..................पिछली पोस्ट से जारी
यही बोला और समझा जाता रहा है कि दुष्यंत कुमार एक क्रांन्तिकारी कवि / शायर थे| परन्तु दुष्यंत कुमार का ग़ज़ल संसार सिर्फ इतना ही नहीं था [एक पाठक के लिए] हाँ ये ज़रूर है कि दुष्यंत कुमार की पहिचान क्रांतिकारी कवि / शायर वाली ही बनी|
कुछ ऐसे शेर छांटे हैं जो उन की क्रांतिकारी छवि से अलग हैं| देखिये ये अशआर और उस शख्सियत की मुहब्बत वाली छवि के दर्शन कीजिए :-
वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगो
ये पूरी की पूरी ग़ज़ल तो मुहब्बत को ही समर्पित है:-
चांदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी
फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी
कल का सपना बहुत सुहाना था
ये उदासी न कल रही होगी
सोचता हूँ कि बंद कमरे में
एक शम्मा सी जल रही होगी
तेरे गहनों सी खनखनाती थी
बाजरे की फ़सल रही होगी
जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी
'मेज़ पर कोहनी टिकाए बैठे' होने का भाव हो या 'गहनों की खनक' और 'बाजरे की फ़सल' के बीच का तारतम्य - अद्भुत कल्पना का नज़ारा पेश करते हैं|
ये अशआर भी मुहब्बत की जागीर ही कहे जाएँगे:-
मैं तुम्हें छू कर ज़रा—सा छेड़ देता हूँ
और गीली पाँखुरी से ओस झरती है
***
तुम कहीं पर झील हो मैं एक नौका हूँ
इस तरह की कल्पना मन में उभरती है
***
अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए
तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए
***
दुष्यंत कुमार की शायरी में ज़िंदगी को भी बड़े ही सलीक़े से बतियाया गया है - देखिए कुछ बानगियाँ:-
पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह
पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए
***
बच्चे छलाँग मार के आगे निकल गये
रेले में फँस के बाप बिचारा बिछुड़ गया
***
दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें
सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया
***
लेकर उमंग संग चले थे हँसी—खुशी
पहुँचे नदी के घाट तो मेला उजड़ गया
***
जिन आँसुओं का सीधा तअल्लुक़ था पेट से
उन आँसुओं के साथ तेरा नाम जुड़ गया.
***
जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए
***
मुझको ईसा बना दिया तुमने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
***
ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा
***
तेरे सर पे धूप आई तो दरख़्त बन गया मैं
तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ
***
बेशक़ शराब पर भी लिखा है दुष्यंत कुमार ने:-
हमने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी
कड़वी तुम्हें लगेगी मगर एक जाम और
***
एक आदत-सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
***
जैसा कि कई गुणी जन बताते हैं कि दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में कई जगह गंभीर खामियाँ हैं, इस बात से बिल्कुल भी असहमति नहीं है, परन्तु साथ ही एक पाठक की हैसियत से इतना ज़रूर आभास होता है कि अगर कुछ खामियों को छोड दें तो उन्होने वाक़ई बहुत अच्छी प्रस्तुतियां दी हैं| उन्होने रमल या हज़ज़ जैसी सीधी सादी बहरों के अलावा कामिल और उस जैसी अन्य कठिन बहरों पर भी काम किया है| ग़ज़ल की बारीक़ जानकारियाँ रखने वाले लोग उन्हें पढ़ चुके हैं, अब तक कई बार|
दुष्यंत कुमार को चंद पोस्ट्स में समेट पाना मुश्क़िल है| फिलहाल उन के ही एक शेर के साथ यहाँ विश्राम लेते हैं, आगे यदि आप लोगों की रज़ामंदी रही तो कुछ और भी ले कर हाज़िर होंगे:-
उनका कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा
हमको तो मिल गया है अदब में मुकाम और.
