कितना काम किया
कितना है और बचा
छोड़ छोड़
आ जा आ
थोड़ा बतिया लें
हर दिन ठेकेदार
भला क्यों
हम पर चिल्लाता है
चिल्लाता भी क्या है
जी भर भर कर
गरियाता है
धोबी की सब खीज
गधों पर
उतर रही है, शायद
मरा लुगाई से
अपनी कुट कर
घर से आता है
अपमानों के कचरे को
आ जा कमली
हँसी ठिठोली की झाड़ू
से सरिया लें
तुझे महीना
चढ़ा हुआ है
मुझको है महवारी
मगर उठानी है
हमको कचरे की
छबड़ी भारी
तन का बोझ
भला मन से
कितना ही
भारी होगा
नासपिटा भी
जान चुका है
सब अपनी लाचारी
आ ना बातों में
फूँके कोई मंतर
बैठ ज़रा
ख़ुद से थोड़ा सा
लड़िया लें
यों तो मैं लछमी
तू कमला
पर सब कुछ उलटा है
नामों से
क़िस्मत का पतरा
कब किसका पलटा है
तनिक-मनिक से
काम चला लेते
उड़ लेते, लेकिन
अपना तो
उल्लू भी बहना
देख न पंख कटा है
असल यही है
जीवन का समझी लाडो ?
चुनना है
इस पर हँस लें
सामयिक यथार्थ को चित्रित करता सार्थक सृजन।
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