व्यंग्य - शादी के मौसम में भूषण के छंद - अरुणेन्द्र नाथ वर्मा


शादी की मौसम गर्माया हुआ है. बैंड-बाजा-बारात के धंधे के आगे अन्य हर धंधा मंदा पड़ गया है. शहर की सडकों पर बारातियों के झुंड के झुंड टिड्डी दल की तरह उमड़ पड़े हैं. गलियों के ऊपर शामियाने तने हुए हैं. बारातों से अवरुद्ध सड़कें ज़ुकाम के प्रकोप से बंद नाक की तरह न अनुलोम के लायक रह गई हैं ना विलोम के. घंटों पहले घर से निकली गृहस्वामिनी

और उनकी कॉलेज में पढने वाली पुत्री ब्यूटीशियन के ऊपर महीने भर की बचत लुटाकर प्रसन्नमना वापस आ गई हैं. ‘मान्यवर’ का जीता जागता विज्ञापन बनकर उनकी राह निहार रहे घर के पुरुष सदस्य संतोष की सांस लेते हैं. शादी के निमंत्रण पत्र में संलग्न कार्यक्रम में द्वारचार के लिए निर्धारित समय संध्या सात बजे का है. उसी के अनुसार संध्या साढ़े आठ बजे तक सब घर से निकल लेते हैं. सडकों पर बारातों की रेलम पेल झेलते हुए वे दस बजे तक शहर से बाहर फार्महाउस में बने बैंक्वेट हाल तक पहुँच ही जायेंगे. तब बारात की अगवानी और द्वारचार के लिए शायद आधे घंटे से अधिक प्रतीक्षा न करनी पड़े. 

            घर में बचे हैं दो जन. मैं और बारहवीं बोर्ड की परीक्षा में जुटी हुई मेरी पौत्री. अंग्रेज़ी फ़र्र फ़र्र बोलने वाली बेचारी अंग्रेज़ी मीडियम की छात्रा का दम हिंदी के नाम से सूखता है. उसके दुर्भाग्य से परीक्षा में पहला विषय हिंदी ही है और मुझे घर में रुककर उसकी तय्यारी करवानी है. आधुनिक काल के गद्य और पद्य से तो वह निपट लेती है लेकिन रीति काल और भक्ति काल की ब्रजभाषा और अवधी से बोझिल काव्य को उसके लिए सुगम बनाना मेरे जिम्मे है. इस समय वह वीर रस के शीर्षस्थ कवि भूषण की कविता से उलझ रही है. घर के सामने से निकल रही बारात का कोलाहल देखकर मैं उत्साहित हूँ -आज उसके सामने आडियोविजुअल प्रणाली से भूषण के छंदों के भावार्थ का खुलासा कर पाउँगा.

बालकनी में उसे बुलाकर सामने धूमधड़ाके से निकलती बरात की तरफ इंगित करता हूँ और कहता हूँ महिलाओं,  पुरुषोंतरुणों और बूढों से सजी चतुरंग बारात के शीर्ष पर सफ़ेद घोड़ी पर आसीन दूल्हे को देखो. अब अपने मन की आँखें खोलकर सोचो-

 ‘’साजि चतुरंग बीर रंग में तुरंग चढ़ीसर्जा सिवा जी जंग जीतन चलत हैं.’

उसके आगे डी जे वाले बैंड से जान की बाजी लगाकर होड़ करते पंजाबी ढोल वालों का कानफोड धमाका सुनो. उनके कोलाहल से कांपते आकाश तलेबैंड वालों के पीछे उस चमचमाती एस यू वी कार की डिकी में कुछ बंद–बंदकुछ खुला-खुला ‘’कारोबार’ अर्थात कार में सजा बार देखो. उसी की बदौलत दूल्हे के मदमस्त युवा दोस्त,  जीजाचाचू इत्यादि के हाथों में थमे जाम से छलक कर डामर की सड़क पर हो रहे छिडकाव को देखकर ऐसा लगता है मानो मतवाले हाथियों के मद से नदी नाले उफन रहे हों. इसी के विषय में भूषण कहते हैं  

‘’भूपन भनत नाद विरद नगारन केनदी-नद मद गैबरन के रलत हैं.’