साथियों का आदेश मिल चुका है 'हरिगीतिका' पर काम शुरू करने के लिए तो जल्द ही इस पर काम शुरू किया जाएगा, परन्तु उस के पहले अगले हफ्ते आप लोगों के साथ एक कालजयी कृति साझा करनी है|
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंआपको बहुत-बहुत --
बधाई ||
बहुत श्रम किया है आपने नवीन भाई। दुष्यंत जी की ग़ज़लों के विभिन्न रंगों से आपने एक इंद्रधनुष तैयार कर दिया है। बधाई स्वीकार कीजिए।
जवाब देंहटाएंBahut hi nayab sheiron se ru-b-ru karaya aapne naveen ji...bahut bahut shukriya...:)
जवाब देंहटाएंदुष्यंत कुमार की शायरी के विविध रंगों को चुनकर आपने एक सुंदर पेंटिंग बना दी है।
जवाब देंहटाएंबधाई, नवीन जी।
मेरे नज़दीक दुष्यंत कुमार जिंदगी और ज़मीन से जुड़े शायर रहे हैं ! अत: उन्हें किसी एक ब्रेकट विशेष में रखना शायद उनकी काव्य-प्रतिभा के साथ नाइंसाफी होगी ! हाँ, ये बात दीगर है की जिंदगी और मुआशरे को देखने का उनका अपना ही एक मुनफ़रिद अंदाज़ रहा ह...ै ! अरूज़ की बंदिशें और भाषाई चौधराहट ताउम्र उन्हें ज्यादा मंज़ूर नहीं रहीं, जिसके लिए वे अपने जीवनकाल में कठ्मुल्लायों की तनक़ीद का मरकज़ भी रहे ! लेकिन उनके आला-पाये के अशआर जिस तरह कालजयी हो निपटे, ये शायद किसी और के बूते की बात भी नहीं थी ! बहरहाल, आपने बहुत ही आला दर्जे की जानकारी दी है दुष्यंत कुमार जी के सम्बन्ध में नवीन भाई ! शोधकर्तायों के लिए आपका यह आलेख भविष्य में बहुत मददगार साबित होगा ! इस सुन्दर कृति के लिए मैं आपको ह्रदय से कोटिश: बधाई देता हूँ !
जवाब देंहटाएंप्यार में भी उतना ही दम है जितना ललकार में।
जवाब देंहटाएंShamshad Elahee Ansari "Shams" shamshad66@hotmail.com to me
जवाब देंहटाएं[pls post it on the blog, I could not post it as usual:]
दिल से लिखा गया लेख है, नवीन भाई...बाकी भाई योगराज जी ने कुछ यूं कहा कि दूसरे के लिये कोई गुंजाईश ही नहीं छोडी..ये उनकी आदत है. बारहाल..मेरे लिये दुषयंत के मायने फ़ैज़ के हैं, फ़ैज़ पाकिस्तान चले गये..और पीछे कमान संभाली दुष्यंत ने..ये तो उम्र ने बीच में गद्दा दे दिया..वर्ना...खैर यादें तरो ताज़ा कराने के लिये आपका आभार. मेरे कदीमी घर से उनका जिला कोई २५ किलोमीटर ही है.
AAPKA DUSHYANT KUMAR KE KRITITV KAA KHOOB
जवाब देंहटाएंADHYAYAN HAI . UNKE MOHABBAT AUR ZINDAGEE
PAR ASHAAR PADH KAR BAHUT ACHCHHAA LAGAA
HAI .
क्या बात !क्या बात! क्या बात !
जवाब देंहटाएंभाई साब झंडे गाड़ दिए आपने !! बहुत बहुत बंधाई !!
मन खुश हो गया दुष्यंत के अनछुए पहलु पढ़कर !!
चांदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी
फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी................................मन खुश हो गया !!
बाकि यहाँ इतने बड़े बड़े लोगों ने इतना कुछ कह दिया है की कोई गुंजाईश नहीं है मेरे लिए !!
एक बार पुनः बहुत बंधाई
वाह!जी वाह! दुष्यंत जी के कलाम और आपकी प्रस्तुति दोनों को सलाम! वाह!
जवाब देंहटाएंआपके आलेख के माध्यम से दुष्यंत कुमार की कथा यात्रा का सहभागी बनना बहुत अच्छा लगा ! उनकी रचनाएं बेमिसाल होती हैं ! आपका आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
उन दिनों उबाऊ, नीरस और आकर्षणविहीन नई कविता भी लिखा जाना शुरु हो चुका था। इनके ऊपर दुष्यंत जी का कहना था,
जवाब देंहटाएंउस नई कविता पे मरती नहीं है लड़कियां
इसलिए इस अखाड़े में नित गजल गाता हूं मैं!
दुष्यंत ने केवल देश के आम आदमी से ही हाथ नहीं मिलाया उस आदमी की भाषा को भी अपनाया और उसी के द्वारा अपने दौर का दुख-दर्द गाया...
