4 नवंबर 2011

प्रिय छंद सुनिए प्रेम से , हम ने कहे हैं प्रेम से

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


राजेन्द्र भाई स्वर्णकार जी के ब्लॉग पर घुमक्कड़ी करने वाले साथियों को पता है कि वो दिल लगा कर न सिर्फ लिखते हैं बल्कि उसे सजाने में भी जी-जान से मेहनत भी करते हैं। मेरी प्रबल इच्छा थी कि दिवाली के पहले या कि फिर बाद की पोस्ट में उन के छंद आयें, परंतु राजेन्द्र भाई यही कहते रहे कि पहले मैं स्वयं तो संतुष्ट हो जाऊँ। और देखिये जब कवि स्वयं संतुष्ट होता है तब कैसा काम आता है :-


राजेन्द्र स्वर्णकार


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हरिगीतिका : हरिगीतिका

हरिगीतिका वो छंद है , मन मोह ले जो आपका !
हे छंदसाधक श्रेष्ठ ! रच कर देखिए हरिगीतिका !
इस छंद में आभास करलें आप पावन प्रीत का ! 
जब  डूब जाएंगे , मिलेगा स्वाद परमानंद का !
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* प्रेम : हरिगीतिका *
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प्रेम : हरिगीतिका

सुध भूल कर मीरा मगन हो’ नृत्य-दीवानी हुई !
विष पी गई धुन श्याम गा’कर प्रेम मस्तानी हुई !
दासी कन्हैया की गली की ; प्रेमवश रानी हुई !
जोगन चली पग धर’ वहीं पर प्रीत-रजधानी हुई !

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प्रेम : हरिगीतिका

आशय समझिए प्रेम का , है प्रेम केवल भावना !
है आतमाओं का मिलन ! कब, प्रेम, दैहिक-वासना ?
दे’कर पुनः मत ढूंढ़िए कुछ प्राप्ति की संभावना !
रहिए समर्पित ! मत करें अवहेलना-अवमानना !

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प्रेम : हरिगीतिका

आधार हर संबंध का यह प्रेम जीवन सार है !
निस्वार्थ-निर्मल प्रेम है ; तो सादगी शृंगार है ! 
परिवार में है प्रेम तो हर दिन नया त्यौंहार है !
यदि प्रेम है व्यवहार में ; वश में सकल संसार है !

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प्रेम : हरिगीतिका

वश में स्वयं भगवान भक्तों के हुए हैं प्रेम से ! 
बरी सुदामा सूर मीरा तर गए हैं प्रेम से !
जग में समझ वाले हमेशा ही रहे हैं प्रेम से ! 
प्रिय छंद सुनिए प्रेम से , हम ने कहे हैं प्रेम से !

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प्रेम : हरिगीतिका

इक पल लगे मन शांत ; सागर में कभी हलचल लगे !
प्रत्यक्ष हो कोई प्रलोभन किंतु मन अविचल लगे !
प्रिय के सिवा सब के लिए मन-द्वार पर 'सांकल' लगे ! 
प्रतिरूप प्रिरमातमा का , प्रेम में प्रति-ल लगे !

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प्रेम : हरिगीतिका

रहता उपस्थित सर्वदा क्यों मौन अधरों पर प्रिये ?
स्वीकारिए , यदि प्रीत है ! क्यों छद्म आडंबर प्रिये ?
हम देह दो , इक प्राण हैं ! हम में कहां अंतर प्रिये ?
साक्षी हृदय की प्रीत के हैं ये धरा-अंबर प्रिये !

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प्रेम : हरिगीतिका

तुम बिन हृदय व्याकुल - व्यथित है , व्यग्र बारंबार है ! 
तुमसे दिवस हर इक दिवाली , तीज है , त्यौंहार है !
मन हर परीक्षा , हर कसौटी के लिए तैयार है !
हे प्रिय ! प्रणय-अनुरोध मेरा क्या तुम्हें स्वीकार है ?!

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प्रेम : हरिगीतिका

म्मोहिनी ! स्नेहिल ! जीली ! स्वप्नवत् संसार-सी ! 
सौभाग्य की संभावनाओं के - खुले - 'नव-द्वार' - सी ! 
साक्षात् मेरी कल्पना ! तुम स्वप्न हो! साकार-सी ! 
प्राणेश्वरी ! प्रियतम-प्रिये ! तुम प्राण ! प्राणाधार-सी !

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प्रेम : हरिगीतिका

ऐ आसमां की अप्सरा ! ऐ हूर ! ज़न्नत की परी ! 
हारा हृदय मैंने तुम्हारे नाम पर हृदयेश्वरी !
ऐ सुंदरी ! नव रस भरी ! मृदु मंजरी ! ज़ादूगरी ! 
मधु तुम ! तुम्हीं मधु-रस ! तुम्हीं मधु-कोष ! तुम ही मधुरी !

