मरमरी बाँहों पे इस ख़ातिर फ़िदा रहता हूँ मैं - नवीन

मरमरी बाँहों पे इस ख़ातिर फ़िदा रहता हूँ मैं
इन के घेरे में गुलाबों सा खिला रहता हूँ मैं

फैलने के बावजूद उभरा हुआ रहता हूँ मैं
नैन-का-जल हूँ सो आँखों में सजा रहता हूँ मैं

तेरे दिल में रहने से मुझको नहीं कोई गुरेज़
गर तू मेरे हक़ में कर दे फ़ैसला – रहता हूँ मैं

देख ले सब कुछ भुला कर आज़ भी हूँ तेरे साथ 
तेरी यादों की सलीबों पर टँगा रहता हूँ मैं

उन पलों में जब सिमट कर चित्र बन जाती है वो
फ्रेम बन कर उस की हर जानिब जड़ा रहता हूँ मैं

उस की हर हसरत बजा है मेरी हर ख़्वाहिश फ़िजूल
ये हवस है या मुहब्बत सोचता रहता हूँ मैं

क्यूँ न मेरे जैसे जुगनू से ख़फ़ा हो माहताब
उस की प्यारी चाँदनी को छेड़ता रहता हूँ


आने वाला वक़्त ही ये तय करेगा दोसतो
मुद्दआ बनता हूँ या फिर मसअला रहता हूँ मैं
:- नवीन सी. चतुर्वेदी

अजनबी हरगिज़ न थे हम शहर में - नवीन

अजनबी हरगिज़ न थे हम शहर में। 
वक़्त ने कुछ देर से जाना हमें।। 

उलझनों से वासता तक था नहीं। 
क्या मज़े थे माँ तुम्हारी गोद में।। 

चाशनी हो जिस की बातों में हुज़ूर। 
वो ही पाता है जगह बाज़ार में।। 

अब हिफ़ाज़त का हुनर सिखलाएँगी। 
मछलियाँ जो फँस न पायीं जाल में।।

मैं ने ही धक्का दिया होगा मुझे। 
तीसरा था ही न कोई रेस  में।। 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसद्दस महजूफ
फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलुन

2122 2122 212

बादशाहों का फ़क़ीरों से बड़ा रुतबा न था - कृष्ण बिहारी 'नूर'


कृष्ण बिहारी 'नूर'


बादशाहों का फ़क़ीरों से बड़ा रुतबा न था
उस समय धर्म और सियासत में कोई रिश्ता न था

शख़्स मामूली वो लगता था मगर ऐसा न था
सारी दुनिया जेब में थी हाथ में पैसा न था

प्यार मिलता है प्यार देने से - तर्ज़ लखनवी


तर्ज़ लखनवी


जाने जाने की बात करते हो
क्यूँ सताने की बात करते हो

प्यार मिलता है प्यार देने से
किस ज़माने की बात करते हो

ग्राम सुधार - यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

सुघरे मकान होंय, चहुंधा उद्यान होंय,
सब ही समान होंय, ध्यान होंय काम में।

 छोटे परिवार होंय, ब्रिच्छ हू हज़ार होंय,
होंय व्हाँ बजार, मिलें - वस्तु सत्य दाम में।

कूप होंय, ताल होंय, सुंदर चौपाल होंय,
बाल हू खुसाल होंय, खेलें केलि धाम में।

'प्रीतम' अपार अन्न-धन के भण्डार होंय,
होंय यों सुधार यथा सीघ्र गाम-गाम में।।
:- यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'
['राष्ट्र हित शतक' से साभार]

इस क़दर बदलेगी दुनिया हमको अंदाज़ा न था - सैयद रियाज़ रहीम


सैयद रियाज़ रहीम



सोचता कोई नहीं है हाँ ही हाँ कहते हैं सब
चाहे कैसी भी ज़मीं हो आसमाँ कहते हैं सब

इस क़दर बदलेगी दुनिया हमको अंदाज़ा न था
जो हक़ीक़त है उसे भी दासताँ कहते हैं सब

खिल उठा है बहार का मौसम - राज़दान 'राज़'