जवाब देंहटाएंजिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
ऐसे दौर में दुष्यंत की शायरी आम बोलचाल के लहजे में लिखी शायरी है जो एक ठण्डी हवा के झोंके की तरह आई. कहते हैं ग़ज़ल का अर्थ है गुफ़्तगू करना. शाब्दिक न हो तो भी कहा जाता है कि यह विधा बातचीत करती है. दुष्यंत जी की ग़ज़लें इस परिभाषा पर शत प्रतिशत खरी उतरती हैं.
जवाब देंहटाएंयह बात सिर्फ दुष्यंत ही कह सकते हैं कि
मैं जिसे ओढता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ.
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं कहीं राह भूल जाता हूँ.
दुष्यंत ने यह भी कहा है नवीन भाई
जवाब देंहटाएंतुमको निहारता हूं सुबह से ऋतंबरा
आब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा
नवीन भाई लिखने लगूं तो अन्त नहीं है, इसलिए दुष्यंत जी के इन शेरों को अपनी बात मान कर कह कर समाप्त करता हूं
जवाब देंहटाएंमेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे
हौले-हौले पांव हिलाओ, जल सोया है छेड़ो मत,
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएंगे।
थोड़ी आंच बची रहने दो, थोड़ा धुआं निकलने दो,
कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएंगे।
बहुत अच्छी लगी आपकी यह प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंमनोज जी की टिपण्णीयों से आनंद कई गुणा
बढ़ गया.
समय मिलने पर पर मेरे ब्लॉग पर भी आईयेगा.
चांदनी छत पे चल रही होगी
जवाब देंहटाएंअब अकेली टहल रही होगी
तेरे गहनों सी खनखनाती थी
बाजरे की फ़सल रही होगी
हम तो दुष्यंत जी के सदा ही मुरीद रहें हैं .भाव और विचार जगत के धनी रहें हैं दुष्यंत जी ,आपकी प्रस्तुति भी सादर भाव लिए रही है जो सर्वथा सही है .
दुष्यंत कुमार हर रंग में एक जैसे ही प्रभावी हैं...
जवाब देंहटाएंबढ़िया पोस्ट...
सादर...
अच्छी पोस्ट पढवाने के लिए आभार |
जवाब देंहटाएंआशा
ummid hai dushaynt par aur bhi padhne ko milega
जवाब देंहटाएंइतनी अच्छी पोस्ट. आज तो दिल खुश हो गया. अच्छा लगा दुष्यंत कुमार जी को पढ़ना.धन्यवाद इसे हमें पढवाने के लिए
जवाब देंहटाएंआनन्द आ गया भाई...बहुत बेहतरीन प्रस्तुति रही...
जवाब देंहटाएंवैसे वो फुट नोट वाली बात: हमें मालूम होता है कि आपकी नज़रे हम पर हैं भले ही आप टिप्पणी न भी करें..इसीलिए तो संभल कर लिखते हैं...हा हा!!!
बहुत अच्छी लगी आपकी यह प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंदुष्यंत जी की गज़लों का मर्म निकाल के रख दिया है नवीन जी ... छांट छांट के लाये हैं उनके शेर ...
जवाब देंहटाएंनवीन भाई !! बहुत सुन्दर प्रकरण उथाया है आपने –कुछ मैं बात आगे बढाता हूँ ---
जवाब देंहटाएंदुष्यंत जी से पहले बलबीर सिंह रंग ने बेहतरीन गज़लें कहीं थीं ---
ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आए ।
जवानी आ गई तनहाइयों तक तुम नहीं आए ।।
धरा पर थम गई आँधी, गगन में काँपती बिजली,
घटाएँ आ गईं अमराइयों तक तुम नहीं आए ।
नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समंदर को,
सतह भी आ गई गहराइयों तक तुम नहीं आए ।
किसी को देखते ही आपका आभास होता है,
निगाहें आ गईं परछाइयों तक तुम नहीं आए ।
समापन हो गया नभ में सितारों की सभाओं का,
उदासी आ गई अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आए ।
न शम्म'अ है न परवाने हैं ये क्या 'रंग' है महफ़िल,
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आए ।
