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SP/2/3/7 अम्बरीष श्रीवास्तव और ज्योतिर्मयी पन्त जी के छन्द

नमस्कार

आज कल मुम्बई का मौसम भी ठण्डा है। कल रात हल्की सी बरसात भी हुई थी। आज सुबह से ही काफ़ी कुहरा भी था। मगर इस पोस्ट को लिखते वक़्त ठण्डक उतनी नहीं अब। फिर भी आइये आलू के गरमागरम पराठे खाते-खाते यह पोस्ट पढ़ियेगा।

साथियो हम इस पोस्ट को समापन पोस्ट की तरह लेने वाले थे पर कुछ और छन्द आ गये सो वह आइडिया फ़िलहाल केन्सल, मतबल वह पोस्ट आगे बढ़ा दी जाती है। वर्तमान समय में [अपने वर्तमान परिकर को ध्यान में रखते हुये] छन्द-साहित्य की सेवा करने वाले व्यक्तियों का शुमार अगर किया जाये तो सम्भवत: भाई अम्बरीष जी [08853273066] का नाम प्रथम पंक्ति में आयेगा। जब, जहाँ, जिस मञ्च पर, जितना भी सम्भव हुआ, आप छन्द सेवा के लिये सदैव ही तत्पर दिखे हैं। ईश्वर आप में यह सद्भावना बनाये रखे। आइये आप के छंदों को पढ़ते हैं :-

मैं-मैं-मैं का जाप ही, नित्य कीजिए मित्र.
सुख पायें, संतुष्टि हो, मनभावन यह इत्र.
मनभावन यह इत्र. इसे जो नित्य लगाये.
वही लगे सिरमौर, आम को ख़ास बनाये.
पगड़ी मैं की बाँध, मगन मय रखिये मैं मैं..
सब पी हों मदमस्तआप मत करिये मैं-मैं

तुम सा कोई है नहीं, तुम से ही है प्यार.
अपनापन तुम में भरा, तुम ही घर संसार.
तुम ही घर संसार, तुम्हीं हो मित्र हमारे.
बसे हृदय में नित्य, सृष्टि में सबसे प्यारे.
प्रखर सूर्य सा तेज, रंग गहरा कुमकुम सा. 
सभी तुम्हारे फैन. कौन दुनिया में तुम सा 

हम से होती एकता, और अहम् से नाश.
हम सब थे यह जानते, सुधरे होते काश.
सुधरे होते काश. देश फिर कभी न रोता.
सारे डालर ताम्र, रुपैया सोना होता.
करें प्रगति भरपूर, कार्य हो सम्यक दम से.
अब भी समझें मित्र, देश बनता है हम से

इस आयोजन में हम और अहम का प्रयोग ऑल्मोस्ट सभी ने किया है मगर अम्बरीष भाई ने जिस तरह इसे नज़्म किया है, जिस तरह इन दो शब्दों की जुगलबंदी की है, भाई वाह, बहुत ही शानदार प्रयोग है यह। सिर्फ़ तीन शब्द और इन तीन शब्दों को ले कर आप सभी ने जो कमाल किया है भाई क्या कहने, अलग-अलग कथानक, अलग-अलग भाषाई सौन्दर्य और प्रत्येक सहभागी ने अपनी मेधा का ज़बर्दस्त परिचय दिया है। यही मंशा होती है कि आयोजन में जितने लोग पार्टिसिपेट करें उतने फ्लेवर्स का लुत्फ़ भी मिले। अम्बरीष भाई के साथ-साथ आप सभी को भी बहुत-बहुत बधाई।

अनुभूति वाली आ. पूर्णिमा दीदी के मार्फ़त एक और साथी मिल रहा है इस मञ्च को। आप में से अधिकांश इन से परिचित हैं भी। आप ने एक छन्द-पुष्प के साथ इस महफ़िल में प्रवेश किया है। आइये स्वागत करते हैं आदरणीया ज्योतिर्मयी पन्त [09911274074] जी का :-

तुम अरु मैं जब सम रहें, ख़ुशियाँ रहें अपार
दोनों सोचें "मैं "बड़ा, तब होवे तकरार  .
तब होवे तकरार, पनप रिश्ते नहिं  पाते
अहम् बनें दीवार, मिलन के अवसर जाते .
तब-तब नाहक होंय, उदासी में हम गुमसुम
तू-तू, मैं-मैं राग, अलापें जब जब  हम तुम.                   