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उर्दू निष्ठ हरिगीतिका

रख लीजिए है पाक हीरा परखिए-परखाइए !
ज्यूं चाहते हैं आज़माएं , मत ज़रा शरमाइए !
लिल्लाह ! अब अहसान कीजे , प्यार से मुसकाइए !
है इल्तिज़ा सरकार ! मेरा दिल न यूं ठुकराइए !

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महबूब की ख़ामोशियों से बात दिल की जान ले ! 
मा’शूक़-औ’-आशिक़ किसी का क्यों कभी अहसान ले ?
हर चाहने वाला करे वह… दिल कहे , जो ठान ले !
दौलत नहीं , ऊंची मुहब्बत ! ऐ ज़माने मान ले !
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हैं प्यार से खाली सभी  दिल प्यास ले जाएं कहां ?
प्यासी ज़मीं है और प्यासा है बहुत ये आसमां !
हर एक ज़र्रा प्यास ले’ दिल में तड़पता है यहां !
आओ , जहां में चारसू भर दें मुहब्बत के निशां !
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राजस्थानी हरिगीतिका

बणग्यो अमी ; विष …प्रीत कारण , प्रीत मेड़तणी  करी !
प्रहलाद-बळ हरि आप ; नैड़ी आवती मिरतू डरी !
हरि-प्रीत सूं पत लाज द्रोपत री झरी नीं , नीं क्षरी !
राजिंद री अरदास सायब ! प्रीत थे करज्यो 'खरी' !

भावार्थ

प्रेम तो मेड़ता वाली मीरा ने किया, जिसकी प्रीति के कारण विष भी अमृत बन गया । प्रीति के कारण ही भगवान स्वयं बल-संबल बन गए तो मृत्यु भी प्रह्लाद के समीप आने से डरतीरही। परमात्मा से प्रीति के पुण्य से ही द्रोपदी की प्रतिष्ठा और लज्जा क्षत-आहत अथवा भंग नहीं हुई । हे सुजन ! राजेन्द्र की आपसे प्रार्थना है कि आप प्रीत करें तो सच्ची प्रीत करें ।

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बिन प्रीत बस्ती सून : पाणी मांय तड़फै माछळ्यां !
थे प्रीत-धूणो ताप’ रोही मांय गावो रागळ्यां ! 
इण प्रीत रै परभाव बणसी सैंग कांटां सूं कळ्यां !
घर ज्यूं पछै लागै परायी स्सै गुवाड़्यां , स्सै गळ्यां !


भावार्थ

प्रेम न हो तो बस्ती भी सुनसान प्रतीत होती है । बिना प्रेम पानी में भी मछली प्यासी तड़पती रहती है। आप प्रीत के धूने की आंच तपने के बाद , हर सुख-सुविधा से वंचित निर्जन रोही में भी मस्ती में झूमते-गाते रहते हैं । प्रेम के प्रभाव से सारे कांटे कलियां बन जाते हैं । मन में प्रेम-भाव हो , तो  पराई गलियां-मुहल्ले , सारा संसार ही अपना घर लगने लगता है ।

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इन छंदों में क्या नहीं है। रस भरे शब्दों के साथ-साथ साज सज्जा भी की गई है सो तो है ही, उस के अलावा भक्ति रस, श्रंगार रस, ज़िंदगी और मुहब्बत की बातें, हिन्दी अनुवाद के साथ राजस्थानी टच,  उर्दू अल्फ़ाज़ से सुसज्जित भाषाई लावण्य, अलंकारों का समुचित प्रयोग, छंद निर्वाह के साथ साथ सटीक विवेचन और सुंदर भाव निरूपण - और भी न जाने क्या क्या। भक्त प्रह्लाद, शबरी, सुदामा, सूर, मीरा, कृष्ण................एक साथ इतना कुछ, तभी आप इतना समय ले रहे थे राजेन्द्र भाई। 

निश्चित रूप से ही, अधिक आनंद तो पाठकों को आ रहा होगा, इन छंदों को पढ़ कर।इन पंद्रह छंदों में से जब चुनाव करने की बारी आयी तो राजेन्द्र भाई की ही तरह हम भी किसी एक छंद को भी निकाल नहीं पाये, इसलिए सारे के सारे छंद [ज्यों के त्यों] पाठकों की अदालत के समक्ष प्रस्तुत कर दिये हैं, जुर्म-फ़र्द पाठक माई-बाप के हवाले................... 


जय माँ शारदे!

50 टिप्‍पणियां:

  1. कल के चर्चा मंच पर, लिंको की है धूम।
    अपने चिट्ठे के लिए, उपवन में लो घूम।।

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  2. राजेन्द्र जी ,मुझे तो छंद की अधिक जानकारी नहीं है पर हर छंद
    का अपना अंदाज लगा |बहुत सुन्दर विचारों से सजे छंद |
    मेरी बधाई स्वीकार करें |
    आशा

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  3. राजेन्द्र भईया को पढ़ना तो हमेशा ही सुखद है...
    अद्भुत प्रवाह है उनके छंद में...
    सादर बधाई/

    "यहाँ तो सचमुच आनंद है, काव्य की रस-धार बहे
    कहानी पंक्ति पंक्ति छंद की, अपने अंदाज में कहे
    कुछ पूछ लूं कुछ सीख लूं मैं, मन मयूरा मन में गहे
    अभ्यास से संभव सके हो, हबीब हरिगीतिका कहे"

    नवीन भईया का सादर आभार....

