हरिगीतिका - समापन पोस्ट - रसधार छंदों की बहा दें, बस यही अनुरोध है

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन 


2 अक्तूबर २०११ को शुरू हुआ यह हरिगीतिका वाला आयोजन आज पूर्णता को प्राप्त हो रहा है। इस आयोजन में अब तक हम १४ रचनाधर्मियों के ७५ हरिगीतिका छंद पढ़ चुके हैं, जो कि इस पोस्ट के साथ हो जाएँगे १५ - ७८। आइये पहले पढ़ते हैं अम्बरीष भाई के छंद :-

क्यूँ हुई बच्चों से नादानी न पूछ - नवीन

मुश्किलें मत पूछ, आसानी न पूछ।
है बड़ा, तो बात बचकानी न पूछ ।१।

याद कर अपने लड़कपन के भी दिन।
  क्यूँ हुई बच्चों से नादानी न पूछ।२।


भेड़िया क्या जाने इंसानी रिवाज़|
धूर्त से तहज़ीब के मानी न पूछ।३।

जो मुक़द्दर ने दिया कर ले कुबूल।
कर्ण! कुंती की परेशानी न पूछ ।४।

था फ़िदा जिस पर गुलाबों का मुरीद।
कौन थी वो श़क्ल नूरानी न पूछ।५।

बोलना आता तो क्यूँ होता हलाल।
बेज़ुबाँ से वज़्हेक़ुरबानी न पूछ।६।

रोशनी से गर तुझे परहेज़ है|
फिर सरंजामेनिगहबानी न पूछ।७।

मछलियों के हक़ में बगुलों की जमात।
किस कदर है सबको हैरानी न पूछ।८।

हाथ कंगन आरसी मौज़ूद है।
अब तो कोई बात बेमानी न पूछ।९।


बहरे रमल मुसद्दस महजूफ
फाएलातुन फाएलातुन फाएलुन
२१२२ २१२२ २१२

निष्काम कर्मयोग की प्रासंगिकता –गीता - मयंक अवस्थी

गीता मनोविज्ञान की पहली (और अंतिम भी) पुस्तक है। यह मनुष्य के  रुग्ण जीवन के लिये वरदान स्वरूप दी गयी विचार-चिकित्सा प्रणाली है । इसका उदगम महाकाव्य महाभारत है । 

सम्पूर्ण भारत-भक्ति में ही, सत्य-सार्थक मुक्ति है

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इस आयोजन की सेकंड लास्ट ये आज की पोस्ट एक विशेष पोस्ट है। मंच के वरिष्ठ मार्गदर्शक आचार्य सलिल जी के परामर्श बल्कि उन की आज्ञा के अनुसार ही उन के छंद और उन छंदों पर सुधार वाले सुझाव दोनों एक साथ प्रस्तुत किए जा रहे हैं। सलिल जी का मानना है कि इस से छंदों से प्रेम करने वाले लोगों को बहुत सहायता मिलेगी। पाठकों से भी निवेदन है कि वे अपनी स्पष्ट राय इन छंदों पर रखने की कृपा करें।

निज लक्ष्य जब तक सिद्ध ना हों, बेधड़क बढ़ते रहें

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हरिगीतिका छंद आधारित आयोजन के अगले चक्र में आज हम पढ़ते हैं आ. बृजेश त्रिपाठी जी को। बृजेश जी मंच से पहले से जुड़े हुए हैं और हम पिछले आयोजनों में इन की कुण्डलिया और घनाक्षरियाँ पढ़ भी चुके हैं।

चायनीज बनते नहीं, चायनीज जब खायँ

चायनीज बनते नहीं, चायनीज जब खायँ।
फिर इंगलिश के मोह में, क्यूँ फ़िरंग बन जायँ।१।
क्यूँ छोडें पहिचान को, रहे छाँव या धूप।
अपने रँग में रँग रहे, उस का रंग अनूप।२।

इक शाम सरयू में स्वयं को, होम करना है तुझे

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आयोजन जैसे जैसे आगे बढ़ रहा है एक से एक उत्कृष्ट रचनाएँ भी सामने आ रही हैं। 2 अक्तूबर को शुरू हुआ यह आयोजन अब अपने उत्तरार्ध में प्रवेश कर चुका है।

आज की पोस्ट में हम पढ़ेंगे मयंक अवस्थी जी के हरिगीतिका छंद। लय का निर्वाह, छंद विधान का पूर्णरूपेण अनुपालन और सहज सम्प्रेषणीयता तो है ही, पर इन सब के अलावा जो ताज़गी उभारी है मयंक भाई ने, वो विशिष्ट है। आइये पढ़ते हैं इन छंदों को, धारा प्रवाह के साथ................

हम ग़ज़ल कहते नहीं आत्मदाह करते हैं - डा. विष्णु विराट

डा. विष्णु विराट
लगभग साठ ग्रंथ प्रकाशित, राष्ट्रीय काव्य मंच से संलग्न,
नवगीत के प्रतिनिधि हस्ताक्षर,
निदेशक - गुजरात हिंदी प्रचारिणी सभा,
अध्यक्ष - हिंदी विभाग, म. स. विश्वविद्यालय, बडौदा 

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लोग  सुनते  हैं  और  वाह  वाह  करते  हैं।
इससे  लेकिन  दिलों  के  ज़ख्म  कहाँ  भरते  है।
हाथ रखिये  ज़रा  जलते  हुए  शब्दों  पे  'विराट'।
 हम  ग़ज़ल  कहते  नहीं  आत्मदाह  करते  हैं।।

संतोष का सुख तो हमेशा, झोंपड़ों को ही मिला

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देखते ही  देखते १० कवियों के ५३ हरिगीतिका छंद पढ़ चुके हम अब तक। इस में सिद्धहस्त रचनाकार भी हैं और नौसिखिये भी। जीवन में पहली बार जिन्होंने हरिगीतिका छंद लिखे हैं, मंच उन का विशेष आभार व्यक्त करता है। इस आयोजन में हमने आध्यात्म - हास्य और शृंगार विषयक स्पेशल पोस्ट पढ़ीं, अब उसी क्रम में आज तिवारी जी भी एक स्पेशल पोस्ट ले कर आए हैं। घर कुटुम्ब की बातें हम सब जानते हैं, बतियाते भी हैं, परन्तु - अरे ये तो होता ही है इस में खास क्या - कह कर उन बातों को दरकिनार कर के साहित्य से दूर रखते हैं। जिन बातों की वज़ह से माहौल सतत प्रभावित होता रहता हो वो हल्की फुलकी बातें न हो कर बेहद गम्भीर बातें होती हैं और उन्हें निरंतर साहित्य में आते रहना चाहिए। शेषधर तिवारी जी ने इन बातों को केंद्र में रख कर अपने छंद भेजे हैं| विशेष बात ये कि 'अनुरोध', 'कसौटी' या 'त्यौहार' शब्द या कि उन के पर्यायवाची लिए बिना भी, छंद, इन शब्दों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।पहले हमने सोचा कि यह घोषणा के अनुरूप है या नहीं, फिर सोचा इस को पाठक माई-बाप की अदालत में पेश कर के देखते हैं। मंच के अनुसार यह एक सुन्दर प्रयोग है।

हुस्न वाले तो छा गये हर सू - नवीन

थे अँधेरे बहुत घने हर सू|
हमने दीपक जला दिए हर सू|१|

मोर से नाचने लगे हर सू|
ज़िक्र जब आप के हुए हर सू |२|

सारी दुनिया पे राज है इनका|
हुस्न वाले तो छा गए हर सू |३|

पर्व से पूर्व मिल गया बोनस |
दीप खुशियों के जल उठे हर सू |४|

इस ज़मीं पर ही एक युग पहले|
आदमी थे उसूल के हर सू|५|

हर तरफ नफरतों का डेरा है|
अब मुहब्बत ही चाहिए हर सू|६|

यार माली बदल गया है क्या|
तब चमन में  गुलाब थे हर सू|७|

उस को देखा तो यूं लगा मुझको|
तार वीणा के बज उठे हर सू।८।

लोग कितने उदास हैं या रब|
कुछ तो खुशियाँ बिखेर दे हर सू|९|

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कह रहे हैं मुशायरे हर सू|
अम्न की जोत जल उठे हर सू|१|

थे जो खारिज मुआमले कल तक|
रस्म-क़ानून बन गए हर सू|२|

आज इंसान, ख़्वाहिशें, पानी|
बेतहाशा उबल रहे हर सू|३|

कुछ नयी बात ही न मिल पायी|
काफ़िए तो तमाम थे हर सू|४|

है खबर, गाँव को मिलेगी नहर|
दीप खुशियों के जल उठे हर सू|५|

तख़्त - तहज़ीब - ताल और तक़दीर|
वो ही क़िस्से, वो ही धडे हर सू|६|

एक 'सू' मौत, दूसरी जीवन| *
काश पैगाम जा सके हर सू|७|

मुश्किलें हैं तो रास्ते भी हैं|
पर्व आया है, तो मने हर सू|८|

ज़ख्म-एहसास-दर्द-बेचैनी|
दिल के वो ही मुआमले हर सू|९|

* अरबी में 'सू' का एक अर्थ पानी भी होता है, और तुर्की में 'सू' का अर्थ 'शराब' होता है|

