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कविता - दो पाटन के बीच - सन्ध्या यादव

 

दो पाटन के बीच...

वो औरतें जो जबरदस्ती

घर में घुस आयीं घुसपैठियों की तरह

" मैं तुलसी तेरे आंगन की तर्ज पर "

उन औरतों को सबसे मिली उपेक्षा

उनका दावा था इस उपेक्षा की चादर को

कविता - बिछड़े सभी बारी-बारी - सन्ध्या यादव

 

बिछड़े सभी बारी-बारी...

 1 ) बारी -बारी बिछड़ने

का एक फायदा हुआ

कच्चे मकान सा दिल बैठा नहीं

पहाड़ सा मजबूत हो गया...

कविता - मैं दुखी हूँ - सन्ध्या यादव

 

मैं  दुखी हूँ...

मैं बहुत दुखी हूँ...

पर उतनी नहीं ,

जितनी वो माँ है

जिसकी बेटी के अधमरे शरीर को

गुंडे घर में फेंक गये चार दिन बाद,

कविता - अब तुम मर क्यों नहीं जाते दद्दा - सन्ध्या यादव


"बुढ़ऊ कमरा छेके बैइठे हैं "

बेटे -बहुरिया के ये संस्कारी

आत्म -सम्वाद दिन में पचास बार

सुनने और पोते -पोतियों को 

"मेरा कमरा " के नाम पर

लड़ने-झगड़ने के बाल सुलभ

आशावादीस्वप्निल वार्तालाप को

सुन दद्दा की ऐंठी गर्दन

तकिये पर थोड़ी और सख़्त

हो जाती है ...

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं – सन्ध्या यादव



भाग्यशाली हूँ, ईर्ष्या, कुण्ठा, प्रतिस्पर्धा का कारण हूँ

वैसे तो रीढ़ की हड्डी ही उसके संसार की हूँ ,पर

ब्रांडेड, चमकदार कपड़ों से ढँकी -छुपी रहती हूँ

एक बड़े आदमी की पत्नी हूँ मैं…