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देशभक्ति की कविताएँ / मुक्तक

मेरा हिन्दोसताँ सब से अलग सब से निराला है।
ये ख़ुशबूओं का गहवर है बहारों का दुशाला है।
अँधेरो तुम मेरे हिन्दोसताँ का क्या बिगाड़ोगे।
मेरा हिन्दोसताँ तो ख़ुद उजालों का उजाला है॥

ये ऋषियों का तपोवन है फ़क़ीरों की विरासत है।
ये श्रद्धाओं का संगम है दुआओं की इबारत है।
भले ही हर तरफ़ नफ़रत का कारोबार है लेकिन। 
ये इक ऐसा क़बीला है जिसे सब से मुहब्बत है॥

बुजुर्गों से वसीयत में मिले संस्कार उगलती है।
समन्वय से सुशोभित सभ्यता का सार उगलती है।
ज़माने भर के सारे तोपखाने कुछ नहीं प्यारे।
हमारे पास ऐसी तोप है जो प्यार उगलती है॥

हमारा दिल दुखा कर जाने क्या मिलता है लोगों को।
हमें यों आज़मा कर जाने क्या मिलता है लोगों को।
ये ऐसा प्रश्न है जिस का कोई उत्तर नहीं मिलता।
तिरंगे को जला कर जाने क्या मिलता है लोगों को॥

हम आपस में लड़ेंगे तो तरक़्क़ी हो न पायेगी।
अगर झगड़े बढेंगे तो तरक़्क़ी हो न पायेगी।
अगर अब भी नहीं समझे तो फिर किस रोज़ समझेंगे।
सियासत में पड़ेंगे तो तरक़्क़ी हो न पायेगी॥

जो मंजिल तक पहुँचते हैं वे रस्ते कैसे देखेंगे।
जो घर को घर बनाते हैं वे रिश्ते कैसे देखेंगे।
अगर झूठी शहादत में फ़ना होती रही नस्लें।
तो फिर हम लोग पोती और पोते कैसे देखेंगे॥

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

छन्द और मुक्तक - सागर त्रिपाठी

सवैया
गङ्गा में पाप धुलें जग के पर पावन नीर मलीन न होगा
 कर्ण सा स्वर्ण लुटाता रहे पर दानी कभी धनहीन न होगा
सौम्य-उदार-विनीत न हो धनवान कभी वो कुलीन न होगा
 स्नेह की गागर से भरिये कभी सागर ये जलहीन न होगा
मत्त-गयन्द सवैया
सात भगण + दो गुरू 

मुक्तक

प्रसव का भार तो बस माँ ही वहन करती है
वक्ष में दुग्ध का सिहराव सहन करती है
इक जनानी ही धरा पर है धरोहर ऐसी
अपनी सन्तान पे अस्तित्व दहन करती है

भर दे हृदय के घाव वो मरहम निकालिये
हारे-थके दिलों में बसे ग़म निकालिये
अब युद्ध की रण-नीति में बदलाव लाइये
रण-दुन्दुभी से हो सके – सरगम निकालिये 


सागर त्रिपाठी – 9920052915

जन्म के समय से ही नाजुक व नर्म-जान - नवीन

बड़ी मस्ती से जीता है, दिलों पे राज करता है
मसर्रत बाँटने वाले के दिल में ग़म नहीं होता
बुजुर्गों की नसीहत आज़ भी सौ फ़ीसदी सच है
मुहब्बत का ख़ज़ाना बाँटने से कम नहीं होता

सभा में शोर था - तहज़ीब को आख़िर हुआ है क्या
जहाँ भी जाओ बेशर्मी हमारा मुँह चिढाती है
तभी सब लड़कियों ने एक सुर में उठ के यूँ बोला
कि जो इनसान होते हैं उन्हीं को शर्म आती है

सादगी होती है मङ्गलसूत्र में
बन्दगी होती है मंगलसूत्र में
हर सुहागिन का यही कहना है बस
ज़िन्दगी होती है मङ्गलसूत्र में


जन्म के समय से ही नाजुक व नर्म-जान
सख़्त-जान दुनिया में ख़ामुशी के साथ है
दादा, नाना, पापा, भैया, अंकलों की लाड़ली ये
अगम अनादि काल से सभी के साथ है
सुनिये ‘नवीन’ मित्र प्रीत-रीत सहचरी
ख़ुशियों की धारा, ग़म की नदी के साथ है
अपनी हथेलियों में दुनिया समेटे हुये
आसमान वाली परी धरती के साथ है

नारी नर से यूँ बोली सुनें मेरे हमजोली
तन को नहीं तनिक मन को झुकाइये
हमने हमेशा आप की ख़ुशी को मान दिया
आप भी हमारे सङ्ग-सङ्ग मुस्कुराइये
नारी का हृदय तो है लबालब भरा हुआ -
अमृत कलश जब चाहे छलकाइये
यानि कि ‘नवीन’ शुद्ध-शास्वत सनेह-रस
बूँद भर डाल कर घूँट भर पाइये

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तन की मटुकिया में मन की मथनिया से
प्रीत नवनीत हेतु बतियाँ बिलो गया
प्यारी प्यारी बातें बोल ऐसा किया डाँवाडोल
पता ही नहीं चला कि दिल कब खो गया
रङ्ग नहीं पानी नहीं हाथ भी लगाया नहीं
फिर भी ‘नवीन’ अङ्ग-अङ्ग को भिगो गया
मेरी स्नेह सरिता में मुझी को ढकेल कर
ख़ुद तो उबर गया मुझ को डुबो गया

नवीन सी. चतुर्वेदी

हम ग़ज़ल कहते नहीं आत्मदाह करते हैं - डा. विष्णु विराट

डा. विष्णु विराट
लगभग साठ ग्रंथ प्रकाशित, राष्ट्रीय काव्य मंच से संलग्न,
नवगीत के प्रतिनिधि हस्ताक्षर,
निदेशक - गुजरात हिंदी प्रचारिणी सभा,
अध्यक्ष - हिंदी विभाग, म. स. विश्वविद्यालय, बडौदा 

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लोग  सुनते  हैं  और  वाह  वाह  करते  हैं।
इससे  लेकिन  दिलों  के  ज़ख्म  कहाँ  भरते  है।
हाथ रखिये  ज़रा  जलते  हुए  शब्दों  पे  'विराट'।
 हम  ग़ज़ल  कहते  नहीं  आत्मदाह  करते  हैं।।