इस छंद के शेष भाग

ऐल गैल खैल मैलखलक में गैलगैल/ गाजन की ठेल पेल सैल उलसत है,

तारा सो तरनी धूरी धारा में लागत जिमी,  धारा पर वारा पारावार में हिलत हैं”

 का अर्थ समझने के लिए ध्यान से देखो- कैसे अपनेआप में मगन इस बारात के पीछे रेंगती कारोंऑटो और मोटरबाइकों के ड्राइवर क्रुद्ध होकर लगातार हार्न बजाकर किसी तरह आगे निकलने को आतुर हैं. उनकी ठेलम ठेल से फुटपाथ की टाइल्स ढीली होकर हवा में उड़ रही हैं जैसे सेना के घुड़सवारों के चलने से पहाड़ों के पत्थर उड़ने लगते हैं. उधर कार के बार से बहते अमृत को छक कर उत्तेजित युवा भांगड़ा और ट्विस्ट का फ्यूजन नृत्य करते हुए अन्य उम्रदराज़ बारातियों पर ऐसे लुढ़के जा रहे हैं जैसे थाल में रखा हुआ पारा डोलता है. उनके साथ चलती ट्यूबलाइटों की लड़ी को ऊर्जान्वित करते जेनेरेटर से निकलते धुंए से सड़क के किनारे लगी हैलोजन लाइट्स भी टिमटिमाते हुए तारे जैसी दिख रही हैं.

द्वारचार का समय दो घंटे पहले का थाहुआ करे. आज वर के युवा मित्रों के ऊपर किसी का वश नहीं. उन्हें जीभर कर शायद सारी रात नाचना है. वधूपक्ष नम्र निवेदन कर रहा है कि बरात आगे बढ़ने दें ताकि अन्य अतिथि भी बारात का स्वागत कर सकें लेकिन वधूपक्ष के लोगों पर लड़के वालों का रोबदाब वैसे ही विजयी होता है जैसे इंद्रदेव जम्बासुर नामक राक्षस परअग्नि समुद्र के पानी परजंगल की आग वृक्षों पररघुकुलतिलक रामचंद्र घमंडी रावण परचीता हिरणों के झुण्ड पर और पशुओं का राजा सिंह हाथी पर सदा विजयी होता है. इसी का वर्णन भूषण ने इस छंद में किया है–

 ‘इंद्र जिमी जम्भ परबाड़व सुअंग पररावन सदम्भ पर रघुकुल राज हैं

 दावा द्रुमदंड परचीता मृग झुण्ड परभूपन वितुण्ड पर जैसे मृगराज हैं.’

बैंड बाजा और ढोल वाले भी किसी सूरत में बारात को आगे नहीं बढ़ने देना चाहतेकम से कम तब तक जब तक नाचने वाले हर बाराती के सिर के ऊपर घुमाकर सौ-सौदो-दो सौ के कड़क नोट न्योछावर करने वाली दादियाँनानियाँ और ताऊमौसा आदि कुड़क न हो जाएँ. उधर नोट न्यौछावर करने वाले भी मूर्ख नहीं. वे अपने नोट आसानी से बैंडमास्टर के हाथ में नहीं सौंप देते. सौदो सौ के नोट निछावर करने वालों की सेटिंग मोबाइल कैमरे से फोटो खींचने वाले अपनों तक सीमित है. लेकिन पांच सौ का नोट न्योछावर करने वाले चतुर दादाजीनानाजी आदि तब तक नोट से जुदा नहीं होते जब तक ऐसे नायाब फोटू उतारने के लिए ख़ास तौर पर बुलाया गया विडीयोग्राफर इशारा न कर दे कि नोट उछालने से दमकते उनके चेहरे के साथ पांच सौ वाले नोट का ज़ूम शॉट ले लिया गया है. जैसे ही यह सीन फिल्मा लिया जाता है बैंड वालों का बैंडमास्टर और ढोल वालों का अगुआ दोनों एक साथ उस नोट के ऊपर कुछ इस तरह झपटते हैं-

लागति लपकि कंठ बैरन के नागिन सी/ रुद्रहि रिझावै दे दे मुंडन की माल को.’

अर्थात जैसे वीर छत्रसाल की तलवार शत्रु के गले को नागिन की तरह लपक कर जकड लेती है और भगवान् शिव को मुंड चढ़ाकर रिझाती है उसी तरह उनकी उंगलियाँ हवा में उछाले हुए नोटों को लपक कर जकड लेती हैं और भूषण की कल्पना को जीवंत कर देती हैं.