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  4. वश में स्वयं भगवान भक्तों के हुए हैं प्रेम से !
    शबरी सुदामा सूर मीरा तर गए हैं प्रेम से !
    जग में समझ वाले हमेशा ही रहे हैं प्रेम से !
    प्रिय छंद सुनिए प्रेम से , हम ने कहे हैं प्रेम से !

    ....सभी छंद बहुत सुंदर और प्रभावपूर्ण...आभार

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  5. सभी छंद एक से बढ़ कर एक हैं ! ऐसा लग रहा है प्रेम सागर में भक्ति भाव की नैया अविराम बहती जाती है और पाठक भाव विभोर हो उसके माधुर्य का पान कर रहे हैं ! बहुत सुन्दर !

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  6. जय हो भाई इतनी पीकर मन छक गया। हर छंद शानदार है। लाजवाब है। करोड़ों बार बधाई राजेन्द्र जी को। जय हो

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  7. बहुत सुन्दर छंद!
    पूरा प्रेममय !
    आप सबों को सुप्रभात!
    मेरा नमस्कार!

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  8. प्रेम के इस महाकाव्यीय अनुष्ठान पर नतमस्तक -रचनाओं और रचनाकार दोनों के लिए अव्यक्त आत्मिक उदगार !

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  9. राजेन्‍द्र जी आपके चरण कहाँ है? जरा छूने का अवसर देंगे क्‍या? एक से एक उत्तम छंद और आपने तो झड़ी ही लगा दी! अब हम कहेंगे कि राजेन्‍द्रजी का दिमाग कम्‍प्‍यूटर से भी अधिक तेज चलता है।

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  10. .



    आदरणीया दीदी अजित गुप्ता जी

    ऐसा कहेंगी तो पाप का भागी बन जाऊंगा …
    मैं स्वयं आपके चरण स्पर्श करने का अधिकारी हूं … एक बार सौभाग्य मिल भी चुका है जब आप साहित्य अकादमी, उदयपुर की अध्यक्ष के नाते एक कार्यक्रम में बीकानेर पधारी थीं …

    मां सरस्वती मुझसे करवाती रहती है , मैं तो निमित्त हूं

    कृपा स्नेह आशीर्वाद सदैव बनाए रहें मुझ पर …

    मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  11. पहले मैं स्वयं तो संतुष्ट हो जाऊँ....

    संतुष्ट भी ऐसे की बस कमाल ही है .....
    राजेन्द्र जी में तो साक्षात् सरस्वती विराजमान है ...
    सरस्वती पुत्र हैं वे ....

    आशय समझिए प्रेम का , है प्रेम केवल भावना !
    है आतमाओं का मिलन ! कब, प्रेम, दैहिक-वासना ?
    दे’कर पुनः मत ढूंढ़िए कुछ प्राप्ति की संभावना !
    रहिए समर्पित ! मत करें अवहेलना-अवमानना !

    हमारा तो बस नमन है उन्हें ....!!

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  12. लाजवाब, किन शब्दों में तारीफ़ करूं समझ नहीं आता. सारा वातावरण प्रेममय बना दिया है.ये विशेष पसंद आये.

    आधार हर संबंध का यह प्रेम जीवन सार है !
    निस्वार्थ-निर्मल प्रेम है ; तो सादगी शृंगार है !
    परिवार में है प्रेम तो हर दिन नया त्यौंहार है !
    यदि प्रेम है व्यवहार में ; वश में सकल संसार है !
    ======================================
    हैं प्यार से खाली सभी दिल प्यास ले जाएं कहां ?
    प्यासी ज़मीं है और प्यासा है बहुत ये आसमां !
    हर एक ज़र्रा प्यास ले’ दिल में तड़पता है यहां !
    आओ , जहां में चारसू भर दें मुहब्बत के निशां !

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  13. वाह! मज़ा आगया...बधाई भाई राजेन्द्र जीको और धन्यवाद भाई नवीन जी को

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  14. राजेंद्र जी , बधाई ।
    आपके इन छंदों की छटा निराली है। पढ़कर काव्य पिपासा शांत हुई। आपकी काव्य प्रतिभा अद्वितीय है, अनुपम है।

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  15. राजेन्‍द्र जी इस बार बीकानेर आने पर आपसे मिलने का अवसर ही नहीं मिलेगा अपितु बहुत कुछ सीखने और समझने का भी अवसर मिलेगा, ऐसी उम्‍मीद है।

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  16. ek se badhkar ek chand kya kanhu ...shabd kam pad rahe hain tareef ke liye.humesha ki tarah addbhut rachnayen.

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  17. ....सभी छंद बहुत सुंदर और प्रभावपूर्ण...आभार

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  18. यह पोस्टलेखक के द्वारा निकाल दी गई है.