बलबीर सिंह रंग साहब ने सिर्फ इशारा किया था कि ग़ज़ल जब अपनी नैसर्गिक ज़मीन पर उतरेगी तो कहाँ पहुँच जायेगी ------ और सुबूत हैं दुष्यंत कुमार त्यागी जी ---
सत्तर के दशक का नाम दुष्यंत कुमार आज द्स्तावेज़ों में चाहे जहाँ हो लेकिन दिलो जेहन में अमर हो चुका है – कुछ लोगों ने दुष्यंत की गज़ल को गज़ल के बुनियादी सिद्धांतों का अनुपालन न करने वाली कह कर उसे खारिज करने की बाकायदा एक मुहिम बरसों चलाई लेकिन –सच यह है कि आज हिन्दी के सात करोड़ पाठक आज जिस व्यक्ति के कारण इस विधा की ओर माइल हुये उसका नाम दुष्यंत कुमार ही है –दुष्यंत के कारण ही ग़ज़ल विधा को हिन्दी साहित्य में मान्यता मिली । दुष्यंत की उद्दाम और प्रचंड वेग से बहने वाली अभिव्यक्ति ने सभी विरोधों को धराशायी कर दिया और आज के मोतबर शायरों को श्रोताओं तक पहुँचाने का जो कार्य है – ये ज़मीन दुष्यंत कुमार ने तैयार की-- हाँ !! हमारी ज़ुबान हिन्दुस्तानी ही थी है और रहेगी ––ठेठ और खाँटी उर्दू और हिन्दी गज़ल के शेर के नाम पर संस्कृत का श्लोक कहने वाले यहाँ बहुत रोज़ टिकने वाले नहीं -- भाषा के संक्रमणकाल के परिवर्तनों को देर सबेर स्वीकार करना ही होता है ।
आज सबसे बड़ी बहस शब्दों के वज़्न –बहर –गजल के मिजाज़ पर होती है –अपने अपने विश्वास तंत्र हैं हर व्यक्ति के –लेकिन गज़ल के क्षितिज इतने वृहत्तर हैं कि किसी परिधि में इसे बाँधना इसे सम्भव नहीं है –इसलिये इसके व्याकरण ने इसकी रक्षा की है –रदीफ –काफिया और बहर परिभाषित है ---तवील बह्स इस बात पर हो सकती है कि – ब्राहम्ण श्ब्द का वज़्न क्या होना चाहिये – बिरहमन जैसा या वस्तविक शब्द जैसा – यह बहस दिल्चस्प होती है और गज़ल की सेहत के लिये अच्छी है –लेकिन हिन्दुस्तान का देवनागरी पाठक्वर्ग जिस भाषा में गज़ल सुनना चाहेगा –वह नि:सन्देह दुष्यंत की ही भाषा है –उनकी पहली और सबसे अच्छी पुस्तक सूर्य का स्वागत है –जिसमें कि कवितायें हैं –लेकिन बहुत जल्द उन्होंने एक सर्वलोकप्रिय विधा –गज़ल को हिन्दी में लोकप्रिय कर दिया ।
इस सफर में कमलेश्वर जी –जो कि उस समय सारिका के सम्पादक थे – की भूमिका भी बहुत बड़ी है –दुष्यंत तेज़ तर्रार और बिन्दस तबीयत के आदमी थे – controversial !! – 42 बरस की उम्र देखी और अकस्मात ह्रदय गति के रुक जाने के करण चले गये –लेकिन आज भी आलम यह है –कि राजनीति के गलियारों से ले कर सारवजनिक मंचो पर सिर्फ और सिर्फ दुश्यंत के शेर ही आम आदमी की ज़ुबान बन सके –
वह आदमी नहीं है मुकम्मम्ल बयान है
माथे पे उसके चोट का का गहरा निशान है
होने लगी है जिस्म में जुम्बिश तो देखिये
इस पर कटे परिन्द की कोशिश तो देखिये
गूँगे निकल पड़े हैं ज़ुबाँ की तलाश में
सरकार के खिलाफ ये साज़िश तो देखिये
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है
एक च्ंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
येकिसीकी व्यक्तिगत आलोचना है
हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये
नवीन जी !
जवाब देंहटाएंआपका भी कोई जवाब नहीं
आप तो लाजवाब लगते हो
वाह दादा
जवाब देंहटाएंसंग्रहनीय जानकारी
बिलकुल दुष्यंत जी की भाषा हिंदुस्तानी ही रही है
और मयंक भैया से भी सहमत हूँ की आज हिंदी में ग़ज़ल की इमारत की ज़मीन दुष्यंत साहब ने ही तैयार की
ब्राह्मण शब्द वाली बहस खुद दुष्यंत जी ने अपनी किताब की भुमिका में लिख कर शुरू की जो अभी भी चल रही है
वाह क्या बात है शब्दों को ढूढ़कर लाने में तो उस्ताद है जनाब
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