धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन' लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन' लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

SP/2/3/9 इनको रखो सँभाल, पर्स में यादों के तुम - धर्मेन्द्र कुमार सज्जन

नमस्कार

गणतन्त्र दिवस की शुभ-कामनाएँ। वर्तमान आयोजन की समापन पोस्ट में सभी साहित्यानुरागियों का सहृदय स्वागत है। वर्तमान आयोजन में अब तक 14 रचनाधर्मियों के छन्द पढे जा चुके हैं। छन्द आधारित समस्या-पूर्ति आयोजन में 15 लोगों के डिफरेंट फ्लेवर वाले स्तरीय छन्द पढ़ना एक सुखद अनुभव है। आज की पोस्ट में हम पढ़ेंगे भाई धर्मेन्द्र कुमार सज्जन जी के छन्द :-

हम सब मिलजुल कर चले, हिलने लगी ज़मीन
सिंहासन खाली हुये, टूटे गढ़ प्राचीन
टूटे गढ़ प्राचीन, मगर यह लक्ष्य नहीं है
शोषण वाला दैत्य आज भी खड़ा वहीं है
कह ‘सज्जन’ कविराय, नहीं बदला गर ‘सिस्टम’
बिजली, पानी, अन्न, कहाँ से लायेंगे हम

तुम से मिलकर हो गये, स्वप्न सभी साकार
अपने संगम ने रचा, नन्हा सा संसार
नन्हा सा संसार, जहाँ ग़म रहे खुशी से
सुन बच्चों की बात, हवा भी कहे खुशी से
ये पल हैं अनमोल, न होने दो यूँ ही गुम
इनको रखो सँभाल, पर्स में यादों के तुम

‘मैं’ ही ने मुझको रखा, सदा स्वयं में लीन
हो मदान्ध चलता गया, दिखे न मुझको दीन
दिखे न मुझको दीन, दुखी, भूखे, प्यासे जन
सिर्फ़ कमाना और खर्च करना था जीवन
कह ‘सज्जन’ कविराय, मरा मुझमें तिस दिन ‘मैं’
लगा मतलबी और घृणित, मुझको जिस दिन ‘मैं’

धर्मेन्द्र भाई साहित्य की अनेक विधाओं में अपने मुख़्तलिफ़ अंदाज़ के साथ मौजूद हैं। आप की ग़ज़लें हों या आप की कविताएँ या फिर आप के नवगीत, हर विधा में अपनी उपस्थिति का आभास कराते हैं धर्मेन्द्र भाई। “कह ‘सज्जन’ कविराय, नहीं बदला गर ‘सिस्टम’। बिजली, पानी, अन्न, कहाँ से लायेंगे हम” कितनी सच्ची बात है और वह भी कितनी आसानी के साथ, बधाई आप को। ‘”जहाँ ग़म रहे खुशी से” “पर्स में यादों के” “सिर्फ़ कमाना और खर्च करना था जीवन ..... वाह वाह वाह ..... छन्द कब से अपने इस पुरातन फ्लेवर की बाट जोह रहे हैं।

बहुत ही ख़ुशी की बात है कि वर्तमान आयोजन सहज-सरस-सरल और सार्थक वाक्यों / मिसरों की अहमियत बताने और उन के विभिन्न उदाहरण हमारे सामने रखने में क़ामयाब हुआ। इस आयोजन के सभी रचनाधर्मियों को इस क़ामयाबी के लिये बहुत-बहुत बधाई और इच्छित कार्य को परिणाम तक पहुँचाने के लिये बहुत-बहुत आभार।

समय-समय पर विभिन्न विद्वान साथियों / आचार्यों / पुस्तकों / अन्तर्जालीय आलेखों से प्राप्त जानकारियाँ आप सभी के साथ बाँटी हैं और आशा है “सरसुति के भण्डार की बड़ी अपूरब बात। ज्यों-ज्यों खरचौ, त्यों बढ़ै, बिनु खरचें घट जात॥“ वाले सिद्धान्त का अनुसरण करते हुये आप सब लोग भी इन बातों को अन्य व्यक्तियों तक अवश्य पहुँचाएँगे।

