डा. विष्णु विराट |
लगभग साठ ग्रंथ प्रकाशित, राष्ट्रीय काव्य मंच से संलग्न,
नवगीत के प्रतिनिधि हस्ताक्षर,
नवगीत के प्रतिनिधि हस्ताक्षर,
निदेशक - गुजरात हिंदी प्रचारिणी सभा,
अध्यक्ष - हिंदी विभाग, म. स. विश्वविद्यालय, बडौदा
अध्यक्ष - हिंदी विभाग, म. स. विश्वविद्यालय, बडौदा
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लोग सुनते हैं और वाह वाह करते हैं।
इससे लेकिन दिलों के ज़ख्म कहाँ भरते है।
हाथ रखिये ज़रा जलते हुए शब्दों पे 'विराट'।
देखते हैं , जाँचते हैं , तोलते हैं।
बे -ज़रुरत, खुद, न खुद को, खोलते हैं।
सह नहीं पाती व्यवस्था, सोच अपनी।
हम बहुत ख़तरा उठाकर बोलते हैं।।
ग़ैर तो ग़ैर हैं पर तू तो हमारा होता ।
मैं नहीं थकता अगर तेरा सहारा होता।
तूने खोले ही नहीं अपनी तुरफ़ के पत्ते।
वर्ना जीती हुयी बाज़ी न मैं हारा होता।।
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माँ के हँसते हुए मुस्काते नयन सा बच्चा।
चाँदनी रात में चंदा की किरन सा बच्चा।
खो गया है कहीं पत्थर के शहर में यारो।
चौकड़ी भरता हवाओं में हिरन सा बच्चा।।
मेरे चरणों में बैठकर उपा सते हैं लोग।
सामने मेरे ही मुझको तलाशते हैं लोग।
कभी चन्दन का काष्ट कहके या संगेमरमर।
बड़ी सफाई से मुझको तराशते हैं लोग।।
जो न सहना है वो भी सहता हूँ।
दर्द दिल का न कभी कहता हूँ।
तुझको मेरा पता मिलेगा नहीं।
मैं अपने घर में कहाँ रहता हूँ।।
मैं नदी या हवा में बहता हूँ।
धूल बरसात सभी सहता हूँ।
तू मेरे मन को तो छू पाया नहीं।
मैं अपने तन में कहाँ रहता हूँ।।
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रात भर अन्धकार से लड़ने।
आग को आग मानने के लिए।
सूर्य के मंत्र हैं हम, ज्योति के घड़े भी हैं।
जहाँ हों खौफ़ के साये, वहाँ बढे भी हैं।
छुरी की धार अँधेरे के कलेज़े पर हम।
माना खद्योत हैं, पर रात से लड़े भी हैं।।
माना युग के ताज़ नहीं हैं।
चर्चाओं में आज नहीं हैं।
फिर भी गीत हमारे यारों।
परिचय के मोहताज़ नहीं हैं।।
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आ. डा. विष्णु विराट जी के इन मनोहारी मुक्तकों और उन की औडियो क्लिप उपलब्ध कराने के लिए शेखर चतुर्वेदी का सहृदय आभार
आ. डा. विष्णु विराट जी के इन मनोहारी मुक्तकों और उन की औडियो क्लिप उपलब्ध कराने के लिए शेखर चतुर्वेदी का सहृदय आभार
आज 10 - 11 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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बहुत उम्दा!
जवाब देंहटाएंसूर्य के मंत्र हैं हम, ज्योति के घड़े भी हैं।
जवाब देंहटाएंजहाँ हों खौफ़ के साये, वहाँ बढे भी हैं।.......
सह नहीं पाती व्यवस्था, सोच अपनी।
हम बहुत ख़तरा उठाकर बोलते हैं।।
ग़ैर तो ग़ैर हैं पर तू तो हमारा होता ।
मैं नहीं थकता अगर तेरा सहारा होता।
............अद्भुत !! क्या कहने !!
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जवाब देंहटाएंग़ैर तो ग़ैर हैं पर तू तो हमारा होता ।
जवाब देंहटाएंमैं नहीं थकता अगर तेरा सहारा होता।
तूने खोले ही नहीं अपनी तुरफ़ के पत्ते।
वर्ना जीती हुयी बाज़ी न मैं हारा होता।।
...सभी रचनाएँ बहुत उत्कृष्ट..
माना युग के ताज़ नहीं हैं।
जवाब देंहटाएंचर्चाओं में आज नहीं हैं।
फिर भी गीत हमारे यारों।
परिचय के मोहताज़ नहीं हैं।।
वाह!
सुन्दर प्रस्तुति!
सभी रचनाएँ मन को मोह लेती हैं ... सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआज तो बस आनंद आ गया...
जवाब देंहटाएंसादर आभार....
तभी गज़ल में दाह की गर्मी आती है।
जवाब देंहटाएंठाले बैठे थे . सो आज यहाँ आ गए और क्या आना हुआ . बहुत उम्दा रचना पढ़ने को मिली . और नवीन जी आपके ग़ज़ल के मीटर के ज्ञान पर आपसे मार्गदर्शन लेने विस्तार में फिर आएंगे . शुभरात्रि . और आप के समाचार अब तो कुहू बोले पर मिल जाते हैं . अच्छी जगह है . ब्लॉगरों को वहाँ आना चाहिए . हिंदी के खासकर . हैं बहुत पर सक्रिय नहीं हैं . वाचस्पति , समीरलाल जी , कविता वाचक्कानावी, संतोष त्रिवेदी , ज्ञानदत्त , शिव मिश्रा कुछ परिचित नामो के अलावा . और आप तो हैं ही . चलिए फिर मिलते हैं
जवाब देंहटाएंlajwab prastuti
जवाब देंहटाएंडॉ.विष्णु विराट जी के रचे छंद सुनना संभव नहीं हुआ …
जवाब देंहटाएंलोड नहीं हो पा रहा … :(
पढ़ कर आनंद आया
लेकिन आपने यह नहीं बताया कि ये कौन-कौन से छंद हैं :)
हार्दिक बधाई ! शुभकामनाएं ! मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
रात भर अन्धकार से लड़ने।
जवाब देंहटाएंएक दीपक ही क्यूँ सुलगता है।
आग को आग मानने के लिए।
वक़्त को वक़्त बहुत लगता है।।
बहुत उम्दा मन आनंद से भर गया. विराट जी की और रचनाओं से परिचय करवाएं.
वाह ...बहुत खूब सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक ... आभार ।
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