कविता - बिछड़े सभी बारी-बारी - सन्ध्या यादव

 

बिछड़े सभी बारी-बारी...

 1 ) बारी -बारी बिछड़ने

का एक फायदा हुआ

कच्चे मकान सा दिल बैठा नहीं

पहाड़ सा मजबूत हो गया...

 

2) बिछड़ने का शोक दोनों

मिलकर मनाते तो

बिछड़ना भी शोकोत्सव

सा होता...

 

3 ) चार कदम चल कर

वो मोड़ मुड गया

यानि कि

बिछड़ने का दुख

मनाने की औपचारिकता

से भी बच गया...

 

4) सूनी कलाई में पड़ा

कंगन उदास अकेला ही हँसता है

लाल चूड़ियों के बीच दमकता था

बिछड़़ने का दुख उनसे  अब सहता है...

 

5) बिछड़ने का दुख

सबकी छाती पर पहाड़ बनकर नहीं टूटता

कुछ के सीने के अंदर  खामोश

धधकता भी है ज्वालामुखी बनकर...

3 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद साहित्यम 🙏

    जवाब देंहटाएं
  2. बिछड़ने के दर्द को आंखों में नहीं कागज़ पर ही उतरना बेहतर है, और इतनी खूबसूरती से काव्यात्मक रूप में बिछड़ने के दर्द को चित्रित करना . कि आह और वाह एक साथ निकले ....इसी कवयित्री के वश की बात है । जब पढ़ो तो प्रशंसा,मुस्कान और पीर के सब शब्द साथ ही निकलते हैं।संध्या यादव को पढ़ने के बाद देर तक किसी को पढ़ने का मन ही नहीं करता।

    जवाब देंहटाएं
  3. श्रेष्ठतम कवयित्री सुश्री सन्ध्या जी यादव की कविता प्रकाशित करने पर सुधि पाठक आप का आभार और धन्यवाद करते हैं !
    हमें विश्वास है आप अपने "साहित्यम" के माध्यम से हमें पुनः पुनः श्रेष्ठतम रचनाओं से परिचित करवाते रहेंगे !
    रमेश शर्मा

    जवाब देंहटाएं