वर्तमान आयोजन यहाँ पूर्णता को प्राप्त होता है। धर्मेन्द्र भाई के छन्द आप को कैसे लगे अवश्य ही लिखियेगा।

विशेष निवेदन :- इस पोस्ट के बाद वातायन पर शिव आधारित छंदों, ग़ज़लों, कविताओं, गीतों, आलेखों वग़ैरह का सिलसिला शुरू करने की इच्छा हो रही है। यदि यह विचार आप को पसन्द आवे तो प्रकाशन हेतु सामाग्री  navincchaturvedi@gmail.com पर भेज कर अनुग्रहीत करें।  


नमस्कार....... 

SP2/2/14 दूध पिलाती मातु से, पति ने माँगा प्यार - धर्मेन्द्र कुमार सज्जन



नमस्कार

वर्तमान आयोजन की समापन पोस्ट में आप सभी का सहृदय स्वागत है। जिन लोगों ने मञ्च की मर्यादा को बनाये रखते हुये रचनाधर्मियों का निरन्तर उत्साह-वर्धन किया उन सभी का विशेष आभार। 

दरअसल हमारे घर जब कोई पहलेपहल आता है तो हमारा फर्ज़ बनता है कि न सिर्फ़ हम उस का तहेदिल से ख़ैरमक़्दम करें बल्कि उस पहली भेंट में हम उस आगन्तुक यानि अपने गेस्ट को ही वरीयता दें, उस पर अपने आप को या अपनी पोजीशन को या अपनी विद्वत्ता [?] को न थोपें। यही बात मञ्च के सन्दर्भ में भी लागू होती है, परन्तु सच्चे गुणी लोग ही इस बात को जानते हैं। तो दोस्तो पिछली पोस्ट से इस समापन पोस्ट के बीच के गेप के दो कारण रहे – पहला तो यह कि हमारे धर्मेन्द्र भाई के घर कुछ समय पूर्व पुत्र-रत्न का आगमन हुआ है सो वह दोहों के लिये कम समय निकाल पाये ठीक वैसे ही जैसे साल भर न पढ़ने वाला विद्यार्थी एक्जाम आने पर एक दम से हड़बड़ा कर उठ बैठता है और पढ़ाई करने जुट जाता है, वैसे ही; और दूसरा पिछले दिनों मेरी व्यस्तता। ख़ैर अब हम दौनों समापन पोस्ट के साथ आप के दरबार में उपस्थित हैं। पहले दोहों को पढ़ते हैं :-

हर लो सारे पुण्य पर, यह वर दो भगवान
“बिटिया के मुख पे रहे, जीवन भर मुस्कान”

नयन, अधर से चल रहे, दृष्टि-शब्द के तीर
संयम थर-थर काँपता, भली करें रघुवीर

आँखों से आँखें लड़ीं, हुआ जिगर का खून
मन मूरख बन्दी बना, अजब प्रेम-कानून

कार्यालय में आ गई, जबसे गोरी एक
सज धज कर आने लगे, “सन-सत्तावन मेक”

याँ बादल-पर्वत भिड़े, वाँ पानी-चट्टान
शक्ति प्रदर्शन में गई, मजलूमों की जान

उथल-पुथल करता रहा, दुष्ट-कुकर्मी ताप
दोषी कहलाते रहे, पानी, हिम अरु भाप

विशेष दोहा:

दूध पिलाती मातु से, पति ने माँगा प्यार
गुस्से में बोली - "तनिक, संयम रख भरतार"


