सुधि जनों!
वन्दे मातरम।
वक्रोक्ति और विरोधाभास अलंकारों पर कुछ जानकारी नीचे है। समस्या पूर्ती में प्राप्त दोहों में कहाँ कौन सा अलंकार है, खोजिए। कोइ शंका हो तो अवश्य पूछें।
वक्रोक्ति अलंकार-
जब किसी व्यक्ति के एक अर्थ में कहे गये शब्द या वाक्य का कोई दूसरा व्यक्ति जान-बूझकर दूसरा अर्थ कल्पित करे तब वक्रोक्ति अलंकार होता है। इस दूसरे अर्थ की कल्पना श्लेष या काकु द्वारा संभव होती है। वक्रोक्ति के 2 प्रकार 1. श्लेष वक्रोक्ति तथा 2. काकु वक्रोक्ति हैं।
1. श्लेष वक्रोक्ति:
वक्ता-श्रोता जब करें, भिन्न- शब्द के अर्थ.
रचें श्लेष वक्रोक्ति कवि, जिनकी कलम समर्थ..
एक शब्द के अर्थ दो, करे श्लेष-वक्रोक्ति.
श्रोता-वक्ता हों सजग, मत समझें अन्योक्ति..
श्लेष वक्रोक्ति में शब्द एक बार कहा जाता है किन्तु उसके भिन्न अर्थ भिन्न सन्दर्भों में लिए जाते हैं। जब कहनेवाला किसी शब्द का प्रयोग एक अर्थ में करे किन्तु सुननेवाला उसका दूसरा अर्थ ग्रहण करे, जहाँ पर एक से अधिक अर्थवाले शब्द के प्रयोग द्वारा वक्ता का एक अर्थ पर बल रहता है किन्तु श्रोता का दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. इसका प्रयोग केवल समर्थ कवि कर पाता है चूँकि विपुल शब्द भंडार, उर्वर कल्पना शक्ति तथा छंद नैपुण्य अपरिहार्य होता है।
'श्लेष' का अर्थ है चिपकाना- जब एक अर्थ के साथ दूसरा अर्थ चिपका हो. 'वक्रोक्ति' अर्थात कहने का विशिष्ट ढंग. कविता तभी होती है जब बात को ढंग विशेष से कहें.
उदाहरण:
1. हे गिरिजा! है भिक्षु कहाँ?
बलि द्वार गया है आज रमा !
यहाँ लक्ष्मी जी विनोद में पार्वती जी से पूछती हैं- 'हे गिरिजा! (गिरि / पर्वत द्वारा जायी / उत्पन्न = पर्वत की पुत्री) तुम्हारा भिक्षुक (भिखारी- शिव पार्वती को मांगने उसके पिता हिमाचल के पास गए थे) अर्थात शिव कहाँ हैं? पार्वती जी बिना रुष्ट हुए परिहास में उत्तर देती हैं: हे लक्ष्मी! भिखारी राजा बलि के द्वार पर गया है (विष्णु जी वामन अवतार में राजा बलि से दान 3 पग भूमि माँगी थी।)
2. पर्वतजा! पशु-पाल कहाँ है?
कमला! जमुना-तट, ले धेनु।
पुनः पारवती जी तथा लक्ष्मी जी के बीच हास-परिहास... लक्ष्मी जी ने पूछा- हे पार्वती ! पशुपाल (पशुओं के स्वामी = शिव, पशुपतिनाथ मन्दिर काठमांडू में) कहाँ हैं? पार्वती जी ने पुनः विनोद करते हुए उत्तर दिया- हे कमला! (कमल से उत्पन्न) गायों को चराने यमुना नदी के तट पर गया है। (विष्णु जी ने कृष्णावतार में यमुना नदी के किनारे गौएँ चराईं, गोपाल)
उक्त दोनों प्रत्युत्पन्न मतित्व के भी श्रेष्ठ उदहारण हैं, श्लेष तो है ही।
3. कौन द्वार पर?
राधे! मैं हरि।
क्या वानर का काम यहाँ?
