सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
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इस पोस्ट में एक विशेष घोषणा भी है, जिसे पढ़ना न भूलें
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यह पोस्ट दो दिन लेट है| इस बार हम औडियो क्लिप्स भी देना चाह रहे थे, इसलिए देरी हो गयी| इस बार की पोस्ट में आप घनाक्षरी छंदों को सुन भी सकते हैं| हम सब के चहेते तिलक राज कपूर जी ने अपनी आवाज में उन के छंदों को रिकार्ड कर के भेजा है और रविकान्त भाई के छंदों को मैंने अपनी आवाज में रिकार्ड किया है| अंतर्जाल पर यह मेरा पहला प्रयास है, और इस प्रयास पर आप लोगों के सुझावों का सहृदय स्वागत है|
तो आइये पहले हम पढ़ते हुए सुनते हैं तिलक राज जी के छंदों को|
तो आइये पहले हम पढ़ते हुए सुनते हैं तिलक राज जी के छंदों को|
तेरा-मेरा, मेरा-तेरा, बातें हैं बेकार की ये,
आप भी समझिये, उसे भी समझाइये|
वाद औ विवाद से, न सुलझा है कभी कुछ,
प्यार को बनाये रखे, 'हल' अपनाइये|
छोटी छोटी बातें बनें, बड़े-बड़े मतभेद,
छोड़ इन्हें पीछे, कहीं, आगे बढ़ जाइये|
ज्ञानीजन-गुणीजन, सभी ने बताया हमें,
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||
[शायरी करने वाले लोग बखूबी जानते हैं ऊला और सानी का क्या और क्यों महत्व होता है|
थोड़ा स्पष्ट कर दें, घनाक्षरी के पहले दो चरण विषय को उपस्थित करते हैं, फिर तीसरा
चरण विषय को तान देता है और चौथा वाला चरण 'सटाक' की आवाज के साथ
न सिर्फ छन्द समापन करता है बल्कि उक्त विषय पर निष्कर्ष भी दे देता है|
यहाँ गिरह बाँधने वाली बात भी खास महत्व रखती है]
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तिलक भाई के आदेशानुसार इस छन्द के साथ फोटो भी जोड़ा गया है
नयना हैं कजरारे, केश घटा ने सँवारे,
वक्ष कटि से कटा रे, कलियों सी काया है|
गोरे गाल तिल धारे, अधर गुलाब प्यारे,
इन्द्र की सभा से तुझे कौन खींच लाया है|
अधर अधीर कहें, बड़े ही जतन कर,
काम के लिए रति ने तुझको सजाया है|
इन्द्र की सभा से तुझे कौन खींच लाया है|
अधर अधीर कहें, बड़े ही जतन कर,
काम के लिए रति ने तुझको सजाया है|
बदली की ओट से निहारता कनखियों से,
देख तेरी सुंदरता, चाँद भी लजाया है||
['कनखियों से'............... नीरज भाई की स्टाइल में बोले तो आप तो उस जमाने में
पहुँचे ही, हम सभी को भी दशकों पीछे ले गए हो भाई साब| हाए हाए हाए,
वो कनखियों वाला किस्सा आप के साथ भी रहा है,
पता नहीं था हमें!!!!!!!!!!]
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हमने भी सोचा, चलो - उस से ही शादी करें,
जिस पे फिदा ये सारा, नगर-बाज़ार है|
अम्मा-बापू-भाई-भाभी, कोई नहीं माना कभी,
सब को लगा कि छोटा-मोटा ये बुखार है|
उस को निहारते थे, खिड़की के तले खड़े,
लोग हमें कहते थे इश्क़ का बीमार है|
घोड़ी पर चढ़ कर, उसे देखा, जाना तभी,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||
[क्या बात करते हैं............. आप भी.........!!!!! फिर क्या हुआ? कैसे पिण्ड छूटा?
या अभी भी उस रोग से ग्रस्त हैं आप भाई साब? चलो अब इस घनाक्षरी
को जो एक बार भी पढ़ लेगा, खिड़की के अंदर जा कर डिटेल में
जरूर देखेगा, मान्यवर]
और अब पढ़ते हैं उन्हें - जो छंदों से प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं| श्लेष अलंकार वाली विशेष पंक्ति पर आपने एक नहीं दो-दो छन्द, और वो भी दो प्रकार के प्रयोगों के साथ प्रस्तुत किए हैं| मैंने इन छंदों को अपनी आवाज में रिकार्ड किया है, आशा है आप लोग मेरी आवाज की खराश को नज़र अंदाज़ कर देंगे|
:- रविकान्त पाण्डेय
पहला प्रयोग - अभंग श्लेष अलंकार
निज-निज प्रकृति के, सब अनुसार चलें,
विषम का किए प्रतिकार बिन चले ना|
बिन पुरुषार्थ कुछ, प्राप्त नहीं होता कभी,
ध्रुव सत्य बात ये स्वीकार बिन चले ना|
कुछ नहीं पूर्ण यहाँ, सब को तलाश कुछ,
नाव कोई जैसे पतवार बिन चले ना|
शिष्य को न नींद आए, मछली को शोक भारी,
पुरुष संताप ग्रस्त - 'नार' बिन चले ना||
[इस छन्द में रवि जी ने 'नार' शब्द के तीन अर्थ लिए हैं [१] ज्ञान [२] पानी और [३] स्त्री|
अभंग श्लेष का अर्थ होता है कि दिये / लिए गए शब्द को जैसे का तैसे ही लेना]
दूसरा प्रयोग - सभंग श्लेष अलंकार
प्रेम बिन रिश्तों वाली, गाड़ी नहीं चलती है,
पहला प्रयोग - अभंग श्लेष अलंकार
निज-निज प्रकृति के, सब अनुसार चलें,
विषम का किए प्रतिकार बिन चले ना|
बिन पुरुषार्थ कुछ, प्राप्त नहीं होता कभी,
ध्रुव सत्य बात ये स्वीकार बिन चले ना|
कुछ नहीं पूर्ण यहाँ, सब को तलाश कुछ,
नाव कोई जैसे पतवार बिन चले ना|
शिष्य को न नींद आए, मछली को शोक भारी,
पुरुष संताप ग्रस्त - 'नार' बिन चले ना||
[इस छन्द में रवि जी ने 'नार' शब्द के तीन अर्थ लिए हैं [१] ज्ञान [२] पानी और [३] स्त्री|
अभंग श्लेष का अर्थ होता है कि दिये / लिए गए शब्द को जैसे का तैसे ही लेना]
दूसरा प्रयोग - सभंग श्लेष अलंकार
प्रेम बिन रिश्तों वाली, गाड़ी नहीं चलती है,
घनघोर युद्ध, हथियार बिन चले ना|
वन-वन डोल-डोल मृग यही कहता है,
लगे प्यास जब, जलधार बिन चले ना|
आभूषण कितने भी सुंदर हों बंधु, पर,
स्वर्ण की दुकान तो 'सु-नार' बिन चले ना|
लाख हों हसीन मोड, इस की कहानी बीच,
जीवन का मंच सूत्रधार बिन चले ना||
[इस प्रयोग में रवि जी ने 'नार' शब्द को 'सु' से जोड़ कर दो भिन्न अर्थ उत्पन्न किए गए
हैं| यही होता है सभंग श्लेष अलंकार| यहाँ एक पंक्ति में कवि कह रहा है दो बातें-
हैं| यही होता है सभंग श्लेष अलंकार| यहाँ एक पंक्ति में कवि कह रहा है दो बातें-
जैसे कि [१] स्वर्ण की दुकान सुनार के बिना नहीं चलती| दूसरे अर्थ के साथ
[२] स्वर्ण की दुकान सुंदर नारी के बिना नहीं चलती| यही होती है कवि
की कल्पना| रवि भाई आप बीच बीच में गायब हो जाते हैं|
सो गाँठ बाँध लें, इस तरह से चलने वाला नहीं|
भाई साहित्य सेवा का मामला है]
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विशेष घोषणा
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ये सेकंड लास्ट पोस्ट है, अगली पोस्ट होगी 'समापन वाली पोस्ट'| आदरणीय आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के परामर्श के अनुसार उस पोस्ट को 'विषय मुक्त' किया जा रहा है| कई सारे कवि / कवियात्रियों ने रचनाएँ भेजी हैं, कुछ परिष्कृत जैसी हैं, कुछ अलग विषय पर हैं और कुछ प्रथम प्रयास वाली हैं| आज के दौर में जिन लोगों ने बढ़ कर छन्द सृजन में रुचि दर्शाई है, मंच उन सभी को प्रस्तुत करना चाहता है| तो ये सारे रचनाधर्मी उस पोस्ट में आएंगे|
सिवाय इस के - इस समापन पोस्ट के लिए -
अन्य रचनाधर्मी भी विषय से इतर अपना कोई एक घनाक्षरी छन्द भेज सकते हैं| हिन्दी के अलावा यदि कोई साथी भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, पंजाबी, सिंधी, ब्रजभाषा, गुजराती, मराठी जैसी अन्य भाषाओं के अतिरिक्त आंचलिक भाषाओं में भी छन्द भेजना चाहें तो उन का सहर्ष स्वागत है| भाषा संदर्भ के साथ साथ शब्दों के अर्थ अवश्य दें| आप अपनी औडियो क्लिप भी भेज सकते हैं| हमारी अपेक्षा रहेगी कि पाठक उस छन्द को सब से पहली बार यहीं पढ़ें| कारण स्पष्ट है कि हम जब पहले पहले कुछ पढ़ते हैं, तब हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया अपने आप आती है| बाद में फोर्मेलिटी अधिक लगती है|
ये रचनाएँ जल्द से जल्द मंच तक [navincchaturvedi@gmail.com] पहुँच जाएँ, तो समापन पोस्ट को रुचिकर बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल सकेगा|
इन छंदों के प्रकाशन के संबंध में एक और विशेष योजना भी है - जिस के बारे में समापन पोस्ट में बताया जाएगा, और आप सभी के सुझाव भी आमंत्रित किए जाएँगे|
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छंदों के प्रेमियो - कैसे लगे ये छन्द और कैसा चल रहा है आयोजन, लिखिएगा अवश्य|
हमें इंतज़ार है समापन पोस्ट के लिए आने वाली घनाक्षरियों का|
जय माँ शारदे!