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बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन
२१२२ १२१२ २२

प्रिय छंद सुनिए प्रेम से , हम ने कहे हैं प्रेम से

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राजेन्द्र भाई स्वर्णकार जी के ब्लॉग पर घुमक्कड़ी करने वाले साथियों को पता है कि वो दिल लगा कर न सिर्फ लिखते हैं बल्कि उसे सजाने में भी जी-जान से मेहनत भी करते हैं। मेरी प्रबल इच्छा थी कि दिवाली के पहले या कि फिर बाद की पोस्ट में उन के छंद आयें, परंतु राजेन्द्र भाई यही कहते रहे कि पहले मैं स्वयं तो संतुष्ट हो जाऊँ। और देखिये जब कवि स्वयं संतुष्ट होता है तब कैसा काम आता है :-

हर पल कसौटी तुल्य था, पर, पर्व से कमतर न था

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धर्मेन्द्र भाई के अद्भुत छन्द पढे हमने पिछली पोस्ट में। परंतु इतने सुंदर छंदों पर इतने कम कमेंट्स!!!!!!!!!! खैर, हमें तो अपना काम ज़ारी रखना है। आइये आज पढ़ते आ. आशा दीदी के अनोखे छन्द। कल्पना और शब्दकारी का एक और अनोखा संगम।

हमें उम्र भर मम्मी पापा के सँग में ही रहना है - 30 मात्रा वाले 6 प्रकार के छंद


प्यारी प्यारी मम्मी जब भी अपनी धुन में आती थी
गोदी में ले कर के हमको ट्विंकल ट्विंकल गाती थी
गोल गोल रसगुल्ले जैसे गालों को सहलाती थी
पकड़ हमारी नक्को रानी हँसती और हँसाती थी

पापा घर में कम रहते थे ऑफिस भी तो जाते थे
चोर नज़र से हमें देख कर मंद मंद मुस्काते थे 
खूब मज़े करवाने हमको पिकनिक पर ले जाते थे  
दोस्त समझ कर दुनियादारी की बातें समझाते थे

विज्ञान के आगे चले ये हो कसौटी काव्य की

साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

पिछला हफ़्ता तो पूरा का पूरा दिवाली के मूड वाला हफ़्ता रहा| रियल लाइफ हो या वर्च्युअल, जहाँ देखो बस दिवाली ही दिवाली| शुभकामनाओं का आदान प्रदान, पटाखे और मिठाइयाँ| उस के बाद भाई दूज, बहनों का स्पेशल त्यौहार| इस सब के चलते हम ने पोस्ट्स को एक बारगी होल्ड पर रखा और इसी दरम्यान अष्ट विनायक दर्शन को निकल लिए|

नज़रें लड़ीं जिससे, वही, भैया बता के चल पडी

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मंच के सभी कुटुम्बियों को एक दूसरे की तरफ़ से 
दीप अवलि 
की हार्दिक शुभकामनाएँ



हरिगीतिका छंद पर आधारित इस आयोजन में आज हम हास्य आधारित छंद पढेंगे| क्यूँ भाई, हास्य रस सिर्फ होली पर ही होता है क्या? दिवाली पर भी तो हँस सकते हैं हम.....................

दीपावली के दोहे - गोरी तुझसे फूटते फुलझड़ियों से रंग - नवीन

प्रकाश पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें

दसों दिशा जगमग हुईं, धरती-गगन ललाम|
पहुँचे थे जिस क्षण अवध, लक्ष्मण-सीता-राम|१|

बम्ब पटाखे फूटते, कोलाहल के संग|
मनमोहक लगते मगर, फुलझड़ियों के रंग|२|

सजनी सजना से कहे, सजन सजाओ साज|
मुझे लादिए प्रीत से, धनतेरस है आज|३|

प्रीतम-पाती पढ़ रहे, प्रीत पारखी नैन|
शब्दों में ही ढूंढते, दीप अवलि सुख दैन|४|

कल-कल कहते कट गया, कितना काल कराल|
इस दीवाली तो सजन, दिल को कर खुशहाल|५|

अत्युत्तम, अनुपम, अमित, अद्भुत, अपरम्पार|
सुंदर, सरस, सुहावना, दीपों का त्यौहार|६|