यह प्रसंग राधा जी और कृष्ण जी के मध्य नौक-झोंक का है। राधा जी ने पूछ- द्वार पर कौन है? कृष्ण जी ने उत्तर दिया- राधा! मैं हरि (कृष्ण जी विष्णु = हरि के अवतार थे) हूँ। राधा जी ने जान-बूझकर अन्य अर्थ लगाकर कृष्ण जी को खिझाते हुए कहा- यहाँ वानर (पर्यायवाची हरि) का क्या काम है?
4. कौन तुम?, गोपाल राधे!
गाय ले जाओ विपिन में!
तुम्हारा घनश्याम राधे!
बरसिए सूखे विपिन में!
5. हैं री लाल तेरे? सखी ऐसी निधि पाइ कहाँ?
हैं री खगयान? कह्यों हौं तो नहीं पाले हैं?
हैं री गिरिधारी? व्हें है रामदल मांहि कहुं?
हैं री घनश्याम? कहूँ सीत सरसाले हैं?
हैं री सखी कृष्णचन्द्र? चन्द्र कहूँ कृष्ण होत?
तब हँसि राधे कही मोर पच्छ्वारे हैं?
श्याम को दुराय चंद्रावलि बहराय बोली,
मोरे कैसे आइह जो तेरे पच्छवारे हैं?
लाल = पुत्र तथा रत्न, खगयान = सज्ञान, ज्ञानवान तथा पक्षी, गिरिधारी = कृष्ण तथा हनुमान, घनश्याम = कृष्ण तथा बादल, कृष्णचन्द्र = कृष्ण तथा चंद्रमा, मोर पच्छवारे = कृष्ण तथा मेरे पक्षवाले,
6. पौंरि में आपु खरे हरी हैं, बस हैं न कछू हरि हैं तो हरैवे..
वे सुनौ कीबे को है विनती, सुनो हैं बिनती तीय कोऊ बरैबे.
दीबे को ल्याए हैं माल तुम्हें, रघुनाथ ले आये हैं माल लरैबे.
छोडिये मान वे पा पकरें, कहें, पाप करें कहें अबस करैंबे.
हरि = कृष्ण तथा हारेंगे, विनती = प्रार्थना तथा बिना स्त्री के, माल = माला तथा सामान, पाप करै = पैर पकडें तथा पाप करें.
काकु वक्रोक्ति:
जब विशेष ध्वनि कंठ की, देती दूजा अर्थ.
तभी काकु वक्रोक्ति हो, समझें-लिखें समर्थ..
'सलिल' काकु वक्रोक्ति में, ध्वनित अर्थ कुछ अन्य.
करे कंठ की खास ध्वनि, जो कवि रचे अनन्य..
जहाँ पर कंठ की विशेष ध्वनि के कारण शब्द विशेष का दूसरा अर्थ ध्वनित होता है तब काकु वक्रोक्ति होती है..
उदाहरण:
1. आने को मधुमास, न आयेंगे प्रियतम!
आने को मधुमास, न आयेंगे प्रियतम?
यहाँ एक विरहिणी सखी से कहती है- बसंत आने को है प्रियतम नहीं आएंगे। दूसरी विरहिणी उन्हीं शब्दों को प्रश्नवाचक बनाकर कहती है बसंत आने को है प्रियतम नहीं आएंगे? अर्थात अवश्य आएंगे।
2. नंदन नहीं समर्थ।
नंदन नहीं समर्थ?
माँ ने कहा पुत्र समर्थ नहीं है। पिता ने अर्थ कल्पित किया पुत्र समर्थ नहीं है?अर्थात पुत्र समर्थ है।
3. देते हैं वरदान शिव भाव चाहिए मीत।
भोले को वरदान हित भाव चाहिए मीत?
एक ने कहा- शिव वरदान देते हैं किन्तु मन में भाव होना चाहिए। दूसरा बोला- भोले को भी वर देने के लिए भाव चाहिए?अर्थात नहीं चाहिए वे इतने भोले हैं कि बिना भाव भी वर दे देते हैं। यहाँ भाव चाहिए का दूसरा अर्थ भाव नहीं चाहिए कल्पित किया गया है।
4. क्यों हो रहे निराश, कह- 'हरि कष्ट न दूर करें।'
रखिए दृढ़ विश्वास, हैं हरि कष्ट न दूर करे?