बिटिया वाले पहले दोहे से ताप वाले आख़िरी दोहे तक धर्मेन्द्र भाई जी ने कमाल किया है भाई कमाल। पर सन-सत्तावन मेक वाले दोहे को पढ़ कर लगता है कि अब इन्हें अपना तख़ल्लुस सज्जन से बदल कर कुछ और कर लेना चाहिये। धरम प्रा जी मुझे इस आयोजन में राजेन्द्र स्वर्णकार जी की कमी बहुत खलती है, आप ने थोड़ा सा ही सही पर उस कमी को पूरा करने का प्रयास किया इस 'सन सत्तावन मेक' के माध्यम से। राजेन्द्र भाई आप की शिकायत पूरी तरह से दूर नहीं कर पाया हूँ, पर उस रास्ते पर चल तो पड़ा हूँ। हम लोग एक बार फिर से मञ्च के पुराने दिनों को वापस ले आयेंगे, पर यह सब आप सभी के बग़ैर न हो सकेगा।

विशेष दोहा पर धर्मेन्द्र भाई का प्रयास सार्थक और सटीक है। काव्य में दृश्य उपस्थित हो, वह दृशय सहज ग्राह्य हो और मानकों का यथा-सम्भव अनुपालन करता हो; तब उसे सटीक के नज़दीक माना जाता है।  मुझे धर्मेन्द्र जी का यह विशेष दोहा सटीक के काफ़ी क़रीब प्रतीत होता है। 'दूध पिलाती मातु' - वात्सल्य रस, 'से पति ने माँगा प्यार' - शृंगार रस और 'गुस्से से बोली, तनिक संयम रख भरतार' - रौद्र रस। सरल शब्दों में कहें तो कवि ने एक ऐसा आसान दृश्य हमारे सम्मुख रख दिया है जो हम लोगों की रोज़-मर्रा की ज़िन्दगी / स्मृति के हिस्से जैसा है और आसानी से हम उसे ग्रहण भी कर पा रहे हैं। विद्वतजन उपरोक्त तीन बातों को ध्यान में रखते हुये अवश्य ही इस विलक्षण दोहे की तह में जा कर मीमांसा करें, पर हाँ छिद्रान्वेषण नहीं..............चूँकि छिद्रान्वेषणों के चलते ही मञ्च के कई पुराने साथी किनारा कर गये हैं। वह ज्ञान जो हम से हमारा आनन्द छीन ले - हमारे किस काम का?? मञ्च ने अब तक किसी को न तो ब्लॉक किया है और न ही कमेण्ट्स को मोडरेट किया है, आशा करता हूँ आगे भी यह सब करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

भाई सौरभ पाण्डेय जी के सुझाव के अनुसार हम अगली पोस्ट में आलोचना और चन्द्र बिन्दु पर चर्चा करेंगे। तब तक आप धरम प्रा जी के दोहों का आनन्द लीजिये और अपने सुविचारों को व्यक्त कीजिये।

प्रणाम

SP/2/1/6 आज भोर का स्वप्न है, हुई गरीबी दूर - धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
एक कहानी सुनने में आती है - एक चित्रकार ने सुंदर सी तस्वीर बना कर नगर चौक में रखी और उस पर लिख दिया कि भाई जिसे भी इस तस्वीर में कमी दिखे वह व्यक्ति उस कमी पर सर्कल बना दे। अगले दिन क्या देखता है कि तस्वीर पर सर्कल ही सर्कल। बड़ा ही हताश हुआ, पर हिम्मत नहीं हारी। फिर से तस्वीर बनाई, फिर से नगर चौक पर रखी, पर अब के लिखा जिस भी व्यक्ति को इस तस्वीर में कमी दिखे, उसे सुधार दे। ग़ज़ब हो गया भाई। किसी को नाक छोटी लगी तो उस ने स्केच से नीचे की तरफ खींच दी, किसी को ओंठ छोटे लगे तो उस ने स्केच से ऊपर-नींचे-लेफ्ट-राइट खींचते हुये बड़े कर दिये। आप अनुमान लगा सकते हैं कि क्या हालत हुई होगी उस तस्वीर की! शायद उसे लिखना चाहिए था कि जिस भी व्यक्ति को ये तस्वीर कमतर लगे, ख़ुद अपनी तरफ़ से बेहतर और त्रुटि-विहीन तस्वीर पेश करे। सही है न? ख़ैर। 

कल संजय मिश्रा हबीब जी ने हर बिन्दु पर तीन-तीन दोहे लिख कर भेजे हैं। निस्संदेह अच्छा काम है फिर भी मंच ने उन से निवेदन किया है कि 2-3 दिन का ब्रेक ले कर फिर से इन दोहों का पोस्ट मारटम ख़ुद कर के देखें। धर्मेन्द्र कुमार सज्जन इस प्रक्रिया से आलरेडी गुजर चुके हैं। आइये आगे बढ़ते हैं धर्मेन्द्र कुमार सज्जन जी के दोहों के साथ।

विज्ञान के आगे चले ये हो कसौटी काव्य की

साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

पिछला हफ़्ता तो पूरा का पूरा दिवाली के मूड वाला हफ़्ता रहा| रियल लाइफ हो या वर्च्युअल, जहाँ देखो बस दिवाली ही दिवाली| शुभकामनाओं का आदान प्रदान, पटाखे और मिठाइयाँ| उस के बाद भाई दूज, बहनों का स्पेशल त्यौहार| इस सब के चलते हम ने पोस्ट्स को एक बारगी होल्ड पर रखा और इसी दरम्यान अष्ट विनायक दर्शन को निकल लिए|

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - होंठ जैसे शहद में, पंखुड़ी गुलाब की हो

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


घनाक्षरी छन्द पर आयोजित चौथी समस्या पूर्ति के इस सातवें चक्र में भी पढ़ते हैं एक इंजीनियर कवि को| इंजीनियर होने के नाते शब्दों की साज़-सज्जा काफ़ी बेहतरीन किस्म की करते हैं ये| छन्दों के प्राचीन प्रारूप को सम्मान देते हैं और नई-नई बातों को बतियाते हैं| आइए पढ़ते हैं इन के द्वारा भेजे गये छन्द:-





देवरानी मोबाइल, ले कर है घूम रही,
भतीजी ने सूट लिया, दोनों मुझे चाहिये|

सासू जी ने खुलवाया, नया खाता बचत का,
और ज्यादा नहीं मेरा, मुँह खुलवाइये|

ऐश सब कर रहे, हम यहाँ मर रहे,
बोल पड़ा मैं तुरंत, चुप रह जाइये|

सब अपने ही लोग, रहें खुश चाहता मैं,
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||

[एकता कपूर उर्फ छोटे पर्दे की दादी अम्मा और टी. वी. महारानी की इस युग की विशेष
मेहरबानी रूप घर घर की कहानी कैसे कैसे गुल खिला रही है - इस का बहुत ही अच्छा
उदाहरण देखने को मिलता है इस छन्द में| छंदों को जन-मानस से जुडने के लिए
उन की बातें बतियाना बहुत जरूरी है]


आँख जैसे रोशनाई डल-झील में गिरी हो,
गाल जैसे गेरू कुछ दूध में मिलाया है|

केश तेरे लहराते जैसे काली नागिनों को,
काले नागों ने पकड़, अंग से लगाया है|

होंठ जैसे शहद में, पंखुड़ी गुलाब की हो,
पलकों ने बोझ, सारे - जहाँ का उठाया है|

कोई उपमान नहीं, तेरे इस बदन का,
देख तेरी सुंदरता चाँद भी लजाया है||

[रूपक व उपमा जैसे अलंकारों से सुसज्जित इस छन्द की जितनी तारीफ की जाए कम है|
डल-झील, गेरू-दूध के अलावा पलकों ने सारा बोझ वाली बातों के साथ यह घनाक्षरी
किस माने में किसी रोमांटिक ग़ज़ल से कम है भाई? आप ही बोलो...]


