कृष्ण बिहारी 'नूर' |
बादशाहों का फ़क़ीरों से बड़ा रुतबा न था
उस समय धर्म और सियासत में कोई रिश्ता न था
शख़्स मामूली वो लगता था मगर ऐसा न था
सारी दुनिया जेब में थी हाथ में पैसा न था
अच्छी लगती थीं मुझे भी अच्छी-अच्छी सूरतें
हाँ मगरउस वक़्त तक, जब तक तुम्हें देखा न था
तुम को छू कर फिर न वापस आएगी मेरी नज़र
मैंने सोचा था, पर इतनी दूर तक सोचा न था
ज़िन्दगी ने मौत को यूँ ही नहीं अपना लिया
थक चुकी थी और फिर आगे कोई रसता न था
:- कृष्ण बिहारी 'नूर'
बहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंक्या बात है जनाब! नूर तो नूर हैं
जवाब देंहटाएंइसे भी देखें प्लीज-
छुपा खंजर नही देखा
और
साग़र तलाशते हैं ये
अच्छी लगती थीं मुझे भी अच्छी-अच्छी सूरतें
जवाब देंहटाएंहाँ मगरउस वक़्त तक, जब तक तुम्हें देखा न था
तुम को छू कर फिर न वापस आएगी मेरी नज़र
मैंने सोचा था, पर इतनी दूर तक सोचा न था
इन अश’आर के लिये किस तरह से आपका शुक़्रिया करूँ ! बस हम नत हुए हैं.
धर्म और सियासत में रिश्ता .. सब अपनी-अपनी बातें हैं. यहाँ हम चुप रहेंगे. बिना धर्म के हम लिखते नहीं. अव्वल, हम धर्म को समझते क्या हैं. ..
इस ग़ज़ल में, इसकी कहन में बहुत जान है.
सादर
सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
शख़्स मामूली वो लगता था मगर ऐसा न था
जवाब देंहटाएंसारी दुनिया जेब में थी हाथ में पैसा न था
सुंदर गज़ल गहन भाव लिये. नूर साहब का नूर दिखता है.
बहुत गहन भाव |
जवाब देंहटाएंआशा
्वाह बहुत सुन्दर गज़ल
जवाब देंहटाएंबादशाहों का फ़क़ीरों से बड़ा रुतबा न था
जवाब देंहटाएंउस समय धर्म और सियासत में कोई रिश्ता न था
गज़ब की सोच ....बेहतरीन गज़ल
वाह..............
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन गज़ल.............
शुक्रिया नवीन जी.
सादर
अनु
नूर साहब तो कमाल का लिखते हैं।
जवाब देंहटाएंनायाब ग़ज़ल ।