ईश्वर ने आप को वास्तव में क्या ख़ास अंदाज़ बख़्शा है, बड़ी ही सहजता से गम्भीर बात कह दी है आप ने। भविष्य में आप के और भी अच्छे-अच्छे छन्द पढ़ने को मिलेंगे इस आशा के साथ।

साथियो गरमागरम पराठे खा चुके हों तो नवाजें इन सुंदर-सुंदर छंदों को अपनी मोहक टिप्पणियों से और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर। अरे हाँ एक बात और, आदरणीया ज्योतिर्मयी पन्त जी समस्या-पूर्ति मञ्च की उणनचासवीं रचनाधर्मी हैं मतलब अगला नया रचनाधर्मी पचासवाँ साथी होगा, देखते हैं कि यह पचासवाँ साथी इस आयोजन में जुड़ता है या अगले आयोजन में।

नमस्कार .....  

हरिगीतिका - समापन पोस्ट - रसधार छंदों की बहा दें, बस यही अनुरोध है

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन 


2 अक्तूबर २०११ को शुरू हुआ यह हरिगीतिका वाला आयोजन आज पूर्णता को प्राप्त हो रहा है। इस आयोजन में अब तक हम १४ रचनाधर्मियों के ७५ हरिगीतिका छंद पढ़ चुके हैं, जो कि इस पोस्ट के साथ हो जाएँगे १५ - ७८। आइये पहले पढ़ते हैं अम्बरीष भाई के छंद :-

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - स. पा. सोहे साले जी को, सरहज ब. स. पा. ई


सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन 

छंदों में स्वाभाविक और रचनात्मक रुझान जगाने के बाद मंच के सामने दूसरा लक्ष्य था छंदों में विशिष्टता के प्रति आकर्षण उत्पन्न करना| कठिन था, पर असंभव नहीं| घनाक्षरी छन्द ने इस अवसर को और भी आसान  कर दिया| मंच ने तीन कवियों को टार्गेट किया, उन से व्यक्तिगत स्तर पर विशेष अनुरोध किया गया, और खुशी की बात है कि तीनों सरस्वती पुत्रों ने मंच को निराश नहीं किया|

पहले क्रम पर धर्मेन्द्र भाई ने श्लेष वाले छन्द में जादू बिखेरा| दूसरे नंबर पर शेखर ने गिरह बांधने के लिए 16 अक्षर वाली उस पंक्ति को ८ बार लिखा और अब अम्बरीष भाई ने भी अपना सर्वोत्तम प्रस्तुत किया है| इस की चर्चा उस विशेष छन्द के साथ करेंगे|

घनाक्षरी छन्द पर आयोजित समस्या पूर्ति के इस ११ वें चक्र में आज हम पढ़ते हैं दो कवियों को| पहले पढ़ते हैं अम्बरीष भाई को| हम इन्हें पहले भी पढ़ चुके हैं|  अम्बरीष भाई सीतापुर [उत्तर प्रदेश] में रहते हैं और टेक्नोलोजी के साथ साथ काव्य में भी विशेष रुचि रखते हैं|| 



गैरों से निबाहते हैं, अपनों को भूल-भूल,
दिल में जो प्यार भरा, कभी तो जताइये|

गैर से जो मान मिले, अपनों से मिले घाव, 
छोटी-मोटी चोट लगे, सुधि बिसराइये|

पूजें संध्याकाल नित्य, ताका-झांकी जांय भूल,
घरवाली के समक्ष, माथा भी नवाइये|

फूट डाले घर-घर, गंदी देखो राजनीति,
राजनीति का आखाडा, घर न बनाइये||

[हाये हाये हाये, क्या बात कही है 'गैरों से निबाहते हैं'............ और साथ में
वो भी 'अपनों से मिले घाव', क्या करे भाई 'रघुकुल रीति सदा चल आई'
 जैसी व्यथा है| जो समझे वही समझे]

और अब वो छन्द जो मंच के अनुरोध से जुड़ा हुआ है| यदि आप को याद हो तो 'फिल्मी गानों में अनुप्रास अलंकार' और 'नवरस ग़ज़ल' के जरिये हमने अंत्यानुप्रास अलंकार पर प्रकाश डालने का प्रयास किया था| पढे-सुने मुताबिक यह अलंकार चरणान्त के संदर्भ में है| परंतु आज के दौर में हमें यह शब्दांत और पदांत में अधिक प्रासंगिक लगता है| अंबरीष भाई से इसी के लिए पिछले हफ्ते अनुरोध किया गया था, और उन्होने हमारी प्रार्थना पर अमल भी किया है| मंच इस तरह के प्रयास आगे भी करने के लिए उद्यत है|


गोरी-गोरी देखो छोरी, लागे चंदा की चकोरी,
धन्यवाद सासू मोरी, तोहफा पठाया है|

पीछे-पीछे भागें गोरी, खेलन को तो से होरी, 
माया-जाल देख ओ री, जग भरमाया है|

धक-धक दिल क्यों री, सूरत सुहानी तोरी,    
दिल का भुलावा जो री, खुद को भुलाया है| 

कंचन सी काया तोरी, काहे करे जोरा जोरी,    
देख तेरी सुन्दरता, चाँद भी लजाया है||

[गोरी, छोरी, चकोरी, मोरी, होरी, ओ री, तोरी, जो री और जोरा जोरी  जैसे
 शब्दों के साथ अंत्यानुप्रास अलंकार से अलंकृत किया गया यह छन्द
है ना अद्भुत छन्द!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
बाकी तारीफ करने की ज़िम्मेदारी आप लोगों की]


गोल-गोल ढोल जैसा, अँखियाँ नचावे गोल, 
मूँछ हो या पूँछ मोहै, भाया सरदार है|

चाचा-चाची डेढ़ फुटी, मामा-मामी तीन फुटी, 
सरकस लागे ऐसा भारी परिवार है|

पड़े जयमाल देखो, काँधे पे सवार बन्ना, 
अकड़ी खड़ी जो बन्नी, बनी होशियार है|

जल्दी ले के सीढ़ी आओ, बन्ना साढ़े एक फुटी,   
बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||

[लो भाई घनाक्षरी में सरकस को ले आये अम्बरीष जी| सरकसी परिवार 
वाली ये शादी तो बहुत जोरदार हुई होगी वाकई में]



इस चक्र के दूसरे, घनाक्षरी आयोजन के १४ वें और इस मंच के २९ वें कवि हैं वीनस केशरी| पंकज सुबीर जी के अनुसार ग़ज़ल के विशेष प्रेमी वीनस भाई इलाहाबाद की फिजा को रोशन कर रहे हैं, पुस्तकों से जुड़े हुए हैं - बतौर शौक़ और बतौर बिजनेस भी| शायर बनने का बोझ तो पहले से उठा ही रहे थे, अब इन्हें कवि होने की जिम्मेदारी भी निभानी है| वीनस का ये पहला पहला घनाक्षरी छन्द है, और माशाअल्लाह इस ने गज़ब किया है - यदि आप को यकीन न आये तो खुद पढ़ लें| वीनस में आप को भी अपना छोटा भाई दिखाई पड़ेगा - दिखाई पड़े - तो आप भी चुहल कर सकते हैं इस के साथ|




