31 जुलाई 2014

दोहे – नवीन सी. चतुर्वेदी

 घाटे का सौदा रहा, बारिश का व्यापार।
गरजे तो सौ-सौ जलद, बरसे बस दो-चार॥

इस दुनिया को छोड़ कर, उस दुनिया का नाम।
जाने किस ने रख दिया, परम-धाम, सुख-धाम॥

वही हमारी ज़िन्दगी, और वही मामूल।
ज्यों तर कपड़े तार पर चाट रहे हों धूल।।

न तो बादलों का वजन, न ही धरे कुहसार।
लेकिन पलकें ढो रहीं लाखों टन का भार॥

न तो निम्न है तम जहाँ, न ही प्रकाश महान।
ऐसे इक दरबार के हाक़िम हैं रहमान॥

अपने मन के गाँव के, सिर्फ़ यही सिरमौर।
अँगना, पौरी, देहरीबचपन वाले दौर।।

फिर बेशक़ तू भाड़ की, कमी गिनाना लाख।
लेकिन पहले भाड़ के भुने चने तो चाख।।

अक्षर मेरा इष्ट है, शक्ति, शब्द-सन्धान।
गुर सीखे वाल्मीकि से, ये मेरी पहिचान॥

हम ने पूछा हाट से, क्या है हमरा मोल। 
तारीफ़ों के पुल बँधे, प्रश्न हो गया गोल॥ 

तन-धारी होते सदा, तन के ही आसक्त।
पूज रहे आकार को, निराकार के भक्त॥


बाग़-बाग़ गुलजार है, राग-राग मधु-राग ।
जाग, जाग कर, जाग* कर, जाग-जाग नर जाग ॥
* यज्ञ / कर्म के सन्दर्भ में



:- नवीन सी. चतुर्वेदी

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