सूखा-नाटा बुड्ढा देखो, चला ब्याह करने को,
तन को करार नहीं, मन बेकरार है|

आँख दाँत कमजोर, पाजामा है बिन डोर,
बनियान हर छोर, देखो तार-तार है|

सरकता थोड़ा-थोड़ा, मरियल सा है घोडा,
लगे ज्यों गधा निगोड़ा, गधे पे सवार है|

जयमाल होवे कैसे, सीढ़ी हेतु हैं न पैसे,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||

[करार-बेकरार, कमजोर-बिन डोर-हर छोर, थोड़ा-घोड़ा-निगोड़ा और कैसे-जैसे शब्द प्रयोगों
के साथ आपने अनुप्रास अलंकार की जो छटा दर्शाई है, भाई वाह| जियो यार जियो]

============================


और अब बारी है उस छन्द की जिस का मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार था| श्लेष अलंकार को लक्ष्य कर के आमंत्रित इस छंद में कवि ने 'नार' शब्द के जो दो अर्थ लिए हैं वो हैं [१] गर्भनाल, और [2] कमलनाल| छन्द क्यों विशेष लगा इस बारे में बाद में, पहले पढ़ते हैं इस छन्द को|


'पोषक' ये खींचती है, तन को ये सींचती है,
द्रव में ये डूबी रहे, किन्तु कभी गले ना|

जोड़ कर रखती है, जच्चा-बच्चा एक साथ,
है महत्वपूर्ण, किन्तु - पड़े कभी गले ना|

जब तक साथ रहे, अंग जैसी बात रहे,
काट कर हटा भी दो, तो भी इसे खले ना|

पहला-पहला प्यार, दोनों पाते हैं इसी से,
'शिशु' हो या हो 'जलज', "नार" बिन चले ना||

[अब देखिये क्या खासियत है इस छन्द की| पहले आप इस पूरे छन्द को (आखिरी चरण
को छोड़ कर) गर्भनाल समझते हुए पढ़िये, आप पाएंगे - कही गई हर बात इसी अर्थ का
प्रतिनिधित्व कर रही है|दूसरी मर्तबा आप इसी छन्द को कमलनाल के बारे में समझते
हुए पढ़िये, आप पाएंगे यह छन्द कमलनाल के ऊपर ही लिखा गया है| यही है जादू
इस विशेष पंक्ति वाले छन्द का| इस प्रस्तुति के पहले वाले छन्द भी श्लेष पर हैं,
पर यह छन्द पूरी तरह से सिर्फ एक शब्द के अर्थों में ही भेद करते हुए श्लेष का
जादू दिखा रहा है| इसके अलावा इस छन्द में एक और चमत्कार है| 'गले ना'
शब्द प्रयोग दो बार है| एक बार उस का अर्थ है 'गर्भनाल / कमलनाल द्रव
में रहते हुए भी गलती नहीं है', और दूसरा अर्थ है 'गले नहीं पड़ती'|
है ना चमत्कार, यमक अलंकार का? इस अद्भुत प्रस्तुति
के लिए धर्मेन्द्र भाई को बहुत बहुत बधाई]

जय हो दोस्तो आप सभी की और अनेकानेक साधुवाद आप लोगों के सतप्रयासों हेतु| धर्मेन्द्र भाई के छंदों का आनंद लीजिये, टिप्पणी अवश्य दीजिएगा| जिन कवि / कवियात्रियों के छन्द अभी प्रकाशित होने बाकी हैं, यदि वो उन में कुछ हेरफेर करना चाहें, तो यथा शीघ्र करें| जिन के छन्द प्रकाशित हो चुके हैं, वो फिर से छन्द न भेजें|

जय माँ शारदे!