राज़दान 'राज़'


आँखों में कोई तो नदी होगी
बर्फ़ दिल में पिघल रही होगी

ऊँचे पेड़ों पे आशियाना था
पहले बिजली वहीं गिरी होगी

लघु उद्योगन तें गरीबन सँभार होत - यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

लघु उद्योगन तें गरीबन सँभार होत
प्यार होत समृद्धि औ संपति के पाये ते

छोटे परिवारमें दुलार होत संतति कौ
सार औ सँभार होत दो ही सुत* जाये ते

सिच्छा के प्रचार ही ते पावन विचार होत
कोऊ ना लाचार होत बुद्धि बिकसाये ते

'प्रीतम' अपार अन्न-धन कौ भण्डार होत
सुख कौ अधार होत खेत हरियाये ते

*यहाँ 'दो सुत' का अभिप्राय 'दो बच्चों' से है 

:- यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'
['राष्ट्र हित शतक' से साभार]

पहले तो इज़हार टाला जायेगा - नवीन

पहले तो इज़हार  टाला जायेगा 
फिर बहानों को खँगाला जायेगा।१।

चैन लूटा, दिल भी घायल कर दिया।
और क्या अब दम निकाला जायेगा।२।

रो रहे हो क्यों, तुम्हें बोला तो था।
आँख से काजल निकाला जायेगा।३।

हम भला इन मुश्किलों से क्यों डरें।
जैसे भी होगा सँभाला जायेगा।४। 

मूँद कर आँखें करो रब दा ख़याल।
नाभि तक उस का उजाला जायेगा।५।

काश अगली बार कुछ इंसाफ़ हो।
अब के बस मुद्दा उछाला जायेगा।६।

कर्ज़ के बिन कुछ भी हो पाता नहीं ।
क्या वतन ऐसे सँभाला जायेगा।७।

तुमसे गर सँभले नहीं तो छोड़ दो ।
जैसे भी होगा सँभाला जायेगा  ।८।

बहरे रमल मुसद्दस महजूफ
फ़ाएलातुन  फ़ाएलातुन  फ़ाएलुन  

२१२२ २१२२ २१२

चंद अश'आर - अनवारे इसलाम


अनवारे इस्लाम


मैं धरती पर मुहब्बत चाहता हूँ
हवाओं पे मेरा पैगाम लिख दे 
*
कैसे बच्चों को खेलते देखूँ
दिन तो रस्ते में डूब जाता है
*
वो अपनी माँ को समझाने लगी है
मेरी बिटिया सयानी हो रही है
*
पत्थरों का नगर काँच का "जिस्म" है
ले के "माँ की अमानत" मैं जाऊँ कहाँ
*
 मेरा वजूद बाप की शफ़क़त [प्यार] से ढँक गया
जब भी किसी बुजुर्ग ने बेटा कहा मुझे
*
चारों तरफ़ बबूल हैं सरसों के खेत में
किसकी ये साजिशें हैं कोई सोचता नहीं
*
नई दुनिया बसाई जा रही है
तबाही भी मचाई जा रही है
*
झुकाया जा रहा है आस्माँ को
ज़मीं सर पर उठाई जा रही है
*
किसी के हाथ मिट्टी से सने हैं
कोई ख़ुशबू से ख़ुशबू धो रहा है 
*
देख कर तुमको याद आता है 
हमने क्या खो दिया जवानी में 
*
बारिशों में हो साथ कोई तो
लुत्फ़ आता है भीग जाने में
*
ख़ुदा मुझको वहाँ जन्नत ही देगा
जहन्नुम तो यहीं पर दे दिया है 
*
हमने तमाम उम्र अँधेरों में काट दी
लेकिन किसी चिराग़ से सौदा नहीं किया
*
सूखा पड़ा तो सूख गई फ़स्ल धान की
सूरज की धूप पी गयी मेहनत किसान की
*
वो इस तरह से भी तारीकियाँ बढ़ा देगा
चिराग़ जितने हैं रौशन उन्हें बुझा देगा 
*
 हवा के साथ चिराग़ों ने दोसती कर ली
अज़ीब लोग हैं घबरा के ख़ुदकुशी कर ली
*
हम दिमाग़ों में बस गये होते
दिल की बातों में गर नहीं आते
*
है ख़तरा बस्तियों के डूबने का
समन्दर पैर फैलाने लगा है
*
तुमको मिला जो हुस्न, मुझे शाइरी मिली
दौनों पे रहमतें मिरे परवरदिगार की
 *
ख़्वाबों में मेरे आज तक उतरी नहीं परी
दादी ने जो सुनाये वो क़िस्से फ़जूल थे
*