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  19. Ek se badhkar ek chand .. Rajendra ji aapki is baat se sabse zayada khushi hui ki main khud to santust ho jaaun.. jab ham khud santust ho tabhi kisi aur ko badiya padhne ke liye uplabdh kara sakte hain.. isi tarah aap nirantar prabhvashaali likhte rahe yahi dua hai

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  20. प्रेम पगे सारे छंद एक से बढ़ कर एक ... अनुप्रास अलंकार का भी सुन्दर प्रयोग ... आनन्द आ गया पढ़ कर ..सुन्दर रचनाओं को पढवाने के लिए आभार

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  21. जो मन को भा जाए वही श्रेष्ठ रचना है।
    सारे के सारे छन्द मन को भा गये।

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  22. प्रेम : हरिगीतिका

    तुम बिन हृदय व्याकुल - व्यथित है , व्यग्र बारंबार है !
    तुमसे दिवस हर इक दिवाली , तीज है , त्यौंहार है !
    मन हर परीक्षा , हर कसौटी के लिए तैयार है !
    हे प्रिय ! प्रणय-अनुरोध मेरा क्या तुम्हें स्वीकार है ?!

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    प्रेम : हरिगीतिका

    सम्मोहिनी ! स्नेहिल ! सजीली ! स्वप्नवत् संसार-सी !
    सौभाग्य की संभावनाओं के - खुले - 'नव-द्वार' - सी !
    साक्षात् मेरी कल्पना ! तुम स्वप्न हो! साकार-सी !
    प्राणेश्वरी ! प्रियतम-प्रिये ! तुम प्राण ! प्राणाधार-सी !

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    प्रेम : हरिगीतिका

    ऐ आसमां की अप्सरा ! ऐ हूर ! ज़न्नत की परी !
    हारा हृदय मैंने तुम्हारे नाम पर हृदयेश्वरी !
    ऐ सुंदरी ! नव रस भरी ! मृदु मंजरी ! ज़ादूगरी !
    मधु तुम ! तुम्हीं मधु-रस ! तुम्हीं मधु-कोष ! तुम ही मधुकरी !

    rajendra ji ,
    bas, anand aa gaya.kuchh aur kya kahen!

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  23. भाई-सा ! आपकी जिह्वा पर तो साक्षात माँ शारदे विराजती हैं । अनुपम कृतियाँ ।

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  24. मेरी छंदों की जानकारी शून्य के नीचे है...लेकिन राजेंद्र जी के छंदों में प्रयुक्त शब्द और भाव अद्भुत हैं...राजेंद्र जी की लेखनी से ऐसे ही चमत्कार देखने को मिलते हैं...क्या कहूँ...ये छन्द मेरे जैसे के लिए गूंगे का गुड है...

    नीरज

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  25. राजेन्द्र जी ,
    अभिभूत हूँ आपकी भाव-संपदा और काव्य-कौशल से .दोनो एक से एक बढ़ कर !
    प्रशंसा कितनी भी करूँ कुछ न कुछ रह जायेगा .
    देवि सरस्वती आपकी लेखनी पर विराजती हैं -धन्य है आप !

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  26. प्रिय छंद सुनिए प्रेम से , हम ने कहे हैं प्रेम से ! ..
    वाह-वाह !!

    सभी के सभी छंद प्रेमपगे, भावसिक्त और मनोहारी हैं. आपने हृदय हर लिया, राजेन्द्रभाईजी. अभिभूत हूँ.. !!
    विमुग्धकारी रचना-कर्म को कोटिशः नमन !

    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  27. आधार हर संबंध का यह प्रेम जीवन सार है !
    निस्वार्थ-निर्मल प्रेम है ; तो सादगी शृंगार है !
    परिवार में है प्रेम तो हर दिन नया त्यौंहार है !
    यदि प्रेम है व्यवहार में ; वश में सकल संसार है !
    *************************************
    रहता उपस्थित सर्वदा क्यों मौन अधरों पर प्रिये ?
    स्वीकारिए , यदि प्रीत है ! क्यों छद्म आडंबर प्रिये ?
    हम देह दो , इक प्राण हैं ! हम में कहां अंतर प्रिये ?
    साक्षी हृदय की प्रीत के हैं ये धरा-अंबर प्रिये !

    और आपने.....

    "हरिगीतिका लिख कर किया हम पर बहुत उपकार है !!
    इस प्रेम से ही प्रेम है , प्रेमी सकल संसार है !!"
    चुक गए सारे शब्द हैं, जिव्हा मेरी चुपचाप है !
    वर्णन करूँ इस प्रेम कविता का न मुझमें ताप है !!"

    आपकी प्रेम हरिगीतिका पढ़ने के बाद एक बार फिर से आपके ब्लॉग पर गयी...फिर से गज़ल पढ़ी और सहमत हूँ आपसे !
    आपने सच ही कहा है...

    "ज़हब से अशआर हैं राजेन्द्र के
    लफ्ज़-लफ्ज़ में एक नगीना आ गया..."

    माँ सरस्वती की कृपा आप पर ऐसे ही बनी रहे..