तिलक जी और रवि जी के छंद लाजवाब है। एक से एक बढकर!!
जवाब देंहटाएंसमापन पोस्ट में विषय मुक्त और भाषा मुक्त छंद प्रस्तुति दर्शनीय होगी।
बहुत ही रोचक आयोजन चल रहा है नवीन जी ! सभी छंद लाजवाब हैं ! इसे जारी रखिये ! अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी ! धन्यवाद एवं शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसुन्दर कृति पढवाने के लिए
जवाब देंहटाएंआपका हृदय से आभार ||
तिलक जी और रवि जी !
आपको रचना के लिए बधाई ||
अक्सर ये उलाहना प्राप्त होता है कि आप हिन्दी छन्द नहीं लिखते। मेरी समस्या यह है कि हिन्दी का समृद्ध साहित्य कुछ कहने नहीं देता। कुछ कहने लगो तो ऐसा लगता है कि इससे अच्छे रूप में यही पढ़ चुका हूँ। हिन्दीभाषी होते हुए भी मेरी स्थिति ऐसी नहीं कि बिल्कुल सही शब्द समय पर याद आ जाये। इस तरह के आयोजनों में इतना समय भी नहीं होता कि रचना को मॉंजने का अवसर बचे फिर भी इस बार काफ़ी समय मिल गया और कुछ न कुछ बन ही गया। श्रंगार रस की घनाक्षरी पर नवीन भाई बराबर कहते रहे कि अभी मज़ा नहीं आ रहा है और मैं उन्हें कहता रहा कि भाई काव्य में यह मेरा प्रिय रस नहीं है, फिर भी प्रयास चलते रहे और परिणाम आपके सामने है।
जवाब देंहटाएंहिन्दी छंद-शास्त्र वृहद् है और उतनी ही विस्तीर्ण संभावनायें अलंकरण की, रवि भाई ने कमाल कर दिया। अनेकार्थक में भी सभंग और अभंग का प्रयोग पहली बार जाना है।
अगली पोस्ट तो लगता है घनाक्षरी घन से उत्पन्न झड़ी होने वाली है।
सभी छंद एक से बढकर!!
जवाब देंहटाएंअस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
सुन्दर कृति पढवाने के लिए
जवाब देंहटाएंआपका आभार नवीन जी
दो महारथियों की अद्भुत जुगल बंदी देखने को मिली है आज...दोनों अपनी तरह के अलबेले रचनाकार हैं और दोनों को पढना सुखद अनुभव से गुजरने जैसा है...अभी आनंद के महा सागर में गोते लगा रहा हूँ...टिपण्णी करने बाद में आऊंगा...
जवाब देंहटाएंनीरज
सुनने का तो आनन्द ही अलग है...अभी बार बार सुनेंगे...तब आकर फिर कमेंट करेंगे.
जवाब देंहटाएंतिलक जी और रवि जी ... दोनों माहिर हैं अपने अपने फन के ... और पढ़ने वाले माहिर हैं आनद लेने के ... मज़ा आ गया नवीन भाई ..
जवाब देंहटाएंतिलक जी तो छंदों के भी महारथी निकले। तीनों ही घनाक्षरियाँ गजब की हैं। तीनों ही छंदों में गिरह कमाल की बाँधी है। बहुत बहुत बधाई तिलकराज जी को।
जवाब देंहटाएंरविकांत जी ने तो क्या कमाल कर दिखाया है। विशेष पंक्ति पर विशेष रचनाएँ वाकई विशेष कार्य है। बहुत बहुत बधाई।
बहुत मनोहारी प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंतिलक राज जी और रवि जी के सुंदर छंदों का रसास्वादन किया।
जवाब देंहटाएंये दोनों साथी तो घनाक्षरी छंद के धुरंधर हैं।
दोनों को बहुत-बहुत बधाई।
तिलक भाई जी के छंद बोध कथा से सचेत करते हैं सौदेश्य साहित्य से ,प्रस्तुति ताल लय बद्ध है थोड़ा जोश और होता ,सोने पे सुहागा होता .