 'मिजाज़ कैसा है' से उद्धृत

अनवारे इस्लाम
सम्पादक - सुखनवर पत्रिका
C-16, सम्राट कौलोनी,
अशोका गार्डन,
भोपाल - 462023
मोबाइल - +91 98 93 66  3536
ईमेल - sukhanwar12@gmail.com

एकता अधार राष्ट्र-भाषा एक भारती - यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'



फल की सफलता में मूल ही अधार होत
मूल कौ अधार बीज, बीज धरा धारती

धरा उरबरा हेतु नीर है अधार सार
नीर की अधार, नभ - घटा वारि ढारती

'प्रीतम' विवेक, ता की - बुद्धि त्यों अधार रही
बुद्धि की अधार सिच्छा - नेकता उभारती

नेकता अधार प्यार, एकता की माल गुहै
एकता अधार राष्ट्र - भाषा एक भारती 


:- यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

श्री राधा आराध्य सुगम गति आराधन की - यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

राधा रानी और तुलसी पूजा







श्री राधा आराध्य सुगम गति आराधन की।
जो अति अगम अपार न है मति जहँ निगमन की।
ज्ञान मान की खान ध्यान धारा भगतन की।
प्रिय 'प्रीतम' की प्रान प्रमान पतित पावन की।।


चाँदनी रात में इक ताजमहल देखा है


मनोहर शर्मा 'सागर'

 भाई द्विजेन्द्र द्विज जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं|  आइये आज पढ़ते हैं उन के पिताजी श्री मनोहर शर्मा 'सागर' पालमपुरी जी की एक ग़ज़ल

 
मैंने गो आज तुम्हें पहले-पहल देखा है
ऐसा लगता है कि अज़ रोज़-ए-अज़ल देखा है

मरमरी बाहें उठा तूने ली अंगड़ाई तो
चाँदनी रात में इक ताजमहल देखा है

गहरे पानी में नहाते तुझे देखा तो लगा
नीलगूँ झील में इक शोख़ कँवल देखा है

रहगुज़ारों की कड़ी धूप में अक्सर मैंने
तेरी ज़ुल्फ़ों में घटाओं का बदल देखा है

गुफ़्तगू तेरी बहुत शीरीं है फिर भी मैंने
तेरे किरदार में कम हुस्न-ए-अमल देखा है

एक दो बात कभी हम से भी कर लो साग़र’
जब भी देखा है तुम्हें मह्वे-ग़ज़ल देखा है

मनोहर शर्मा ‘’साग़र’’ पालमपुरी
२५ जनवरी १९२९- ३० अप्रैल १९९६


शब्दार्थ 

अज़ = से
रोज़-ए-अज़ल = वह दिन अथवा समय जब सृष्टि की रचना आरम्भ हुई
शीरीं गुफ़्तगू = मधुर वार्तालाप
बदल = स्थानापन्न
हुस्न-ए-अमल = कर्त्तव्य निर्वाह की सुन्दरता