यही बात कहते रहे, हर युग के विद्वान्|
दीपक-ज्ञान जले तभी, मिटे तमस-अज्ञान|७|

बुधिया को सुधि आ गयी, अम्मा की वो बात|
दिल में रहे उमंग तो, दीवाली दिन-रात|८|

दीवाली का है यही, दुनिया को सन्देश|
अपनों को भूलो नहीं, देश रहो कि विदेश|९|

चूनर साड़ी ओढ़ना, बिंदिया, कंगन संग|
गोरी तुझसे फूटते फुलझड़ियों से रंग|१०|

सजा थाल पूजा करें, साथ रहे परिवार|
हर घर में ऐसे मने, दीवाली त्यौहार|११|

रसबतियाँ बतिया रहे, ले हाथों में हाथ|
ये दीवाली ख़ास है, दिलदारा के साथ|१२|

बम्ब पटाखे फुलझड़ी, धरे अनोखे रंग|
खील बताशे खो रहे, पर, हटरी के संग|१३|

भरे पड़े हर सू, यहाँ, ऐसे भी इंसान|
फुस्सी बम से हौसले, रोकिट से अरमान|१५| 

बहना की कुंकुम लगे, हर भाई के माथ|
मने दूज का पर्व भी, दीवाली के साथ|१६|

मातु, पिता, भाई, बहन, सजनी, बच्चे, यार|
जब-जब ये सब साथ हों, तब-तब है त्यौहार|१७|

रमा चरण पर राखिये, श्रद्धा सह निज माथ|
दीपावली मनाइए, दीप अवलि  के साथ|१८|

दिवाली / दीवाली के दोहे

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

वातायन - ग़ज़ल - प्राण शर्मा / छंद - सौरभ पाण्डेय.

शौक़  से  पढ़िए मेरे दिल की किताब - प्राण शर्मा

प्राण शर्मा

हर किसी के घर का रखते हैं हिसाब
ख़ुफ़िया से होते हैं जिनके दिल जनाब

पूछता  हूँ  आपसे  कि  गाली  में
आपको अच्छा लगेगा  क्या  जवाब

खैरख्वाहों  में  भी  वो  खामोश  है
दिल में सच्चाई जो हो तो दे जवाब

आपको  रोका  नहीं  मैंने  कभी
शौक़  से  पढ़िए मेरे दिल की किताब

बात  सोने  पर सुहागा  सी  लगे
सादगी  के साथ हो कुछ तो हिजाब

छोड़ अब दिन-रात का गुस्सा सभी
कम न पड़ जाए तेरे चेहरे की आब

वास्ता खुशियों से पड़ता है ज़रूर
कौन रखता है मगर उनका हिसाब

धुंध  पस्ती  की  हटे  तो बात हो
कुछ नज़र आये दिलों के आफताब

कोई क्या पूछे कभी उससे कि वो
माँगने  पर  भी  नहीं  देता जवाब
 
देखने  में  भी  तो लगता है हसीं
सिर्फ  खुशबू  ही नहीं देता गुलाब

रोज़ ही इक ख्वाब से आये हैं तंग
`प्राण` परियों वाला हो कोई तो ख्वाब
:- प्राण शर्मा


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सौरभ पाण्डेय



जीवन-सार
नाधिये जो कर्म पूर्व, अर्थ दे  अभूतपूर्व
साध के संसार-स्वर, सुख-सार साधिये|

साधिये जी मातु-पिता, साधिये पड़ोस-नाता
जिन्दगी के आर-पार, घर-बार बाँधिये|

बाँधिये भविष्य-भूत, वर्तमान,  पत्नि-पूत
धर्म-कर्म, सुख-दुख, भोग, अर्थ राँधिये|

राँधिये आनन्द-प्रेम, आन-मान, वीतराग
मन में हो संयम, यों, बालपन नाधिये|१|

 
हो धरा ये पूण्यभूमि, ओजसिक्त कर्मभूमि
विशुद्ध हो विचार से, हर व्यक्ति हो खरा|

हो खरा वो राजसिक, तो आन-मान-प्राण दे
जिये-मरे जो सत्य को, तनिक न हो डरा|
 
हो डरा मनुष्य लगे, जानिये हिंसक उसे
तमस भरा विचार स्वार्थ-द्वेष हो भरा|

हो भरा उत्साह और सुकर्म के आनन्द से-
वो मनुष्य सत्यसिद्ध, ज्ञानभूमि हो धरा|२|

 
दीखते व्यवहार जो हैं व्यक्ति के संस्कार वो
नीति-धर्म साधना से, कर्म-फल रीतते|

रीतते हैं भेद-मूल, राग-द्वेष, भाव-शूल
साधते विज्ञान-वेद, प्रति पल सीखते|

सीखते हैं भ्रम-काट, भोग-योग भेद पाट
यों गहन कर्म-गति, वो विकर्म जीतते|

जीतते अहं-विलास, ध्यान-धारणा प्रयास
संतुलित विचार से, धीर-वीर दीखते|३|

 

-- सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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