कोई यह कह कर निराश है कि भगवान् कष्ट दूर नहीं करेंगे। दूसरा दिलासा देते हुए कहता है विश्वास रखो भगवान हैं तो कष्ट क्यों दूर नहीं करेंगे अर्थात अवश्य दूर करेंगे।
5. भरत भूप सियराम लषण
बन सुनि सानंद सहौंगो.
पुर परिजन अवलोकि
मातु सब सुख सानंद लहौंगो..
यहाँ पर भरतभूप, सानंद और सानंद शब्दों का उच्चारण काकुयुक्त होने से विपरीत अर्थ निकलता है.
6 .बातन लगाइ सखाँ सों न्यारो कै,
आजु गह्यो वृषभानकिशोरी.
केसरी सों तन मंजन कै दियो
अंजन आँखिन में बरजोरी..
हे रघुनाथ! कहाँ कहों कौतुक
प्यारे गोपाल बनाइ कै गोरी.
छोड़ी दियो इतनो कहि कै,
बहुरो फिरि अइयो खेलन होरी..
यहाँ 'बहुरो फिरि अइयो' में काकु ध्वनि होने के कारण अर्थ होता है कि अब कभी न आओगे.
टिप्पणी: 1. वक्रोक्ति अलंकर में वक्ता का कथन और श्रोता का प्रतिकथन दोनों अपरिहार्य हैं। प्रतिकथन में ही शब्द विशेष के अन्य अर्थ की कल्पना की जाती है। केवल वक्ता का कथन वक्रोक्ति नहीं हो सकता।
2 . वक्रोक्ति अलंकार शब्दालंकार भी होता है, अर्थालंकार भी। जब शब्द विशेष को बदलकर समानार्थी शब्द रखने पर भी अर्थ न बदले तो अर्थालंकार होगा अन्यथा शब्दालंकार।
===================
विरोधाभास अलंकार-
जब किसी कथ्य में विरोध न होते हुए भी विरोध की प्रतीति हो विरोधाभास अलंकार होता है।
उदाहरण:
1. नयनों का लावण्य मधुर सा लगता है।
लावण्य से आशय खारापन होता है. खारापन तथा मधुरता परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। वस्तुतः यहाँ विरोध नहीं है चूंकि लवण का लावण्य नहीं आँखों की लुनाई (सौन्दर्य) अभिप्रेत है। अतः, विरोध न होने पर भी विरोध का आभास होने से विरोधाभास अलंकार है।
2. सुधि आये सुधि जाये।
सुधि का जाना तथा सुधि का जाना परस्पर विरोधी क्रियाएँ प्रतीत होती है किन्तु वास्तविक अर्थ प्रिय की सुधि (याद) आने से सुध-बुध(चेतना) जाना है। अतः विरोध न होने पर भी विरोध का आभास है।
3. नयनहीन भी देख पा रहा, सुत-मिल माँ हँस रोती।
यहाँ नयनहीन के देखने तथा हँसने-रोने में परस्पर विरोध प्रतीत होता है किन्तु वस्तुतः पुत्र से बहुत समय से बिछुड़ी माँ पुत्र से मिलकर हर्षातिरेक से हँसते-हँसते आँख से आंसू बहादे और इसकी अनुभूति अंधे को भी हो तो इसमें कोई विरोध नहीं है।
4. जो देश पर मरा- जिया, न मर सका जो वह मरा।
यहाँ मरा और जिया तथा न मर सका अर्थात जिन्दा और मरा में विरोध का आभास है किन्तु देश पर शहीद के मरकर भी (यश काया से) जिन्दा रहने, और देश के काम न आनेवाले के जीते जी मारा सामान होने में कोई विरोध नहीं है।
5. युव निज रोदन में राग लिए फिरता है।
शीतल वाणी में आग लिए फिरता है।
रुदन में राग और शीतल वाणी में आग परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं पर हैं नहीं।
6. अचल दृग हो उठते चंचल।
चपल पग हो जाते अविचल।
पिघल पड़ते हैं पहन-दल।
कुलिश भी हो जाता कोमल।
7. तंत्री-नाद, कवित्त रस, सरस राग, रति-रंग।
अनबूड़े-बूड़े, तरे, जे बूड़े सब अंग।
वन्दे मातरम।
वक्रोक्ति और विरोधाभास अलंकारों पर कुछ जानकारी नीचे है। समस्या पूर्ती में प्राप्त दोहों में कहाँ कौन सा अलंकार है, खोजिए। कोइ शंका हो तो अवश्य पूछें।
वक्रोक्ति अलंकार-
जब किसी व्यक्ति के एक अर्थ में कहे गये शब्द या वाक्य का कोई दूसरा व्यक्ति जान-बूझकर दूसरा अर्थ कल्पित करे तब वक्रोक्ति अलंकार होता है। इस दूसरे अर्थ की कल्पना श्लेष या काकु द्वारा संभव होती है। वक्रोक्ति के 2 प्रकार 1. श्लेष वक्रोक्ति तथा 2. काकु वक्रोक्ति हैं।
1. श्लेष वक्रोक्ति:
वक्ता-श्रोता जब करें, भिन्न- शब्द के अर्थ.
