पिंगल आधारित ब्रजभाषा काव्य साहित्य ने अपनी अंजुमन में हर तरह के बयानात को पनाह दी है। आइये आज मथुरा के अपने समय के प्रख्यात कवि 'ग्वाल' जी [1879-1981] के कुछ कवित्त पढ़ते हैं।
जिसका जितेक साल भर में खरच, तिस्से -
चाहिये तौ दूना, पै, सवाया तौ कमा रहै
हूरिया परी सी नूर नाजनी सहूर वारी
हाजिर हमेस होंय तौ दिल थमा रहै
'ग्वाल' कवि साहब कमाल इल्म सौबत हो
याद में गुसैंया की सदा ही बिरमा रहै
खाने को हमा रहै ना काहू की तमा रहै, जो
गाँठ में जमा रहै, तौ हाजिर जमा रहै
दिया है उसी में खूब खुसी रहौ 'ग्वाल' कवि
खाऔ, पिऔ, लेउ, देउ, यहीं रह जाना है
राजा, रंक, उमराउ, बादशाह केते भये
कहाँ सों कहाँ कों गये लगा ना ठिकाना है
ऐसी ज़िंदगानी पै न करिए गुमान कुछ
घूमौ, फिरौ देस-देस मन बहलाना है
आवै परवाना, फेर चलै ना बहाना, इस्से-
नेकी कर जाना फेर आना है न जाना है
आज गोकुल की खोर सांखरी में मेरी बीर
बानक बनायौ बिधि ताहि कौन बरनें
कोटिन उपाइन ते राधिका मिली ही धाइ
आज मनमोहनें निसंक अंक भरनें
'ग्वाल' कवि इतने में, जसुधा पुकारी - 'लाल'
बाल परी पीरी, दगा दीनी अवसर नें
मानौं 'कंज-केसर के हौज़' बीच बोरा 'बोर -
- कर कें निकारी' 'कामदेव-कारीगर' नें
झर-झर झाँपें, बड़े दर-दर ढांपें, तऊ,
थर-थर काँपें, मुख बाजत बतीसी जाइ
फेरि पसमीनन के चौहरे गलीचा तापै,
सेज मखमली बिछी, सो'ऊ सरदी सिजाइ
'ग्वाल' कवि कहै मृग-मद सों धुकाये भौन ,
ओढ़ि-ओढ़ि छार-भार आग हू छिपी सी जाइ
छाकौ सुरा सीसी , तौ लों सी-सी ना मिटेगी, जौ लों,
कुच उकसीसी छाती, छाती सों न मीसी जाइ
और बिस जेते तेते प्रानन हरैया होत
बंसी की धुन की कबू जात ना लहर है
एक दम सुनत ही रोम-रोम गस जात,
ब्योम बार डारै, करै बेकली गहर है
'ग्वाल' कवि तो सों कर जोर कर पूछत हों
साँची कहि दीजो जो पै मो ही पै महर है
होठ में, कि फूँक में, कि आंगूरी की दाब में,कि -
बाँस में, कि बीन में, कि धुन में जहर है
दिया है उसी में खूब खुसी रहौ 'ग्वाल' कवि
जवाब देंहटाएंखाऔ, पिऔ, लेउ, देउ, यहीं रह जाना है
राजा, रंक, उमराउ, बादशाह केते भये
कहाँ सों कहाँ कों गये लगा ना ठिकाना है
आवै परवाना, फेर चलै ना बहाना, इस्से-
नेकी कर जाना फेर आना है न जाना है
जीवन-सत्य कहते कवित्त बहुत अच्छे लगे...
'ग्वाल' कवि तो सों कर जोर कर पूछत हों
जवाब देंहटाएंसाँची कहि दीजो जो पै मो ही पै महर है
बहुत सुंदर रचना,,,अच्छी लगी
RECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....
बहुत अनमोल मोती ढूंढ कर लाए हैं भाई नवीन जी, कमाल कर दिया. ग्वाल कवि को पढना सच में एक सुखद अनुभव रहा. भारतीय सनातनी छंदों के के प्रति आपकी प्रतिबद्धिता को शत शत नमन.
जवाब देंहटाएंग्वाल कवि को पढना एक सुखद अनुभूति है |
जवाब देंहटाएंआशा
आवै परवाना, फेर चलै ना बहाना, इस्से-
जवाब देंहटाएंनेकी कर जाना फेर आना है न जाना है....यह पक्तियां हमने अपने पिताजी के मुंह से खूब सुनी है !
होठ में, कि फूँक में, कि आंगूरी की दाब में,कि -
बाँस में, कि बीन में, कि धुन में जहर है.......क्या बात है साब !!
या भाषा में जो रस है वो कहूँ नाय मिल सके भाईसाब !!
आपको साधुवाद !!!!
राजा, रंक, उमराउ, बादशाह केते भये
जवाब देंहटाएंकहाँ सों कहाँ कों गये लगा ना ठिकाना है
ग्वाल कवि के संबंध में मुझे ज्ञात नहीं था।
उनके कवित्त तो उच्च कोटि के हैं।
न जाने ऐसे ही कितने जन-कवि साहित्य के गहन अंधकार में छिपे हुए हैं।
आभार आपका।
आनन्द आय गयो! आभार!
जवाब देंहटाएंसच में इस ब्लॉग पर आना और इस रचना को पढ़ना एक सुखद अनुभूति रही।
जवाब देंहटाएंकल 07/06/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
कृपया ग्वाल्कवी जोत्ने भी हुए हैं उन सब का परिचय भी उपलब्ध कराए।
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