शौक़ से पढ़िए मेरे दिल की किताब - प्राण शर्मा
प्राण शर्मा |
हर किसी के घर का रखते हैं हिसाब
ख़ुफ़िया से होते हैं जिनके दिल जनाब
पूछता हूँ आपसे कि गाली में
आपको अच्छा लगेगा क्या जवाब
खैरख्वाहों में भी वो खामोश है
ख़ुफ़िया से होते हैं जिनके दिल जनाब
पूछता हूँ आपसे कि गाली में
आपको अच्छा लगेगा क्या जवाब
खैरख्वाहों में भी वो खामोश है
दिल में सच्चाई जो हो तो दे जवाब
आपको रोका नहीं मैंने कभी
शौक़ से पढ़िए मेरे दिल की किताब
आपको रोका नहीं मैंने कभी
शौक़ से पढ़िए मेरे दिल की किताब
बात सोने पर सुहागा सी लगे
सादगी के साथ हो कुछ तो हिजाब
छोड़ अब दिन-रात का गुस्सा सभी
सादगी के साथ हो कुछ तो हिजाब
छोड़ अब दिन-रात का गुस्सा सभी
कम न पड़ जाए तेरे चेहरे की आब
वास्ता खुशियों से पड़ता है ज़रूर
कौन रखता है मगर उनका हिसाब
वास्ता खुशियों से पड़ता है ज़रूर
कौन रखता है मगर उनका हिसाब
धुंध पस्ती की हटे तो बात हो
कुछ नज़र आये दिलों के आफताब
कोई क्या पूछे कभी उससे कि वो
माँगने पर भी नहीं देता जवाब
देखने में भी तो लगता है हसीं
सिर्फ खुशबू ही नहीं देता गुलाब
सिर्फ खुशबू ही नहीं देता गुलाब
रोज़ ही इक ख्वाब से आये हैं तंग
`प्राण` परियों वाला हो कोई तो ख्वाब
:- प्राण शर्मा
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सौरभ पाण्डेय |
जीवन-सार
नाधिये जो कर्म पूर्व, अर्थ दे अभूतपूर्व
साध के संसार-स्वर, सुख-सार साधिये|
साधिये जी मातु-पिता, साधिये पड़ोस-नाता
जिन्दगी के आर-पार, घर-बार बाँधिये|
नाधिये जो कर्म पूर्व, अर्थ दे अभूतपूर्व
साध के संसार-स्वर, सुख-सार साधिये|
साधिये जी मातु-पिता, साधिये पड़ोस-नाता
जिन्दगी के आर-पार, घर-बार बाँधिये|
बाँधिये भविष्य-भूत, वर्तमान, पत्नि-पूत
धर्म-कर्म, सुख-दुख, भोग, अर्थ राँधिये|
राँधिये आनन्द-प्रेम, आन-मान, वीतराग
मन में हो संयम, यों, बालपन नाधिये|१|
हो धरा ये पूण्यभूमि, ओजसिक्त कर्मभूमि
विशुद्ध हो विचार से, हर व्यक्ति हो खरा|
हो खरा वो राजसिक, तो आन-मान-प्राण दे
जिये-मरे जो सत्य को, तनिक न हो डरा|
विशुद्ध हो विचार से, हर व्यक्ति हो खरा|
हो खरा वो राजसिक, तो आन-मान-प्राण दे
जिये-मरे जो सत्य को, तनिक न हो डरा|
हो डरा मनुष्य लगे, जानिये हिंसक उसे
तमस भरा विचार स्वार्थ-द्वेष हो भरा|
हो भरा उत्साह और सुकर्म के आनन्द से-
वो मनुष्य सत्यसिद्ध, ज्ञानभूमि हो धरा|२|
तमस भरा विचार स्वार्थ-द्वेष हो भरा|
हो भरा उत्साह और सुकर्म के आनन्द से-
वो मनुष्य सत्यसिद्ध, ज्ञानभूमि हो धरा|२|
दीखते व्यवहार जो हैं व्यक्ति के संस्कार वो
नीति-धर्म साधना से, कर्म-फल रीतते|
रीतते हैं भेद-मूल, राग-द्वेष, भाव-शूल
साधते विज्ञान-वेद, प्रति पल सीखते|
सीखते हैं भ्रम-काट, भोग-योग भेद पाट
यों गहन कर्म-गति, वो विकर्म जीतते|
जीतते अहं-विलास, ध्यान-धारणा प्रयास
संतुलित विचार से, धीर-वीर दीखते|३|
नीति-धर्म साधना से, कर्म-फल रीतते|
रीतते हैं भेद-मूल, राग-द्वेष, भाव-शूल
साधते विज्ञान-वेद, प्रति पल सीखते|
सीखते हैं भ्रम-काट, भोग-योग भेद पाट
यों गहन कर्म-गति, वो विकर्म जीतते|
जीतते अहं-विलास, ध्यान-धारणा प्रयास
संतुलित विचार से, धीर-वीर दीखते|३|
-- सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
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Praan ji aur saurabh ji dono ki hi rachnayyen lajabaab hain.
जवाब देंहटाएंसौरभ पाण्डेय और प्राण शर्मा जी की रचनाएं बहुत अच्छी लगीं। इन प्रसिद्ध कलमकारों की रचनाएं प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद नवीन जी।
जवाब देंहटाएंआद प्राण जी की गज़ल और
जवाब देंहटाएंआद सौरभ भईया की धनाक्षरियाँ.....
वाह! आनंद आ गया...
सादर आभार...
आपको सपरिवार दीप पर्व की सादर बधाईयां....
दोनों ही रचनाएँ बहुत लाज़वाब ...
जवाब देंहटाएंप्राण शर्माजी की ग़ज़ल से रू-ब-रू कराने के लिये नवीनजी हार्दिक धन्यवाद. आपके अश’आर बिना किसी लागलपेट सीधे-सीधे दिलों में उतरने वाले हैं. एक बानगी -
जवाब देंहटाएं//पूछता हूँ आपसे कि गाली में
आपको अच्छा लगेगा क्या जवाब //
प्राण शर्माजी को कोटिशः धन्यवाद.
सुधी गुणी जनों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)