चाहे जब आईये जी, चाहे जब जाईये जी, 
आपका ही घर है, ये, काहे को लजाइये|

मन मुखरित मेरा, अभिननदन  करे, 
मीत बन आईये औ, प्रीत गीत गाइये|

स. पा. सोहे साले जी को, सरहज ब. स. पा. ई, 
रोज आ के बोलें - जीजा - रार निपटाइये| 

घर से भगा न सकूं,  उन्हें समझा न सकूं -
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||

[अरे वीनस भैया ये तो उत्तर भारत में बोले तो 'कहानी घर घर की' है| न जाने 
बिचारे कितने सारे जीजाओं को साले और साले की बीबी यानि सरहजों
के बीच सुलह करवानी पड़ती होंगी| अभिनन्दन को बोलते समय
अभिननदन करने की रियायतें लेते रहे हैं पुराने कवि भी|
गिरह बांधने का इनका तरीका भी विशिष्ट लगा]


कवियों ने अपनी कल्पनाओं के घोड़ों को क्या खूब दौड़ाया है भाई!!!! भाई मयंक अवस्थी जी ने सही कहा था कि "यह  सभी विधाएँ [छन्द] किसी काल खण्ड विशेष में सुषुप्तावस्था में तो जा सकती हैं; परन्तु उपयुक्त संवाहक और प्रेरक मिलने पर इन्हें पुनर्जीवित होने में देर नहीं लगती""| ये सारी प्रतिभाएं कहीं गुम नहीं हो गयीं थीं - बस वो एक सही मौके की तलाश में थीं| मौका मिलते ही सब आ गए मैदान में और चौकों-छक्कों की झड़ी लगा दी|

अम्बरीष भाई और वीनस भाई के छंदों पर अपनी टिप्पणियों की वर्षा करना न भूलें, हम जल्द ही फिर से हाजिर होते हैं एक और पोस्ट के साथ| एक बार फिर से दोहराना होगा कि ये अग्रजों के बरसों से जारी अनवरत प्रयास ही थे / हैं जिनके बूते पर आज हम इस आयोजन का आनंद उठा रहे हैं| कुछ अग्रज अभी भी मंच से दूरी बनाए हुए हैं, पर हमें उम्मीद है और भाई उम्मीद पे ही तो दुनिया कायम है|

जय माँ शारदे!

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - देवमणि पाण्‍डेय, अम्‍बरीष श्रीवास्तव, रूप चंद्र शास्त्री 'मयंक और कंचन बनारसी [५-६-७-८]

सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर अभिवादन

दोहा छन् पर आधारित दूसरी समस्या पूर्ति के तीसरे चक्र में आप सभी का सहृदय स्वागत है| इस बार हम पढ़ेंगे चार ४ रचनाधर्मियों को| इन से आप लोग पहले भी मिल चुके हैं| समस्या पूर्ति के पहले अंक को शुरू करते वक्त जो कुछ शंकाएँ माइंड में थीं अब निर्मूल होने लगीं हैं| काफ़ी सारे लोग हैं जो आज भी छन्दों से सिर्फ़ प्रेम करते हैं बल्कि उन पर प्रस्तुतियां देने के लिए भी आगे बढ़ कर रहे हैं| आदरणीया निर्मला कपिला जी ने तो नई पीढ़ी के लिए एक अनोखा एक्जाम्पल ही प्रस्तुत कर दिया है|


सरसों फूली खेत में, पागल हुई बयार|
मौसम पर यूँ छा गया, होली का त्यौहार||

होली के त्यौहार में, मिला पिया का संग|
गुलमोहर सा खिल गया, गोरी का हर अंग||

होली के त्यौहार में, बरसे रंग-गुलाल|
आँखों से बातें हुईं, सुर्ख हुए हैं गाल||

:-देव मणि पाण्डेय
मुंबई आय कर कार्यालय में कार्य रत भाई देव मणि पाण्डेय जी जाने माने कवि / शायर और मंच संचालक हैं|