ग्वाल कवि [1879-1981]

पिंगल आधारित ब्रजभाषा काव्य साहित्य ने अपनी अंजुमन में हर तरह के बयानात को पनाह दी है। आइये आज मथुरा के अपने समय के प्रख्यात कवि 'ग्वाल' जी [1879-1981] के कुछ कवित्त पढ़ते हैं।

अफ़सोस ! अपनी जान का सौदा न कर सके - विकास शर्मा 'राज़'

विकास शर्मा 'राज़'

जिस वक़्त रौशनी का तसव्वुर मुहाल था
उस शख़्स का चिराग़ जलाना कमाल था

रस्ता अलग बना ही लिया मैंने साहिबो
हालाँकि दायरे से निकलना मुहाल था

उसके बिसात उलटने से मालूम हो गया

कोई तो जा के समझाये हमारे कर्णधारों को - नवीन

नया काम
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कोई तो जा के समझाये हमारे कर्णधारों को।
चलो मिल कर भटकने से बचाएँ होनहारों को॥


भले अफ़सर नहीं बनते, भले हाकिम नहीं बनते।
चलो हम मान लेते हैं कि सब आलिम नहीं बनते।
मगर इतने ज़ियादा नौजवाँ मुजरिम नहीं बनते।
सही रुजगार मिल जाते अगर बेरोज़गारों को॥


निरक्षरता निरंकुशता के धब्बे कैसे छूटेंगे।
कुशलता-दक्षता वाले ख़ज़ाने कैसे लूटेंगे।
अगर बादल नहीं छाये तो झरने कैसे फूटेंगे।
हमारी देहरी तक कौन लायेगा बहारों को॥


अगर सच में सुमन-सौरभ लुटाने की तमन्ना है।
अगर सच में धरा पर स्वर्ग लाने की तमन्ना है।
अगर सच में ग़रीबी को मिटाने की तमन्ना है।
तो फिर कर्ज़ों की दलदल से निकालें कर्ज़दारों को॥


चलन के सूर्य को संक्रान्ति हम जैसों से मिलती है।
हरिक संक्रान्ति को विश्रान्ति हम जैसों से मिलती है।
वो तो लोगों को मन की शान्ति हम जैसों से मिलती है।
वगरना पूछता ही कौन है साहित्यकारों को॥


Youtube Link:- https://www.youtube.com/watch?v=yiE-eX54bU0

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यही चिन्ता सताये जा रही है कर्णधारों को
भटकने से भला कैसे बचायेँ होनहारों को 

दयारों में न ढूँढेंगे अगर हम आबशारों को
तो फिर गुलशन तलक किस तरह लायेंगे बहारों को

मुहब्बत और तसल्ली के लिये ही रब्त क़ायम है
वगरना पूछता है कौन हम साहित्यकारों को

उमीदें थीं यक़ीनन और भी बेहतर तरक़्क़ी की
मुनासिब काम दे पाये न हम बेरोज़गारों को

कोई हमदर्द लगता है, तो कोई जान का दुश्मन
बता डाले थे हमने राज़ अपने दोस्त-यारों को

ये हमसे तेज़ चलते हैं, बहुत जल्दी समझते हैं
चलो हम राह दिखलायें हमारे होनहारों को

बिना उन की रज़ा तुम भी इन्हें छू तक न पाओगे
रक़ीबों को न सौंपो यार वादी के चिनारों को  

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

ग़ज़ल सृजन - आर. पी. शर्मा महर्षि

       नब्बे से बतियाती उम्र, किसी नौजवान सी फुर्ती और अब तक के हासिल उजाले  को दूर दूर तक बिखेर देने की ललक, शायद इस से अधिक और कुछ परिचय देना सही न होगा आदरणीय आर. पी. शर्मा  महर्षि  जी के बारे में। महर्षि जी और खासकर  देवनागरी  ग़ज़ल का उरूज़ एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।