    ***punam***
    bas yun...hi..
    tumhare liye...

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  28. सभी एक से बढ़कर एक हैं..... लाजवाब प्रस्तुति

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  29. राजेंद्र जी , आपके छंद एवं कविता कोष पढ़ के बहुत अच्छा लगा ....हर शब्द में प्रेम सुधा के माधुर्य का एहसास हुआ ....आपके नज़रों से इस जीवन को देखा जाये तोह जीवन मिठास से भर जाये...धन्यवाद ....Rashmi Nambiar

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  30. राजेन्द्र जी , छंद का ज्ञान तो हमें भी बिल्कुल नहीं है । लेकिन इस भावपूर्ण प्रस्तुति को सहेज कर रख लिया है ताकि समय समय पर पढ़कर समझने का प्रयास करता रहूँ ।
    बेशक बेहद शानदार प्रस्तुति है ।

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  31. राजेंद्र भाई ! शत-शत बधाई. हृदयग्राही छंद.
    हरिगीतिका वो छंद है , मन मोह ले जो आपका !
    हे छंदसाधक श्रेष्ठ ! रच कर देखिए हरिगीतिका !
    इस छंद में आभास करलें आप पावन प्रीत का !
    जब डूब जाएंगे , मिलेगा स्वाद परमानंद का !

    रेखांकित छेकानुप्रास, 'का' अन्त्यानुप्रास,
    १ पंक्ति: ह-वो, छं-जो, ३. पा-प्री, में श्रुत्यानुप्रास.

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  32. राजेन्द्र जी
    आशीर्वाद
    क्षमा नहीं ज्ञान रहा छंद का
    पढ़ कर समझने का प्रयास करूंगी
    धन्यवाद

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  33. मेरे आमंत्रण का मान रख कर यहां पधार कर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया और असीम स्नेह से मुझे धन्य करने वाले समस्त् स्नेहीजनों को मेरा प्रणाम , हार्दिक नमन और आभार !

    स्वतः ही मेरी झोली में टिप्पणियों का ख़ज़ाना डालने वाले समस्त् बड़े दिल वाले प्रियजनों के प्रति कृतज्ञतापूर्वक आभार , नमन , प्रणाम !


    समस्यापूर्ति मंच संचालक प्रियवर नवीन जी के प्रति आभार !

    आशा है, आप सबका स्नेह मुझे सदैव मिलता रहेगा ।

    मेरे ब्लॉग
    शस्वरं
    shabdswarrang.blogspot.com
    पर भी आपका हार्दिक स्वागत है ! अवश्य आइएगा ,मुझे प्रतीक्षा है ।


    देवोत्थापन एकादशी की बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  34. rajandraji bahut hi shaandaar aur aek se badhkar aek chand hain bahut badhaai aapko.

    मुझे ये बताते हुए बड़ी ख़ुशी हो रही है , की आपकी पोस्ट आज की ब्लोगर्स मीट वीकली (१६)के मंच पर प्रस्तुत की गई है /आप हिंदी की सेवा इसी तरह करते रहें यही कामना है /आपका
    ब्लोगर्स मीट वीकली के मंच पर स्वागत है /आइये और अपने विचारों से हमें अवगत करिए / जरुर पधारें /

    जवाब देंहटाएं
  35. राजेंद्र भाई, 'अद्भुत'...यही निकल रहा है मुह से. आज के ज़माने में छंद पर इतनी गहरी पकड़ वाले बहुत कम लोग हैं. आप को शुभकामना..आप साहित्य की उस गंगा को सूखने से बचा रहे हैं, जो हिन्दी की तथाकथित प्रगतिशील पीढ़ी सुखाने में लगी है. छंद में लिखना इनके लिए पिछडापन है. इसलिए अब जिसे देखो, नई कविता लिख मार रहा है. लेकिन हमें छंद को बचना ही है. परंपरा के सहारे आधुनिकदृष्टि चाहिए. मैं कोशिश करता हूँ, मगर इतनी सूक्ष्मता और गहरी से लिख नहीं पता, मगर जो लिखते हैं, उन्हें मेरा नमन

    जवाब देंहटाएं
  36. प्रिय राजेंद्र जी,
    स्नेहाभिवादन|
    समस्या पूर्ति मंच पर आपके अत्यंत मनोहारी हरिगीतिका छंद देखे| सभी छंद सुन्दर हैं| छंद परम्परा को जीवित रखने के आप के प्रयास के लिए साधुवाद| कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से यह दो छंद मुझे बहुत अच्छे लगे|शुभकामनायें |
    -अरुण मिश्र.

    1."इक पल लगे मन शांत ; सागर में कभी हलचल लगे!
    प्रत्यक्ष हो कोई प्रलोभन किंतु मन अविचल लगे !
    प्रिय के सिवा सब के लिए मन-द्वार पर 'सांकल' लगे !
    प्रतिरूप प्रिय परमातमा का , प्रेम में प्रति-पल लगे !"

    2."बणग्यो अमी ; विष…प्रीत कारण, प्रीत मेड़तणी करी !
    प्रहलाद-बळ हरि आप ; नैड़ी आवती मिरतू डरी !
    हरि-प्रीत सूं पत लाज द्रोपत री झरी नीं , नीं क्षरी !
    राजिंद री अरदास सायब ! प्रीत थे करज्यो 'खरी' !"
    ७ नवम्बर २०११ ९:१३ पूर्वाह्न

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  37. छन्‍दोबद्ध कविता मुझे सदैव ही पढ़ने में प्रिय लगती रही है। यही कारण है कि अकविता या आधुनिक कविता इत्‍यादि को पढ़ने में मजा कम आता है, हालांकि अनुभूति के स्‍तर पर वे कवितायें कहीं भी कमतर हों, ऐसी बात नहीं है। मगर छन्‍द तो छन्‍द है। बिना लय और ताल के भी कहीं ऩृत्‍य का आनन्‍द लिया जा सकता है?

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  38. लाज़व़ाब...आपकी लेखनी को नमन जिसमें साक्षात माँ सरस्वती का वास है|

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  39. KITNEE ADBHUT HAIN AAPKEE KAVYA PANKTIYAN. MAIN
    PADHTA GAYAA AUR JHOOMTA GYA . AESAA ALAUKIK
    AANAND KABHEE - KABHEE MILTA HAI . AAPKEE LEKHNI
    KO MERAA NAMAN .

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  40. आदरणीय दादा ! हरगीतिका छंद के बारे में जरा भी पता नहीं मुझे इस लिए आया था और देख कर वापस चला गया था.
    आपने फिर आदेश दिया तो फिर से देखा और इस बार कुछ कुछ समझ मे आ रहा है.
    राजेंद्र दादा ने कहा, हरगीतिका में आइये
    गर छंद का मकरंद पीना हो भ्रमर बनजाएये
    आशीष मेरा है तुम्हारे साथ तुम लघु भ्रात हो
    मैंने कहा आशीष दो आशीष दो तुम तात हो !

    दादा सादर प्रणाम !

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  41. सम्मोहिनी ! स्नेहिल ! सजीली ! स्वप्नवत् संसार-सी !
    सौभाग्य की संभावनाओं के - खुले - 'नव-द्वार' - सी !
    साक्षात् मेरी कल्पना ! तुम स्वप्न हो! साकार-सी !
    प्राणेश्वरी ! प्रियतम-प्रिये ! तुम प्राण ! प्राणाधार-सी !


    -राजेन्द्र जी के क्या कहने...उनकी लेखनी के तो हमेशा दीवाने रहे हैं. आनन्द आ गया.

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  42. 4/4 - आ. योगराज प्रभाकर जी द्वारा एमेल से भेजी गयी टिप्पणी:-

    //बणग्यो अमी ; विष …प्रीत कारण , प्रीत मेड़तणी करी !
    प्रहलाद-बळ हरि आप ; नैड़ी आवती मिरतू डरी !
    हरि-प्रीत सूं पत लाज द्रोपत री झरी नीं , नीं क्षरी !
    राजिंद री अरदास सायब ! प्रीत थे करज्यो 'खरी' !//

    अय हय हय हय !!! अब भरी है दिल-ओ-रूह में मिट्टी की ख़ुशबू ! ओर ये ख़ुशबू दुनिया के किसी भी इतर से बरगुजीदा है ! प्रेम का यह रंग भी बहुत चटकीला ओर दिलकश है ! रूह को ठंडक पहुँचाता हुआ छंद है यह !

    आप विश्वास करें आदरणीय राजेन्द्र भाई जी, मैं बहुत कुछ कहना चाहता था - बहुत कुछ ! मगर उस समीक्षाकार को मेरे अंदर के काव्य-प्रेमी ने झिड़क कर दूर बिठा दिया तथा मैंने जो भी अर्ज़ किया है, वो महज़ एक ईमानदार छंद प्रेमी के सीधे दिल से उभरे जज़्बात मात्र हैं ! अंत में मैं सिर्फ इतना ही अर्ज़ करना चाहूँगा, कि यह हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि आप जैसे रोशन दिमाग विद्वान ने भारतीय सनातनी छंदों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है ! इतने पुरनूर ओर पुरकशिश हरिगीतिका छंदों के लिए आपको दिल की गहराइयों से मुबारकबाद देता हूँ ! सादर !

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  43. 3/4 - आ. योगराज प्रभाकर जी द्वारा एमेल से भेजी गयी टिप्पणी:-

    //सम्मोहिनी ! स्नेहिल ! सजीली ! स्वप्नवत् संसार-सी !
    सौभाग्य की संभावनाओं के - खुले - 'नव-द्वार' - सी !
    साक्षात् मेरी कल्पना ! तुम स्वप्न हो! साकार-सी !
    प्राणेश्वरी ! प्रियतम-प्रिये ! तुम प्राण ! प्राणाधार-सी !//

    आहा हा हा हा !! क्या स्वर्णिम अलंकार पेश किए हैं मान्यवर, पढ़ने वाले का भाव-विभोर हो जाना तो स्वाभाविक ही है ! माँ सरस्वती की पूर्ण कृपा से ही ऎसी शाहकार चीज़ का निर्माण हो सकता है ! आफरीन आफरीन आफरीन !


    //ऐ आसमां की अप्सरा ! ऐ हूर ! ज़न्नत की परी !
    हारा हृदय मैंने तुम्हारे नाम पर हृदयेश्वरी !
    ऐ सुंदरी ! नव रस भरी ! मृदु मंजरी ! ज़ादूगरी !
    मधु तुम ! तुम्हीं मधु-रस ! तुम्हीं मधु-कोष ! तुम ही मधुकरी !//

    इस छंद की तारीफ के लिए शब्द साथ छोड़ रहे हैं, जिस के लिए ह्रदय हारा उसे ही हृदयेश्वरी भी कहा - लाजवाब !

    //रख लीजिए है पाक हीरा परखिए-परखाइए !
    ज्यूं चाहते हैं आज़माएं , मत ज़रा शरमाइए !
    लिल्लाह ! अब अहसान कीजे , प्यार से मुसकाइए !
    है इल्तिज़ा सरकार ! मेरा दिल न यूं ठुकराइए !//

    ये हरिगीतिका कई मायनो में मुनफ़रिद है ! भाषाई चौधराहट को धता बताती हुई, सीधी सादी हिन्दुस्तानी ज़ुबान में कही हुई इस रचना ने इस विधा को एक नया ही कलेवर प्रदान कर दिया है ! इस छंद के लिए मेरी एक्स्ट्रा वाह वाह !

    //महबूब की ख़ामोशियों से बात दिल की जान ले !
    मा’शूक़-औ’-आशिक़ किसी का क्यों कभी अहसान ले ?
    हर चाहने वाला करे वह… दिल कहे , जो ठान ले !
    दौलत नहीं , ऊंची मुहब्बत ! ऐ ज़माने मान ले !//

    सीधे दिल से निकले हुए बोल - जो सीधे दिल पर असर करते हैं ! कितनी मासूमिअत है इन पंक्तियों में, कुछ भी तो मसनूई नहीं लग रहा ! ना तो भारी भरकम शब्द ना ही कलिष्ट भाषा, पदने वाले को दीवाना करने के लिए ओर क्या दरकार होता है ? लाख लाख बधाई इस छंद पर !

    //हैं प्यार से खाली सभी दिल प्यास ले जाएं कहां ?
    प्यासी ज़मीं है और प्यासा है बहुत ये आसमां !
    हर एक ज़र्रा प्यास ले’ दिल में तड़पता है यहां !
    आओ , जहां में चारसू भर दें मुहब्बत के निशां !//

    वाह वाह वाह वाह वाह !!! हरसू मोहब्बत की महक बिखेरती इस रचना को पढ़कर सकारात्मक ऊर्जा का आभास हुआ ! आपकी ओजस्वी कलाम का जादू सर चढ़ कर बोलने लगा है ! चश्म-ए- -बद्द्दूर !

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  44. 2/4 - आ. योगराज प्रभाकर जी द्वारा एमेल से भेजी गयी टिप्पणी:-


    //वश में स्वयं भगवान भक्तों के हुए हैं प्रेम से !
    शबरी सुदामा सूर मीरा तर गए हैं प्रेम से !
    जग में समझ वाले हमेशा ही रहे हैं प्रेम से !
    प्रिय छंद सुनिए प्रेम से , हम ने कहे हैं प्रेम से !//

    आपका यह सूफियाना अंदाज़ भी बहुत मनभावन है, कितनी ऊंचाई बख़्श दी है आपने इस विधा को - गज़ब गज़ब गज़ब !!

    //इक पल लगे मन शांत ; सागर में कभी हलचल लगे !
    प्रत्यक्ष हो कोई प्रलोभन किंतु मन अविचल लगे !
    प्रिय के सिवा सब के लिए मन-द्वार पर 'सांकल' लगे !
    प्रतिरूप प्रिय परमातमा का , प्रेम में प्रति-पल लगे !//

    बात कहना, वो भी इस आला दर्जे की, वो भी छंद में ओर छंद भी अलंकृत - तारीफ को शब्द कम ना पड़ें तो ओर ओर क्या हो ? रूह को सुकून देने वाला छंद - आनंद, परमानंद, सच्चिदानंद !

    //रहता उपस्थित सर्वदा क्यों मौन अधरों पर प्रिये ?
    स्वीकारिए , यदि प्रीत है ! क्यों छद्म आडंबर प्रिये ?
    हम देह दो , इक प्राण हैं ! हम में कहां अंतर प्रिये ?
    साक्षी हृदय की प्रीत के हैं ये धरा-अंबर प्रिये !//

    "हम देह दो , इक प्राण हैं" - ये स्टेटमेंट पवित्र प्रेम की पराकाष्ठा है ! लाजवाब कहन !

    //तुम बिन हृदय व्याकुल - व्यथित है , व्यग्र बारंबार है !
    तुमसे दिवस हर इक दिवाली , तीज है , त्यौंहार है !
    मन हर परीक्षा , हर कसौटी के लिए तैयार है !
    हे प्रिय ! प्रणय-अनुरोध मेरा क्या तुम्हें स्वीकार है ?!//

    ओए होए होए होए ! प्रणय की प्रार्थना भी इस तहम्मुल-मिजाजी से ? ओर क्या तश्बीहें दी हैं भाई जी, सलाम है आपकी सोच को ओर लेखनी को !

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  45. 1/4 - आ. योगराज प्रभाकर जी द्वारा एमेल से भेजी गयी टिप्पणी:-

    नवीन भाई जी,

    मैं राजेन्द्र स्वर्णकार जी की रचनाओं पर टिप्पणी पोस्ट करने की कई बार असफल कोशिश कर चुका हूँ ! कृपया मेरी टिप्पणी उनकी रचनाओं के सम्मान में सही स्थान पर पोस्ट कर दीजिए, कृपा होगी.

    आपका भाई
    योगराज प्रभाकर

    //सुध भूल कर मीरा मगन हो’ नृत्य-दीवानी हुई !
    विष पी गई धुन श्याम गा’कर प्रेम मस्तानी हुई !
    दासी कन्हैया की गली की ; प्रेमवश रानी हुई !
    जोगन चली पग धर’ वहीं पर प्रीत-रजधानी हुई !//

    क्या मस्ती में झूमता हुआ छंद कहा है - वाह ! मीरा ओर श्याम के पवित्र प्रेम को किस खूबसूरती से शब्दों में बांधा है - वाह !

    //आशय समझिए प्रेम का , है प्रेम केवल भावना !
    है आतमाओं का मिलन ! कब, प्रेम, दैहिक-वासना ?
    दे’कर पुनः मत ढूंढ़िए कुछ प्राप्ति की संभावना !
    रहिए समर्पित ! मत करें अवहेलना-अवमानना !//

    प्रेम की इस से बेहतर परिभाषा भला ओर क्या होगी ? लाजवाब हरिगीतिका छंद वाह !!!

    आधार हर संबंध का यह प्रेम जीवन सार है !
    निस्वार्थ-निर्मल प्रेम है ; तो सादगी शृंगार है !
    परिवार में है प्रेम तो हर दिन नया त्यौंहार है !
    यदि प्रेम है व्यवहार में ; वश में सकल संसार है !

    प्रेम ही जीवन सार, प्रेम ही जीवन आधार, प्रेम ही त्यौहार ओर प्रेम ही के वश में सकल संसार ! कितनी आसानी से आप अपनी बात कह जाते हैं प्रभु - साधु साधु !!

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  46. रहता उपस्थित सर्वदा ,यह मौन अधरों पर प्रिये
    यह मौन ही संस्कार है ,नहीं छद्म आडम्बर प्रिये
    सचमुच तुम्हें है प्रेम तो नयनों की अभिव्यक्ति पढ़ो
    या फिर सिखाऊँ प्रेम लिपि और नयन के अक्षर प्रिये.

    सुध भूल कर हम मगन हो , राजेंद्र - दीवाने हुए !
    हरिगीतिका का प्रेम रस , पीकर के मस्ताने हुए!
    गलियाँ हो राजस्थान की या खेत छत्तीसगढ़ के हों !
    कश्मीर से कन्या- कुमारी , प्रेम - पैमाने हुए !

    वाह !!!! प्रेम हरिगीतिका ने पूरा वातावरण ही प्रेममय कर दिया.

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  47. वश में स्वयं भगवान भक्तों के हुए हैं प्रेम से !
    शबरी सुदामा सूर मीरा तर गए हैं प्रेम से !
    जग में समझ वाले हमेशा ही रहे हैं प्रेम से !
    प्रिय छंद सुनिए प्रेम से , हम ने कहे हैं प्रेम से !
    वाह!
    सभी छंद बेहद सुन्दर हैं!
    राजेन्द्र जी को हार्दिक बधाई!

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  48. यह अभी तक की सबसे सशक्त -सबसे समर्पित हो कर कही गयी -सबसे संगीतमय प्रस्तुति है --राजेन्द्र जी आप जीते जागते उत्सव हैं -- यह काव्य की सहस्त्र धारा है --किसी भी छन्द की साँगोपाँग विवेचना की जाय तो इस पोस्ट पर थीसिस लिखी जा सकती है !! मै सिर्फ व्यवहारिक औपचारिकता कर रह हूँ --जो लिखा जा सकता है लिखा गया है और जो लेखनीबद्ध किया जाने योग्य है वो इस पोस्ट के लिये आगे भी लिखा जायेगा --लेकिन फिर भी बहुत कुछ नहीं लिखा जा सकता जिसे कहते हैं कि कोई कोई रचना बिल्कुल नि:शब्द कर देती है !! कोई भी विशेषण छोटा है इस पोस्ट के लिये !! वाह !! वाह !! कमाल के छन्द हैं !!

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