बारात किसी तरह गंतव्य तक पहुंचती है तो वर वधू पक्ष के सम्बन्धियों का मिलन कराने वाली रसम सम्पन्न कराना भी आसान नहीं. हेड मास्टर के पद से सेवानिवृत्त बड़े फूफाजी से वरिष्ठता क्रम में पीछे लेकिन नाम के पीछे आई ए एस का पुछल्ला जोड़े छोटे फूफा जी को मिलनी की रसम में पहले बुलाकर हो हल्ले से परेशान वर के पिता भारी भूल कर बैठे हैं. बड़े फूफाजी इस अपमान को कैसे भुला सकते हैंवह आनन् फानन में रूठ जाते हैं. उनके कुपित होने का वर्णन भूषण के शब्दों में पढ़िए. अवसर है छत्रपति शिवाजी को औरंगजेब के दरबार में उचित सम्मान न देकर छहहजारी मनसबदारों की श्रेणी में खडा कर देने का

.“सबन के ऊपर ठाढ़े रहिबन के जोग ताहिखड़ो कियो जाए छः हजारन के नियरे

 जानी गैर मीसिल गुसीले गुसा धार गएकीन्हों न सलाम न बचन बोले सियरे,

तमक तें लाल मुख सिवा को निरखि भयोस्याम रंग नौरंग सियार मुख पियरे.”

शिवाजी महाराज इस अनादर से इतना कुपित हैं कि सलाम करने का शिष्टाचार भी नहीं निभाते उनका तमतमाया मुख देखकर औरंगजेब का चेहरा काला पड़ जाता है और उसके सिपाहियों के चेहरे भय से पीले पड़ जाते हैं. इधर बड़े फूफाजी के क्रोध से दमकते चेहरे को देखकर वर के पिता के मुख पर कालिमा छा जाती है और वधू पक्ष के बड़े बुजुर्गों के चेहरे अनहोनी की आशंका से पीले पड़ जाते हैं.

भूषण की कल्पना बारात के वर्णन तक ही सीमित नहीं. इस छंद को पढ़िए

-ऊंचे घोर मंदर के अन्दर रहनवारी ऊंचे घोर मंदर के अन्दर रहाती हैं,

 कंदमूल खाती ते वे कंदमूल खाती हैंतीन बेर खाती ते वे तीन बेर खाती हैं,

भूषण शिथिल अंग भूषण शिथिल अंगविजन डुलाती ते वे विजन डुलाती हैं.

 भूषन भनत शिवराज बीर तेरे त्रासनगन जड़ाती ते वे नगन जड़ाती हैं.

 भूषण अब विवाह समारोह के लिए सुसज्जित पांच सितारा होटल के बैंक्वेट हाल को छोड़ डेस्टिनेशन वेडिंग के ऊंचे ऊचे साइप्रस और युक्लिप्टस के वनों के अन्दर बने रिजोर्ट तक पहुँच जाते हैं. वहाँ ऊंचे ऊंचे महलों के अन्दर रहने वाली नारियां विवाह में सम्मिलित होने के लिए आ चुकी हैं. जबसे विवाह का निमंत्रण मिला अपने कटिप्रदेश को कमलनाल सी बनाने के उपक्रम में उनका खाना पीना बंद हो गया. जो दिन में तीन बार पैशन फ्रूटड्रैगन फ्रूट और किवी जैसे इम्पोर्टेड फल खाती थीं अब तन्वंगी बनने की लालसा में दिन में केवल तीन बेर खाने लगी हैं. उनके जो अंग आभूषणों से लदे रहते थे अब शिथिल होकर बैकलेस ब्लाउज से अधिक भारी वस्त्र पहनने के योग्य नहीं रह गए हैं. इस घोर सर्दी के मौसम में भी जब वे पश्मीने की शाल उतारकर परे रख देती हैं तो लगता है कि अब जापान यात्रा से सुवेनीर के रूप में लाये गए कलात्मक लेकिन महंगे हाथ के पंखे को नज़ाकत से डुलायेंगी लेकिन होता ये है कि सोने की असली ज़री वाली बनारसी साड़ी का पल्लू बैकलेस ब्लाउज से सायास हटाते ही अनावृत्त पीठ ठंढ से नीली पड़ने लगती है और वे कांपते हुए दांत किटकिटाती हैं.

भूषण की शिवाबावनी में अभी बहुत कुछ शेष है लेकिन बारात के कोलाहल से क्लांत होकर मैं आगे का अध्ययन कल पर टाल देता हूँ. अगली सुबह मेरी शिष्या की माँ पूछती है ‘ हिन्दी पेपर की तय्यारी कल दादू ने अच्छे से करा दी?’ वह कहती है. ‘बहुत अच्छे से! लेकिन भूषण की कविता पर कोई प्रश्न पूछा गया तो या तो टॉप करूंगी या फेल हो जाउंगी.’ और मेरी तरफ देखकर मुस्करा देती है.


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