तीसरी समस्या पूर्ति - कुण्डलिया - दूसरी किश्त

सभी साहित्य रसिकों का एक बार फिर से सादर अभिवादन| कुंडली छंद तो वाकई सब की पहली पसंद लग रहा है| कई सारे रचनाधर्मियों ने अपने कुण्डलिया छंद भेजे हैं| उन में से कुछ ने उन छन्दों को बदलने की खातिर रुकने के लिए आज्ञा भी दी है|

नई पीढी का इस आयोजन से जुड़ना और जुड़े रहना हमारे लिए गर्व की बात है| आइये आज पढ़ते हैं दो नौजवान कवियों को| नया खून है तो नया जोश और नयी सोच ले कर आये हैं ये दौनों साहित्य रसिक|
==========================================================

[१]
सुंदरियाँ जब जब हँसैं, बिजुरी भी शरमाय|
देख गाल की लालिमा, ईंट खाक हुइ जाय||
ईंट खाक हुइ जाय, आग लागै छानी में|
मछरी सब मरि जाँय, खेल जो लें पानी में|
कह ‘सज्जन’ कविराय, चलें जियरा पर अरियाँ|
नागिन सी लहरायँ, कमर जब भी सुंदरियाँ||
[मार डाला पापड वाले को यार धर्मेन्द्र भाई]

[२]
भारत की चिरकाल से, बड़ी अनूठी बात|
दुश्मन खुद ही मिट गए, काम न आई घात||
काम न आई घात, पाक हो चाहे लंका|
बजा दिया है आज, जगत में अपना डंका|
कह ‘सज्जन’ कविराय अहिंसा से सब हारत|
करते जाओ कर्म, सदा सिखलाता भारत||
[सौ फीसदी सही है बन्धु]

[३]
कम्प्यूटर का हाल भी, घरवाली सा यार|
दोनों ही चाहें समझ, दोनों चाहें प्यार||
दोनों चाहें प्यार बात दुनिया ना समझी|
दिखा रहे सब रोज यहाँ, अपनी नासमझी|
कह सज्जन कविराय, समझ औ’ प्रेम रहें गर|
सुख दुख में दें साथ, सदा भार्या कम्प्यूटर||
[ऐसा क्या!!!!!!!!!]
:- धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'
==========================================================

[१]
सुंदरियाँ बहका रही, फेंक रूप का जाल |
इनके जलवे देख कर लोग होंय खुशहाल||
लोग होंय खुशहाल, वाह रे क्या माया है |
देह दिखा कर नाम कमाना रँग लाया है ||
कह "शेखर" कविराय, हुस्न छलकातीं परियाँ|
इंजन आयल बेच रहीं देखो सुंदरियाँ ||
[सुंदरियाँ और इंजन ओयल की सेल........भाई वाह]

[२]
भारत मेरा देश है इस पर मुझको नाज़ |
सबही ने मिलकर करी, इसकी दुर्गति आज ||
इसकी दुर्गति आज, हो रही संस्कृति धूमिल |
लुटती हैं मरजाद , देखकर तडपे है दिल ||
कह "शेखर" कविराय, बचा लो मित्र विरासत |
फिर से हो सिरमौर, विश्व में अपना भारत ||
[आमीन]
:- शेखर चतुर्वेदी
==========================================================
दौनों कवि बन्धु बहुत बहुत बधाई के पात्र हैं| आप सभी से प्रार्थना है कि आशीर्वाद देते हुए इन की हौसला अफजाई करें| ये ही वो पीढ़ी है जो छन्दों की विरासत को अगली पीढ़ी तक पहुचायेगी|

एक और ख़ुशी की बात है कि इस मंच पर प्रकाशित रचनाओं के पाठकों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की जा रही है| कितना अच्छा हो - यदि पाठक वृन्द अपने टिप्पणी रूपी पुष्पों की वर्षा भी करें| आप सभी इन पांच कुंडली छन्दों का अनंद लीजिये, तब तक हम अगली पोस्ट की तैयारी करते हैं| इस आयोजन संबन्धित अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें|

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - आचार्य सलिल जी और धर्मेन्द्र कुमार [३-४]

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

पूर्णिमा जी और निर्मला जी के दोहों का आनंद लेने के बाद अब हम पढ़ते हैं दो और सरस्वती पुत्रों को|


आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी को हम लोगों ने पहली समस्या पूर्ति में भी पढ़ा है| अपने ब्लॉग दिव्य नर्मदा के माध्यम से आप अनवरत साहित्य की सेवा कर रहे हैं|

होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ, मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मनता रहे, होली का त्यौहार
नैन झुके .........वाह आचार्य जी आपने तो बिहारी जी की याद ताजा करा दी - कहत, नटत, रीझत, खिझत वाली|




दूसरी प्रस्तुति है भाई धर्मेन्द्र कुमार सज्जन की| आपके ब्लॉग "कल्पना लोक'' में हम लोग पहले भी विचरण कर चुके हैं| इस बार की समस्या पूर्ति के विधान का पूर्ण रूपेण पालन करते हुए, एक नया प्रयोग करते हुए उन्होंने एक लघु काव्य नाटिका भेजी है| आप भी पढियेगा|

नायक:
रँगने को बेचैन हैं, तुझको लोग हजार
किसकी किस्मत में लिखा, जाने तेरा प्यार

नायिका:
क्षण भर चढ़ कर जो मिटे, ऐसा रँग बेकार
सात जनम का साथ दे, वही रंग तन मार

नायक:
बदन रँगा ना प्रेम रँग, तो जीवन है भार
कोशिश तो कर तू सखी, खड़े खड़े मत हार

नायिका:
बदन रँगा तो क्या रँगा, मन को रँग दे यार
मौका भी दस्तूर भी, होली का त्यौहार

आचार्य जी तो खैर हैं ही अपनी विद्या के पारंगत विद्वान्| इस बार तो धर्मेन्द्र भाई ने भी अभिनव प्रयोग प्रस्तुत कर हमें चौका दिया है|


अब आप की बारी हैं इन दोहों पर प्रशंसा के पुष्पों की वर्षा करने की| आपके दोहों की प्रतीक्षा है| जानकारी वाली लिंक एक बार फिर रेडी रिफरेंस के लिए:- समस्या पूर्ति: दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - घोषणा|

पहली समस्या पूर्ति - चौपाई - धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन' जी [3]

पहली समस्या पूर्ति - चौपाई - धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन' जी

सम्माननीय साहित्य रसिको

आइए आज पढ़ते हैं मित्र धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन' जी को| आप की 'सज्जन की मधुशाला' [http://sajjankimadhushala.blogspot.com] ने काफ़ी प्रभावित किया है| आपका कल्पना लोक {http://dkspoet.blogspot.com] भी काफ़ी रुचिकर है| आइए पढ़ते हैं कि समस्या पूर्ति की पंक्ति 'कितने अच्छे लगते हो तुम' को कितने प्रभावशाली और रोचक ढँग से पिरोया है आपने अपने कथ्य में|

नन्हें मुन्हें हाथों से जब ।
छूते हो मेरा तन मन तब॥
मुझको बेसुध करते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम |१|

रोम रोम पुलकित करते हो।
जीवन में अमृत भरते हो॥
जब जब खुलकर हँसते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम |२|

पकड़ उँगलियाँ धीरे धीरे।
जब जीवन यमुना के तीरे|
'बाल-कृष्ण' से चलते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।३|

देर से आने वाले साहित्य रसिकों को फिर से बताना चाहूँगा कि:-

समस्या पूर्ति की पंक्ति है : - "कितने अच्छे लगते हो तुम"

छंद है चौपाई
हर चरण में १६ मात्रा

अधिक जानकरी इसी ब्लॉग पर उपलब्ध है|


सभी साहित्य रसिकों का पुन: ध्यनाकर्षण करना चाहूँगा कि मैं स्वयँ यहाँ एक विद्यार्थी हूँ, और इस ब्लॉग पर सभी स्थापित विद्वतजन का सहर्ष स्वागत है उनके अपने-अपने 'ज्ञान और अनुभवों' को हम विद्यार्थियों के बीच बाँटने हेतु| इस आयोजन को गति प्रदान करने हेतु सभी साहित्य सेवियों से सविनय निवेदन है कि अपना अपना यथोचित योगदान अवश्य प्रदान करें| अपनी रचनाएँ navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें|