सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
हरिगीतिका छंद आधारित आयोजन के अगले चक्र में आज हम पढ़ते हैं आ. बृजेश त्रिपाठी जी को। बृजेश जी मंच से पहले से जुड़े हुए हैं और हम पिछले आयोजनों में इन की कुण्डलिया और घनाक्षरियाँ पढ़ भी चुके हैं।
बृजेश त्रिपाठी |
संघर्ष दुष्कर ज़िन्दगी के, कँपकँपाते हैं हमें।
कर्तव्य पथ के शूल भी नित, डगमगाते हैं हमें।।
भटकें नहीं, हम सब, निरंतर, राह पर चलते रहें।
निज लक्ष्य जब तक सिद्ध ना हों, बेधड़क बढ़ते रहें।१।
इस हेतु ऋषियों ने रची थी, पर्व-उत्सव की प्रथा।
उपवास-व्रत उत्साह वर्धन, हम करें, संभव - यथा।।
उत्साह के अतिरेक में हम , गुम न हो जाएँ कहीं।
आओ विचारें आज हम सब, बैठ कर थोडा यहीं।२।
अनुरोध है यह आप सब से, मान इसको लीजिए।
थोडा भुला कर 'आत्म-रति' को, बात सबसे कीजिए।।
जीवन कसौटी सत्यता की, बस यही अविराम हो।
अपने लिए सब कष्ट, अपनों - के लिए आराम हो।३।
कर्तव्य पथ के शूल भी नित, डगमगाते हैं हमें।।
भटकें नहीं, हम सब, निरंतर, राह पर चलते रहें।
निज लक्ष्य जब तक सिद्ध ना हों, बेधड़क बढ़ते रहें।१।
इस हेतु ऋषियों ने रची थी, पर्व-उत्सव की प्रथा।
उपवास-व्रत उत्साह वर्धन, हम करें, संभव - यथा।।
उत्साह के अतिरेक में हम , गुम न हो जाएँ कहीं।
आओ विचारें आज हम सब, बैठ कर थोडा यहीं।२।
अनुरोध है यह आप सब से, मान इसको लीजिए।
थोडा भुला कर 'आत्म-रति' को, बात सबसे कीजिए।।
जीवन कसौटी सत्यता की, बस यही अविराम हो।
अपने लिए सब कष्ट, अपनों - के लिए आराम हो।३।
'अपने लिए सब कष्ट - अपनों के लिए आराम हो' यह पंक्ति सीधे दिल पर चोट करती है। इस के अलावा 'आत्म-रति' यानि आत्म-मुग्धता की स्थिति से बचने की सलाह देते हुए त्रिपाठी जी ने ज़िंदगी के यथार्थ को शब्दों के ज़रिये बख़ूबी उकेरा है। अंतिम पंक्ति [अपने लिए सब कष्ट] में १६+१२ का विधिवत अनुपालन चाह कर भी हम लोग नहीं कर पाये। इसे हटा कर देखा भी, रोचकता कथ्य की खत्म होने लगती है। सीधे सरल शब्दों में इस पंक्ति का कथ्य - सर चढ़ कर बोल रहा है। इस एक पंक्ति को यदि नज़र अंदाज़ कर दिया जाये तो हर पंक्ति में १६+१२ के विधान का विधिवत पालन हो रहा है।
आप आनंद लीजिये इन छंदों का, अपनी टिप्पणियों द्वारा सम्मान कीजिये फ़नकार का और हम तैयारी करते हैं अगली पोस्ट की।
जय माँ शारदे!
कविता अच्छी लगी और उसका संदेश भी |बधाई
जवाब देंहटाएंपर मात्रा गिनते समय कुछ गलतफहमी हो रहा है |
जैसे -अनुरोध है यह आप सब से ,
११२१ २ ११ २१ ११ २ =१६
पर शुरू में -२२१२२ तो आया ही नहीं| कृपया समझाने का कष्ट करें
जवाब देंहटाएं♥
आदरणीय बृजेश त्रिपाठी जी
सादर प्रणाम !
अच्छे छंद रचे हैं आपने …
प्रेरक भी -
भटकें नहीं, हम सब, निरंतर, राह पर चलते रहें
निज लक्ष्य जब तक सिद्ध ना हों, बेधड़क बढ़ते रहें
वाऽऽह्… !
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
@आदरणीया आशा अम्मा जी
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम !
मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि आप छंद समझने के लिए वाकई जांचती - परखती रहती हैं ।
#
आप तह तक स्वयं ही पहुंच चुकी हैं
अनुरोध है यह आप सब से ,
११२१ २ ११ २१ ११ २ =१६
शुरू में ११२१ २ और २२१२ एक ही बात है ।
१+१ = २ ही तो है :)
शायद नवीन जी व्यस्त हैं …
कोई कमी रही है मेरे समझाने में तो उम्मीद है वे और बेहतर बता पाएंगे ।
ब्रजेश त्रिपाठी जी !! बधाई!!
जवाब देंहटाएंसंघर्ष दुष्कर ज़िन्दगी के, कँपकँपाते हैं हमें।
कर्तव्य पथ के शूल भी नित, डगमगाते हैं हमें।।
भटकें नहीं, हम सब, निरंतर, राह पर चलते रहें।
निज लक्ष्य जब तक सिद्ध ना हों, बेधड़क बढ़ते रहें।१।
बहुत सुन्दर और मश्वरे के रूप में कहा है -इस बात को अधिकारी भाव से सर्वश्री सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सायन अज्ञेय जी ने कहा है --
मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने
मै कब कहता हूँ जीवन मरु नंदन कानन का कूल बने
काँटा कठोर है तीखा है ,उसमे उसकी मर्यादा है
मैं कब कहता हूँ वह घट्कर प्रांतर का ओछा फूल बने
इस हेतु ऋषियों ने रची थी, पर्व-उत्सव की प्रथा।
उपवास-व्रत उत्साह वर्धन, हम करें, संभव - यथा।।
उत्साह के अतिरेक में हम , गुम न हो जाएँ कहीं।
आओ विचारें आज हम सब, बैठ कर थोडा यहीं।२।
अब सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को
भूला हुआ था देर से मै अपने आप को -स्जिकेब --यह उत्साह केअतिरेक्की अवस्था के बाद का चित्र है बहुत सुन्दर छन्द खा है आपने !
अनुरोध है यह आप सब से, मान इसको लीजिए।
थोडा भुला कर 'आत्म-रति' को, बात सबसे कीजिए।।
जीवन कसौटी सत्यता की, बस यही अविराम हो।
अपने लिए सब कष्ट, अपनों - के लिए आराम हो।३।
बाँध लेगे क्या युझे यह मोम के बन्धन सजीले
पंथ की कारा बनेगे तितलियों के पर रंगीले
विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की एक गुनगुन
क्या भिगो देगे तुझे ये फूल के पर ओस गीले ..
तू न अपनी विजय को अपने लिये कारा बनाना ...... (महादेवी जी की यह पंक्तियाँ स्वातंतेत्तर भारत की पाश्चातय उन्मुख पीढी के लिये आज भी सन्देस है ..... लेकिन ब्रजेश जी !!!!!! आपने "" अपने लिए सब कष्ट, अपनों - के लिए आराम हो """ यह पंक्ति कह कर दिल जीत लिया स्तब्ध कर दिया यह ह्रदय से निकली हुई पंक्तियाँ है यह वही व्यक्तिकह सकता है जिसने अपनो के लिये दर अस्ल समर्पण को जियाहै !!! वाह !!! वाह !! बहुत सुन्दर बहुत मर्मस्पर्शी !!
ऊपर टाइपिंग की त्रुटियो को क्रपया अनदेखा करें -दूसरे छन्द में शायर का नाम शिकेब है और --"" बहुत सुन्दर छन्द कहा है "" --ऐसा पढें --मयंक
जवाब देंहटाएंराजेन्द्र जी बहुत आभारी हूँ की आपने समझा दिया है |मेरी तो यह धारणा बन रही थी की ,श्री राम चंद्र, की तरह वे ही शब्द लिए जाएँ जिन का क्रम २२१२२ हो |आपका बहुत बहुत आभार |
जवाब देंहटाएंआशा
बहुत ही सुंदर छंद हैं बृजेश जी के, उन्हें कोटि कोटि साधुवाद इन छंदों के लिए और आखिरी पंक्ति के लिए अलग से बधाई स्वीकार करें।
जवाब देंहटाएंजीवन कसौटी सत्यता की, बस यही अविराम हो।
जवाब देंहटाएंअपने लिए सब कष्ट, अपनों - के लिए आराम हो।३
bahut sundar chhand..
सुन्दर छन्द...प्रेरक..
जवाब देंहटाएं----११ भी २ है,, २ भी २ है....क्रपया ११२२..आदि को भूल जाइये.....,बस २८ मात्रा व १६-१२..अन्त मे लघु-गुरु ..ही याद रखिये...वही वास्तविक नियम है....
बहुत रोचक है ..ये बहुत संगीत की लय से जुड़े रहते है .. और सुन्दर भाव व् सन्देश के साथ.. मुझे बहुत पसंद है आपकी पोस्ट पर आना ..सब गुणीजन है यहाँ
जवाब देंहटाएंसुन्दर हरिगीतिका छंद के साथ ही अच्छी चर्चा पढकर आनंद आ गया...
जवाब देंहटाएंआदरणीय ब्रजेश जी को सादर बधाई...
सादर आभार
पिछली कई पोस्टें पढ़ी, यह छंद आनंद दे रहा है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
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