ग़ज़ल - हुनर किसीको जीने का सिखा रही है ज़िन्दगी - ताज मोहम्मद सिद्दीक़ी

 


हुनर किसीको जीने का सिखा रही है ज़िन्दगी 

कहीं किसी को ख़ाक में मिला रही है ज़िन्दगी 

 

मसर्रतों  से भी  कभी तो  रू -ब -रू  करे हमें

फक़त हसीन ख़्वाब क्यों दिखा रही है ज़िन्दगी

 

ग़मों से हार के कभी न ख़ुदकुशी की, सोच तू

तुझे  गले  लगाने  को  बुला  रही है  ज़िन्दगी

 

जो मस्लहत से जी रहा फक़त उसी को छोड़के

वो कौन  है जिसे  नहीं  सता  रही है  ज़िन्दगी

 

हुज़ूर देखना सभी वो आख़िरत में रोएंगे

जहाँ में जिनके वास्ते ख़ुदा रही है ज़िन्दगी

 

पिसर अदब के साथ में था पास उनके इल्म भी

तभी  हुए  वो  मोहतरम ज़िया  रही  है ज़िन्दगी

 

अजी जनाब  ज़ीस्त भी है खेल धूप-छाँव का

कहीं  उठा  रही,  कहीं  गिरा  रही  है  ज़िन्दगी

2 टिप्‍पणियां: