पंक्ति वाले छन्द पर जादू करने वाले अगले जादूगर धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन 'को|

जय माँ शारदे!