रचें श्लेष वक्रोक्ति कवि, जिनकी कलम समर्थ..
एक शब्द के अर्थ दो, करे श्लेष-वक्रोक्ति.
श्रोता-वक्ता हों सजग, मत समझें अन्योक्ति..
श्लेष वक्रोक्ति में शब्द एक बार कहा जाता है किन्तु उसके भिन्न अर्थ भिन्न सन्दर्भों में लिए जाते हैं। जब कहनेवाला किसी शब्द का प्रयोग एक अर्थ में करे किन्तु सुननेवाला उसका दूसरा अर्थ ग्रहण करे, जहाँ पर एक से अधिक अर्थवाले शब्द के प्रयोग द्वारा वक्ता का एक अर्थ पर बल रहता है किन्तु श्रोता का दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. इसका प्रयोग केवल समर्थ कवि कर पाता है चूँकि विपुल शब्द भंडार, उर्वर कल्पना शक्ति तथा छंद नैपुण्य अपरिहार्य होता है।
'श्लेष' का अर्थ है चिपकाना- जब एक अर्थ के साथ दूसरा अर्थ चिपका हो. 'वक्रोक्ति' अर्थात कहने का विशिष्ट ढंग. कविता तभी होती है जब बात को ढंग विशेष से कहें.
उदाहरण:
1. हे गिरिजा! है भिक्षु कहाँ?
बलि द्वार गया है आज रमा !
यहाँ लक्ष्मी जी विनोद में पार्वती जी से पूछती हैं- 'हे गिरिजा! (गिरि / पर्वत द्वारा जायी / उत्पन्न = पर्वत की पुत्री) तुम्हारा भिक्षुक (भिखारी- शिव पार्वती को मांगने उसके पिता हिमाचल के पास गए थे) अर्थात शिव कहाँ हैं? पार्वती जी बिना रुष्ट हुए परिहास में उत्तर देती हैं: हे लक्ष्मी! भिखारी राजा बलि के द्वार पर गया है (विष्णु जी वामन अवतार में राजा बलि से दान 3 पग भूमि माँगी थी।)
2. पर्वतजा! पशु-पाल कहाँ है?
कमला! जमुना-तट, ले धेनु।
पुनः पारवती जी तथा लक्ष्मी जी के बीच हास-परिहास... लक्ष्मी जी ने पूछा- हे पार्वती ! पशुपाल (पशुओं के स्वामी = शिव, पशुपतिनाथ मन्दिर काठमांडू में) कहाँ हैं? पार्वती जी ने पुनः विनोद करते हुए उत्तर दिया- हे कमला! (कमल से उत्पन्न) गायों को चराने यमुना नदी के तट पर गया है। (विष्णु जी ने कृष्णावतार में यमुना नदी के किनारे गौएँ चराईं, गोपाल)
उक्त दोनों प्रत्युत्पन्न मतित्व के भी श्रेष्ठ उदहारण हैं, श्लेष तो है ही।
3. कौन द्वार पर?
राधे! मैं हरि।
क्या वानर का काम यहाँ?