नये वस्त्र तरु को मिलें, चलती मस्त बयार|
जग को उल्लासित करे, होली का त्यौहार||

चंचल नयना मदभरे, पुरवा बाँटे प्यार|
संग चलूँगी साजना, गोरी कहे पुकार||

भंग नशे में नाचते, सारे बीच बजार|
हुरियारों को भा गया, होली का त्यौहार||

ढोल सड़क पर बज रही, सबमें प्यार दुलार|
भस्म करे सब दुश्मनी, होली का त्यौहार||

गुझिया मीठी रसभरी, बनें स्वाद अनुसार|
नये नये पकवान सा, होली का त्यौहार||

आमंत्रित है आप सब, सारा घर परिवार|
मित्र मंडली साथ ही, होली का त्यौहार||

होली के त्यौहार की, महिमा अपरम्पार|
सभी दिलों को जोड़ दे, होली का त्यौहार||

हमें नये रँग में रँगे, होली का त्यौहार|
फूले फले सदाचरण, हे प्रभुजी आभार||

अम्‍बरिष भाई पहली बार समस्या पूर्ति में शामिल हो रहे हैं| मैने इन के सवैया पढ़े हैं, बहुत ही मनोहारी सवैया लिखते हैं ये|




फागुन में नीके लगें, छीँटें अरू बौछार|
सुख देने फिर गया, होली का त्यौहार||

शीत विदा होने लगा, चली बसन्त बयार|
प्यार बाँटने गया, होली का त्यौहार||

पाना चाहो मान तो, करो मधुर व्यवहार|
सीख सिखाता है यही, होली का त्यौहार||

रंगों के इस पर्व का, यह ही है उपहार|
मेल कराने गया, होली का त्यौहार||

भंग डालो रंग में, वृथा ठानो रार|
भेद-भाव को मेंटता, होली का त्यौहार||
:- रूप चंद्र शास्त्री मयंक

छन्‍द शास्त्र को ले कर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी और रूप चंद्र शास्त्री 'मयंक' जी का योगदान अविस्मरणीय रहेगा साहित्य जगत में| ये दोनो ही अग्रज इस मंच पर अपने ज्ञान और अनुभव को बाँटने के लिए सदा ही उद्यत रहते हैं| अपने अर्जित ज्ञान और अनुभव को नई पीढ़ी को सौपने के इन के प्रयोजन के लए शत-शत नमन|




निज मन की कालुष्यता, का कर लो उपचार|
अपना सा ही पाओगे, तुम सारा संसार||

पिचकारी से प्यार की, कर कर के वौछार|
काम क्रोध मद लोभ को, होली में दो जार||

कंचन सब से मांगता , छोटा सा उपहार|
ऐसा बन्धु मनाइए , होली का त्यौहार||
:- कंचन बनारसी

उमा शंकर चतुर्वेदी उर्फ कंचन बनारसी जी इस मंच पर की पहली समस्या पूर्ति के पहले प्रस्तुति कर्त्ता हैं| आप की बेलाग और सीधी सपाट भाषा सहज ही आकर्षित करती है| बरास्ते रोला, कुण्‍डलिया जब यह मंच घनाक्षरी और सवैया पर पहुँचेगा तब तो कमाल ही करेंगे कंचन बनारसी जी|


होली के रंग में राबोर इन सरस्वती पुत्रों का बारम्बा अभिनन्दन|

अगले हफ्ते इस समस्या पूर्ति का समापन करेंगे| आप सभी से पुन: विनम्र निवेदन है कि जल्द से जल्द अपने अपने दोहे navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें| इस समस्या पूर्ति की जानकारी वाली लिंक एक बार फिर रेडी रिफरेंस के लिए:- समस्या पूर्ति: दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - घोषणा|

एक और निवेदन -तीसरी समस्या पूर्ति का छंद है - "रोला"
तो सभी जानकार लोगों से सविनय अनुरोध है कि अपने-अपने आलेख यथा शीघ्र भेजने की कृपा करें|