दोहे - डॉ. अवधी हरि

 


होने देते युद्ध क्याकभी कृष्ण भगवान। 

बात, बात से मानते, अगर दुष्ट इन्सान।।

 

नहीं थोपना चाहिए, अपना कहीं महत्व।

लाख हमारा हो कहीं, प्रेम और अपनत्व।।

 

सोच भले अपनी रखें, कितनी आप नवीन।

पर, अच्छे लगते सदा, संस्कार प्राचीन।।

 

अकड़ और अभिमान हैं, बड़े मानसिक रोग।

किन्तु समझ पाते नहीं, इसे अभागे लोग।।

 

आख़िर ऐसा क्या हुआ, जो जानवर समान।

अन्न ग्रहण करने लगा, खड़े-खड़े इन्सान।।

 

मन है उपवन की तरह, जिसके बीज विचार।

आप उगाएँ फूल या, इसमें खरपतवार।।

 

पत्थर-हिंसक जानवर, प्रेमरहित इन्सान।।

सोचो तो हैं फ़ितरतन, तीनों एक समान।।

 

स्वयं हमारी सोच में, जीत-हार का सार।

ठान लिया तो जीत है, मान लिया तो हार।।

 

बिल्कुल मकड़ी की तरह, निन्दक भी नादान।

दोनों अपने जाल में, फँसते एक समान।।

 

मन से जितने ही अधिक, दूर रखेंगे पाप।

उतने ही भगवान के, निकट रहेंगे आप।।


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