यह प्रसंग राधा जी और कृष्ण जी के मध्य नौक-झोंक का है। राधा जी ने पूछ- द्वार पर कौन है? कृष्ण जी ने उत्तर दिया- राधा! मैं हरि (कृष्ण जी विष्णु = हरि के अवतार थे) हूँ। राधा जी ने जान-बूझकर अन्य अर्थ लगाकर कृष्ण जी को खिझाते हुए कहा- यहाँ वानर (पर्यायवाची हरि) का क्या काम है?
4. कौन तुम?, गोपाल राधे!
गाय ले जाओ विपिन में!
तुम्हारा घनश्याम राधे!
बरसिए सूखे विपिन में!
5. हैं री लाल तेरे? सखी ऐसी निधि पाइ कहाँ?
हैं री खगयान? कह्यों हौं तो नहीं पाले हैं?
हैं री गिरिधारी? व्हें है रामदल मांहि कहुं?
हैं री घनश्याम? कहूँ सीत सरसाले हैं?
हैं री सखी कृष्णचन्द्र? चन्द्र कहूँ कृष्ण होत?
तब हँसि राधे कही मोर पच्छ्वारे हैं?
श्याम को दुराय चंद्रावलि बहराय बोली,
मोरे कैसे आइह जो तेरे पच्छवारे हैं?
लाल = पुत्र तथा रत्न, खगयान = सज्ञान, ज्ञानवान तथा पक्षी, गिरिधारी = कृष्ण तथा हनुमान, घनश्याम = कृष्ण तथा बादल, कृष्णचन्द्र = कृष्ण तथा चंद्रमा, मोर पच्छवारे = कृष्ण तथा मेरे पक्षवाले,
6. पौंरि में आपु खरे हरी हैं, बस हैं न कछू हरि हैं तो हरैवे..
वे सुनौ कीबे को है विनती, सुनो हैं बिनती तीय कोऊ बरैबे.
दीबे को ल्याए हैं माल तुम्हें, रघुनाथ ले आये हैं माल लरैबे.
छोडिये मान वे पा पकरें, कहें, पाप करें कहें अबस करैंबे.
हरि = कृष्ण तथा हारेंगे, विनती = प्रार्थना तथा बिना स्त्री के, माल = माला तथा सामान, पाप करै = पैर पकडें तथा पाप करें.
काकु वक्रोक्ति:
जब विशेष ध्वनि कंठ की, देती दूजा अर्थ.
तभी काकु वक्रोक्ति हो, समझें-लिखें समर्थ..
'सलिल' काकु वक्रोक्ति में, ध्वनित अर्थ कुछ अन्य.
करे कंठ की खास ध्वनि, जो कवि रचे अनन्य..
जहाँ पर कंठ की विशेष ध्वनि के कारण शब्द विशेष का दूसरा अर्थ ध्वनित होता है तब काकु वक्रोक्ति होती है..
उदाहरण:
1. आने को मधुमास, न आयेंगे प्रियतम!
आने को मधुमास, न आयेंगे प्रियतम?
यहाँ एक विरहिणी सखी से कहती है- बसंत आने को है प्रियतम नहीं आएंगे। दूसरी विरहिणी उन्हीं शब्दों को प्रश्नवाचक बनाकर कहती है बसंत आने को है प्रियतम नहीं आएंगे? अर्थात अवश्य आएंगे।
2. नंदन नहीं समर्थ।
नंदन नहीं समर्थ?
माँ ने कहा पुत्र समर्थ नहीं है। पिता ने अर्थ कल्पित किया पुत्र समर्थ नहीं है?अर्थात पुत्र समर्थ है।
3. देते हैं वरदान शिव भाव चाहिए मीत।
भोले को वरदान हित भाव चाहिए मीत?
एक ने कहा- शिव वरदान देते हैं किन्तु मन में भाव होना चाहिए। दूसरा बोला- भोले को भी वर देने के लिए भाव चाहिए?अर्थात नहीं चाहिए वे इतने भोले हैं कि बिना भाव भी वर दे देते हैं। यहाँ भाव चाहिए का दूसरा अर्थ भाव नहीं चाहिए कल्पित किया गया है।
4. क्यों हो रहे निराश, कह- 'हरि कष्ट न दूर करें।'
रखिए दृढ़ विश्वास, हैं हरि कष्ट न दूर करे?
कोई यह कह कर निराश है कि भगवान् कष्ट दूर नहीं करेंगे। दूसरा दिलासा देते हुए कहता है विश्वास रखो भगवान हैं तो कष्ट क्यों दूर नहीं करेंगे अर्थात अवश्य दूर करेंगे।
5. भरत भूप सियराम लषण
बन सुनि सानंद सहौंगो.
पुर परिजन अवलोकि
मातु सब सुख सानंद लहौंगो..
यहाँ पर भरतभूप, सानंद और सानंद शब्दों का उच्चारण काकुयुक्त होने से विपरीत अर्थ निकलता है.
6 .बातन लगाइ सखाँ सों न्यारो कै,
आजु गह्यो वृषभानकिशोरी.
केसरी सों तन मंजन कै दियो
अंजन आँखिन में बरजोरी..
हे रघुनाथ! कहाँ कहों कौतुक
प्यारे गोपाल बनाइ कै गोरी.
छोड़ी दियो इतनो कहि कै,
बहुरो फिरि अइयो खेलन होरी..
यहाँ 'बहुरो फिरि अइयो' में काकु ध्वनि होने के कारण अर्थ होता है कि अब कभी न आओगे.
टिप्पणी: 1. वक्रोक्ति अलंकर में वक्ता का कथन और श्रोता का प्रतिकथन दोनों अपरिहार्य हैं। प्रतिकथन में ही शब्द विशेष के अन्य अर्थ की कल्पना की जाती है। केवल वक्ता का कथन वक्रोक्ति नहीं हो सकता।
2 . वक्रोक्ति अलंकार शब्दालंकार भी होता है, अर्थालंकार भी। जब शब्द विशेष को बदलकर समानार्थी शब्द रखने पर भी अर्थ न बदले तो अर्थालंकार होगा अन्यथा शब्दालंकार।
===================
विरोधाभास अलंकार-
जब किसी कथ्य में विरोध न होते हुए भी विरोध की प्रतीति हो विरोधाभास अलंकार होता है।
उदाहरण:
1. नयनों का लावण्य मधुर सा लगता है।
लावण्य से आशय खारापन होता है. खारापन तथा मधुरता परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। वस्तुतः यहाँ विरोध नहीं है चूंकि लवण का लावण्य नहीं आँखों की लुनाई (सौन्दर्य) अभिप्रेत है। अतः, विरोध न होने पर भी विरोध का आभास होने से विरोधाभास अलंकार है।
2. सुधि आये सुधि जाये।
सुधि का जाना तथा सुधि का जाना परस्पर विरोधी क्रियाएँ प्रतीत होती है किन्तु वास्तविक अर्थ प्रिय की सुधि (याद) आने से सुध-बुध(चेतना) जाना है। अतः विरोध न होने पर भी विरोध का आभास है।
3. नयनहीन भी देख पा रहा, सुत-मिल माँ हँस रोती।
यहाँ नयनहीन के देखने तथा हँसने-रोने में परस्पर विरोध प्रतीत होता है किन्तु वस्तुतः पुत्र से बहुत समय से बिछुड़ी माँ पुत्र से मिलकर हर्षातिरेक से हँसते-हँसते आँख से आंसू बहादे और इसकी अनुभूति अंधे को भी हो तो इसमें कोई विरोध नहीं है।
4. जो देश पर मरा- जिया, न मर सका जो वह मरा।
यहाँ मरा और जिया तथा न मर सका अर्थात जिन्दा और मरा में विरोध का आभास है किन्तु देश पर शहीद के मरकर भी (यश काया से) जिन्दा रहने, और देश के काम न आनेवाले के जीते जी मारा सामान होने में कोई विरोध नहीं है।
5. युव निज रोदन में राग लिए फिरता है।
शीतल वाणी में आग लिए फिरता है।
रुदन में राग और शीतल वाणी में आग परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं पर हैं नहीं।
6. अचल दृग हो उठते चंचल।
चपल पग हो जाते अविचल।
पिघल पड़ते हैं पहन-दल।
कुलिश भी हो जाता कोमल।
7. तंत्री-नाद, कवित्त रस, सरस राग, रति-रंग।
अनबूड़े-बूड़े, तरे, जे बूड़े सब अंग।
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot. com
http://hindihindi.in. divyanarmada
94251 83244 / 0761 2411131
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot. com
http://hindihindi.in
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.
http://hindihindi.in.
94251 83244 / 0761 2411131
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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सुस्पष्ट..
जवाब देंहटाएंआदरणीय सलिल जी अलंकारों पर आने वाली आप की आगामी पुस्तक का पहला ऑर्डर मेरे नाम से लिख लीजिएगा। ठाले-बैठे ब्लॉग अपने सहयोगियों / सहभागियों के लिए 11 पुस्तक का ऑर्डर प्लेस करता है। आवश्यकता पड़ी तो यह संख्या बढ़ भी सकती है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी मिली ... एक प्रश्न चिह्न से ही अर्थ बदल गया .... आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार तरीके से वक्रोक्ति को समझाया गया है और वक्रोक्ति तथा विरोधाभास के अंतर को भी पूरी तरह स्पष्ट किया गया है। बहुत बहुत धन्यवाद आचार्य जी को इस पोस्ट के लिए।
जवाब देंहटाएंइसी बात पर कुछ मीठा हो जाए
----------
कहाँ गए संजीव सलिल?
बाहर खेलें दोनों हिलमिल
------------------
समझ गए वक्रोक्ति।
समझ गए वक्रोक्ति?
---------------
गीला करता सूर्य, सदा सामना जो करें
जवाब देंहटाएं---वक्रोक्ति मूलतः शब्दालंकार है ...इसकी सिर्फ यही एक परिभाषा नहीं है अपितु सभी आचार्य एक दूसरे से असहमत भी हैं और कहीं कहीं सहमत भी हैं---
१.----वक्रोक्ति सिद्धान्त
वक्रोक्ति दो शब्दों वक्र और उक्ति की संधि से निर्मित शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ ऐसी उक्ति की ओर संकेत करता है जो सामान्य से अलग हो।---
२.--हिन्दी-हिन्दी शब्दकोश से हिन्दी शब्द "वक्रोक्ति" के लिए हिन्दी अर्थ
--किसी प्रकार की वक्रता से युक्त कोई चमत्कारपूर्ण उक्ति
---काकु अलंकार से युक्त उक्ति।
---साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार ? जिसमें एक अभिप्राय से कही हुई बात का काकु या श्लेष के आधार पर कुछ और ही अभिप्राय निकलता या निकाला जाता है।
---अर्थात दोनों वक्ताओं का होना एवं संवाद करना भी आवश्यक नहीं है सिर्फ चमत्कारपूर्ण उक्ति भी वक्रोक्ति होती है ....
======
सुधि आये सुधि जाय---
--सुधि = याद एवं चेतना ---= क्या यमक अलंकार नहीं है ...
दोहों की गेयता समझने में आसानी हो रही है... सादर आभार!!
जवाब देंहटाएंवक्रोक्ति और विरोधाभास में अन्तर स्पष्ट हो पा रहा है|
आपका आभार शत शत।
जवाब देंहटाएंसमर्पित एक दोहा:
हुए प्रवीण नवीन जी, सिंह गा रहे गीत।
मधु-माखन पा श्याम जू, लुटा रहे हैं प्रीत।
नवीन जी! उत्साहवर्धन हेतु नमन। प्रथम अध्याय पूर्णता की ओर है। संभवतः वर्षांत तक पूर्ण कर सकूँ। प्रकाशक की तलाश होगी। ठालेबैठे परिवार को नमन।
एक काव्यपंक्ति में एकाधिक अलंकार होना वर्जित नहीं है। ''सुधि आये सुधि जाये'' में विरोधभास, यमक तथा अनुप्रास भी है।
----सुधि आये सुधि जाय.. में अनुप्रास नहीं है क्योंकि यहाँ क्रमिक स नहीं है ..
जवाब देंहटाएं---विरोधाभास भी नहीं है ...वह जब होगा जब सुधि में यमक नहीं होगा ...अर्थात यदि दोनों सुधि का अर्थ एक ही ..याद ..लगाया जाय , तब यमक नहीं होगा ...
धन्यवाद ।।
जवाब देंहटाएंइससे हमें मदद मिली।
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