जवाब देंहटाएंपुरुष संताप ग्रस्त नार बिन चले न .यहाँ नार का एक अर्थ नाड़ी(नव्ज़)भी हो सकता है .
जवाब देंहटाएंभाई नवीन जी बधाई सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंऑडियो क्लिप्सबहुत अच्छे और प्रेरक हैं |आशा
जवाब देंहटाएंआज रवि भाई की मदद से पांचों छंदों के औडियो लिंक्स को डाइरैक्ट प्ले मोड पर कर दिया गया है|
जवाब देंहटाएंवाह...वाह ..वाह
जवाब देंहटाएंसभी छंद एक से बढ़कर एक ....पढ़कर,sunkar आनंद आ गया
विद्वान् रचनाकारों को बहुत-बहुत साधुवाद
नवीन जी का प्रयास ......अति प्रशंसनीय
//तेरा-मेरा, मेरा-तेरा, बातें हैं बेकार की ये,
जवाब देंहटाएंआप भी समझिये, उसे भी समझाइये|
वाद औ विवाद से, न सुलझा है कभी कुछ,
प्यार को बनाये रखे, 'हल' अपनाइये|
छोटी छोटी बातें बनें, बड़े-बड़े मतभेद,
छोड़ इन्हें पीछे, कहीं, आगे बढ़ जाइये|
ज्ञानीजन-गुणीजन, सभी ने बताया हमें,
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||//
आदरणीय तिलक जी ! गज़ब का घनाक्षरी छंद रच डाला है आपने ! इन संदेशों पर यदि अमल किया जाय तो घर तो स्वर्ग ही बन जायेगा ना .....
//नयना हैं कजरारे, केश घटा ने सँवारे,
वक्ष कटि से कटा रे, कलियों सी काया है|
गोरे गाल तिल धारे, अधर गुलाब प्यारे,
इन्द्र की सभा से तुझे कौन खींच लाया है|
अधर अधीर कहें, बड़े ही जतन कर,
काम के लिए रति ने तुझको सजाया है|
बदली की ओट से निहारता कनखियों से,
देख तेरी सुंदरता, चाँद भी लजाया है||//
वाह वाह वाह ! क्या कहने ! इस छंद की प्रशंसा में शब्दों का अकाल ही पड़ गया है !
//हमने भी सोचा, चलो - उस से ही शादी करें,
जिस पे फिदा ये सारा, नगर-बाज़ार है|
अम्मा-बापू-भाई-भाभी, कोई नहीं माना कभी,
सब को लगा कि छोटा-मोटा ये बुखार है|
उस को निहारते थे, खिड़की के तले खड़े,
लोग हमें कहते थे इश्क़ का बीमार है|
घोड़ी पर चढ़ कर, उसे देखा, जाना तभी,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||
गज़ब गज़ब ! यह हुई गुरुओं वाली बात .................:))
//निज-निज प्रकृति के, सब अनुसार चलें,
विषम का किए प्रतिकार बिन चले ना|
बिन पुरुषार्थ कुछ, प्राप्त नहीं होता कभी,
ध्रुव सत्य बात ये स्वीकार बिन चले ना|
कुछ नहीं पूर्ण यहाँ, सब को तलाश कुछ,
नाव कोई जैसे पतवार बिन चले ना|
शिष्य को न नींद आए, मछली को शोक भारी,
पुरुष संताप ग्रस्त - 'नार' बिन चले ना||//
वास्तव में यही ध्रुव सत्य है .........भाई रविकांत जी को बहुत-बहुत बधाई ..........:)
//प्रेम बिन रिश्तों वाली, गाड़ी नहीं चलती है,
घनघोर युद्ध, हथियार बिन चले ना|
वन-वन डोल-डोल मृग यही कहता है,
लगे प्यास जब, जलधार बिन चले ना|
आभूषण कितने भी सुंदर हों बंधु, पर,
स्वर्ण की दुकान तो 'सु-नार' बिन चले ना|
लाख हों हसीन मोड, इस की कहानी बीच,
जीवन का मंच सूत्रधार बिन चले ना||//
सही कहा आपने सु-नार व सूत्रधार के बिना नैया पार नहीं लगती .........बहुत-बहुत बधाई मित्र :))