सब कछ हतै कन्ट्रौल में तौ फिर परेसानी ऐ चौं - नवीन

सब कछ हतै कन्ट्रौल में तौ फिर परेसानी ऐ चौं
सहरन में भिच्चम –भिच्च और गामन में बीरानी ऐ चौं

जा कौ डसयौ कुरुछेत्र पानी माँगत्वै संसार सूँ
अजहूँ खुपड़ियन में बु ई कीड़ा सुलेमानी ऐ चौं

धरती पे तारे लायबे की जिद्द हम नें चौं करी
अब कर दई तौ रात की सत्ता पे हैरानी ऐ चौं

सगरौ सरोबर सोख कें बस बूँद भर बरसातु एँ
बच्चन की मैया-बाप पे इत्ती महरबानी ऐ चौं

सब्दन पे नाहीं भाबनन पे ध्यान धर कें सोचियो
सहरन कौ खिदमतगार गामन कौ हबा-पानी ऐ चौं

: नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुनमुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212

सब कुछ है गर कन्ट्रौल में तो फिर परेशानी है क्यों
शहरों में भिच्चम –भिच्च [अत्यधिक भीड़] और गाँवों में वीरानी है क्यों

जिस का डसा कुरुक्षेत्र पानी माँगता है विश्व से
अब भी खुपड़ियों में वही कीड़ा सुलेमानी है क्यों

धरती पे तारे लाने की जिद किसलिए की थी भला
अब कर ही दी तो रात की सत्ता पे हैरानी है क्यों

सारा सरोवर सोख कर बस बूँद भर बरसाते हैं
बच्चों की मैया-बाप पर इतनी महरबानी है क्यों
  
शब्दों को छोड़ो भावनाओं पर ज़रा करिएगा ग़ौर

शहरों का ख़िदमतगार गाँवों का हवा-पानी है क्यों

यहाँ जो कुछ भी है सब कुछ तुम्हारे दायरे में है - नवीन

यहाँ जो कुछ भी है सब कुछ तुम्हारे दायरे में है
तुम्हारा बुतकदा भी तो तुम्हारे बुतकदे में है

कोई आखिर भला क्यूँ रौशनी की राह रोकेगा
वहाँ से चल चुकी है और शायद रासते में है

अमाँ! दो-चार बूँदों से कहीं फ़स्लें पनपती हैं
मज़ा तो यार ख़ुशियों को मुसलसल बाँटने में है

जिसे पाने की ख़ातिर देवता धरती पे आते थे
वो जन्नत का मज़ा तो भोर वाले जागने में है

जुनूँ में जोश दिखलाता है और उड़ता है ख़्वाबों में
तो मतलब आदमी कमज़ोर केवल जागते में है

ग़मेदौराँ की हम सारे वकालत करते हैं लेकिन
ग़मेजानाँ ज़ियादातर सभी के हाफिज़े में है

बिना पूछे ही उस से आज तक मिलते रहे हैं हम
भला क्यूँ पूछिये, सारी मुसीबत पूछने में है

न ये इल्ज़ाम पहला है न ये तौहीन है पहली
बस इतना फ़र्क़ है इस बार वो भी कठघरे में है

मुहब्बत ने जिसे ख़ुद अपने हाथों से बनाया था
मुहब्बत का वो बागीचा हमारे आगरे में है

: नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222

कई रिश्ते बचाना चाहता हूँ - नवीन



कई रिश्ते बचाना चाहता हूँ।
लिहाज़ा दूर जाना चाहता हूँ॥



भटकने का बहाना चाहता हूँ।
तुम्हारे पास आना चाहता हूँ॥



फ़लक़ पर टिमटिमाना चाहता हूँ।
फ़ना हो कर दिखाना चाहता हूँ॥



किसी को लूट कर मैं क्या करूँगा।
मैं तो ख़ुद को लुटाना चाहता हूँ॥

घटाओं की नहीं दरकार मुझ को।
मैं अश्क़ों से नहाना चाहता हूँ॥



नज़र तुम से मिलाऊँ भी तो कैसे।
तुम्हारा ग़म छुपाना चाहता हूँ॥



बहुत मुशकिल है तुम को भूल पाना।
मगर अब भूल जाना चाहता हूँ॥




:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे हज़ज मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122

यह अजूबा तो हो नहीं सकता - नवीन

नया काम 



यह अजूबा तो हो नहीं सकता।
सब कुछ अच्छा तो हो नहीं सकता॥ 

जिस पै आता है उस पै आता है। 
दिल सभी का तो हो नहीं सकता॥

चाह को ताक पर रखें कब तक। 
यों गुज़ारा तो हो नहीं सकता॥

और कुछ रासता नहींवरना।
ग़म गवारा तो हो नहीं सकता॥

साथ में होगी उस के रुसवाई।
इश्क़ तनहा तो हो नहीं सकता॥

अब से बस मुस्कुरा के देखेंगे।
तुम से झगड़ा तो हो नहीं सकता॥



******* 

उस के जैसा तो हो नहीं सकता
बाप, बेटा तो हो नहीं सकता

फूल कितनी भी गन्ध फैलाये
गन्ध जितना तो हो नहीं सकता

कोई अम्मा को जा के समझाये
मैं सितारा तो हो नहीं सकता

अब से बस मुस्कुरा के देखेंगे
तुम से झगड़ा तो हो नहीं सकता

ये ज़मीं ही लचक गई होगी
चाँद आधा तो हो नहीं सकता  

:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22

हसरतें सुनता है और हुक़्म बजा लाता है - नवीन

हसरतें सुनता है और हुक़्म बजा लाता है
बस मेरा दिल ही मेरी बात समझ पाता है

इतनी सी बात ने खा डाले है लाखों जंगल
किसे अल्ला' किसे भगवान कहा जाता है

आज भी काफ़ी ख़ज़ाना है ज़मीं के नीचे
आदमी है कि परेशान हुआ जाता है

अच्छे अच्छों पे बकाया है किराया-ए-सराय
जो भी आता है, ठहरता है, गुजर जाता है

कुछ न कुछ भूल तो हम से भी हुई होगी 'नवीन'
चाँद-सूरज पे गहन यूँ ही नहीं आता है

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

समस्या पूर्ति आयोजन 2/3

नमस्कार

पुरानी बात को दुहराना होगा एक बार। काका हाथरसी जी का फॉर्मेट उन्हों ने शुरू किया या फिर इस फॉर्मेट के सिद्ध होने का सेहरा उन के सिर पर बँधा, जो भी हो हम इस छंद को काका हाथरसी जी के नाम से जानते हैं। यह कुण्डलिया जैसा ही दिखता है। दिखने को अमृत ध्वनि छंद भी कुण्डलिया जैसा ही दिख सकता है परन्तु दौनों में अन्तर है। हम बात कर रहे हैं काका हाथरसी वाले फॉर्मेट की। मुझे दुख हुआ जब देखा कि लोग इस छंद को ‘छक्का’ कह रहे हैं। मुझे लगा कि यदि गीत के बाद नवगीत आ सकता है तो ‘छक्का कहने की बजाय हम ‘कुण्डलिया छंद’ को उस के नये स्वरूप में ‘नव-कुण्डलिया छन्द’ भी तो कह सकते हैं। यह मेरा प्रस्ताव है और क़तई ज़ुरूरी नहीं कि सभी विद्वान इस बात को मानें। मेरे लिये यह नव-कुण्डलिया छन्द है। अधिकतर लोग इस छन्द को अधिकतम सीमा तक ठीक-ठाक कह / लिख लेते हैं सो वह भी एक कारण है इस छन्द को इस बार के आयोजन में लेने का।

यह छन्द भी छह पंक्तियों का होता है।
पहली दो पंक्तियाँ दोहे वाली। दोहा का विधान यहाँ ब्लॉग पर है ही। और अधिकांश साथी उस से सु-परिचित भी हैं। 
तीसरी से छठी पंक्ति रोला टाइप। ध्यान रहे एकजेक्ट रोला नहीं, जस्ट रोला टाइप। यानि हर पंक्ति में चौबीस  मात्रा। अंत में ‘दो गुरु’ या ‘एक गुरु दो लघु’ या ‘दो लघु एक गुरु’ या ‘चार लघु’।

पहला और अन्तिम शब्द समान होना अनिवार्य नहीं।

और अब करते हैं इस आयोजन की घोषणा। मञ्च के साथियों से विमर्श के अनुसार आयोजन की घोषणा निमन्वत है :-

आयोजन अगले वर्ष के पहले सप्ताह में शुरू किया जायेगा।
छन्द – रचनाधर्मी अपनी सुविधानुसार कुण्डलिया या नव-कुण्डलिया छन्द का चुनाव कर सकते हैं।
छन्द संख्या – कम से कम एक और अधिक से अधिक तीन। छन्द कोई भी रहे संख्या अधिक से अधिक तीन।

विषय / पंक्ति / शब्द

[1] मैं
[2] हम
[3] तुम

देखने में ये सिर्फ़ तीन  शब्द हैं पर यदि गहराई से देखें तो विषय-रस-सन्दर्भ वग़ैरह अपरिमित हैं। बल्कि हमें अपने साथियों के अन्तर्मन के उस भाग के दर्शन करने को मिल सकते हैं, जो हो सकता है अब तक उजालों में न आ सका हो। 

जिन लोगों ने सिर्फ़ एक ही या दो छन्द भेजने हों, वे व्यक्ति ऊपर दिये गये शब्दों में से किसी भी एक या दो शब्द / शब्दों से छन्द की शुरुआत कर सकते हैं। एक शब्द एक छन्द। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह शब्द बीच में कई बार आ सकते हैं, यहाँ बात सिर्फ़ शुरू के शब्द की है।

जिन लोगों ने तीन छन्द भेजने हों वह एक छन्द की शुरुआत ‘मैं’ से, दूसरे की ‘हम’ से और तीसरे छन्द की शुरुआत ‘तुम’ शब्द से करें।

छन्द कुण्डलिया ले रहे हैं तो उस का अनुपालन पूरी तरह करने की कृपा करें। कुण्डलिया छन्द का विधान इस ब्लॉग पर उपलब्ध है, जानने के लिये यहाँ क्लिक करें

साथियो ऊपर दिये गये तीन शब्द बहुत ही मर्म-पूर्ण शब्द हैं। वैसे तो रचनाधर्मी अपने अन्तर्मन को मथने के बाद ही किसी रचना को मूर्तरूप दे पाता है; फिर भी मुझे लगता है कि उपरोक्त तीन शब्दों [मैं – हम – तुम] से शुरू कर के छन्द को कहते वक़्त रचनाधर्मी एक बड़े ही अच्छे अनुभव से गुजरेंगे। आत्म-चिंतन का बहुत अच्छा अवसर है। छन्द navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने हैं। तो बस उठाइये अपनी लेखनी और सार्थक भाग बनिए साहित्यिक उन्नयन का। छन्द-साहित्य को आप की ज़ुरूरत है।


नमस्कार .....

घास डालते नहीं सभी को दिल्ली वाले - नवीन

बना लिया था भीड़ ने, एक बड़ा सा झुण्ड
टन-टन भर के जीव सब, हिला रहे थे मुण्ड
हिला रहे थे मुण्ड, बिना सूँडों के हाथी
स्वारथ में डूबे केवल ख़ुशियों के साथी
हमने पूछा भैया कब आएगी आँधी
सारे बोले जाग जाएँ बस राहुल गाँधी

झक सफ़ेद कुरता पहन, दाढ़ी बिना बनाय
इक निर्धन की खाट पर, कूल्हे दिये टिकाय
कूल्हे दिये टिकाय, ग़रीबी देती गाली
उछले इतनी बार खाट झोंगा कर डाली
जिस के घर में राशन-पानी के हैं लाले
उस से खाना माँग रहे हैं दिल्ली वाले

राजनीति कहिये इसे, या दिल का बहलाव
हम ने पूछा साब जी, एक बात बतलाव
एक बात बतलाव गाँव ही क्यूँ जाते हो
दिल्ली में क्यूँ नहीं जमूड़े नचवाते हो
वो बोले इन शॉर्ट समझ लो इतना लाले

घास डालते नहीं सभी को दिल्ली वाले

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

नव-कुण्डलिया छन्द

नये साल की धूप - सौरभ पाण्डेय

नये साल की धूप
===========
आँखों के गमलों में
गेंदे आने को हैं
नये साल की धूप तनिक
तुम लेते आना.. .

ये आये तब
प्रीत पलों में जब करवट है
धुआँ भरा है अहसासों में
गुम आहट है
फिर भी देखो
एक झिझकती कोशिश तो की !
भले अधिक मत खुलना
तुम, पर
कुछ सुन जाना.. .
नये साल की धूप तनिक
तुम लेते आना.. .

संवादों में--
यहाँ-वहाँ की ; मौसम ; नारे..
निभते हैं
टेबुल-मैनर में रिश्ते सारे
रौशनदानी
कहाँ कभी एसी-कमरों में ?
बिजली गुल है,
खिड़की-पल्ले तनिक हटाना.. .
नये साल की धूप तनिक
तुम लेते आना.. .

अच्छा कहना
बुरी तुम्हें क्या बात लगी थी
अपने हिस्से
बोलो फिर क्यों ओस जमी थी ?
आँखों को तुम
और मुखर कर नम कर देना
इसी बहाने होंठ हिलें तो
सब कह जाना..
नये साल की धूप तनिक
तुम लेते आना.. .
*********

-- सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद 

आप की हूक दिल में जो उठबे लगी - नवीन

आप की हूक दिल में जो उठबे लगी
जिन्दगी सगरे पन्ना उलटिबे लगी

बस निहारौ हतो आप कौ चन्द्र-मुख
जा ह्रिदे की नदी घाट चढ़िबे लगी

पीउ तनिबे लग्यौ, बन गई बौ  लता
छिन में चढ़िबे लगी छिन उतरिबे लगी

प्रेम कौ रंग जीबन में रस भर गयौ
रेत पानी सौ ब्यौहार करिबे लगी

मन की आबाज सुन कें भयौ जै गजब
ओस की बूँद सूँ प्यास बुझबे लगी



:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 212


[मानकों के अधिकतम निकट रहते हुये उपरोक्त गजल का भावार्थ]


आप की हूक दिल में जो उठने लगी
जिन्दगी सारे पन्ने उलटने लगी

बस निहारा ही था आप का चन्द्र-मुख
इस हृदय की नदी घाट चढ़ने लगी

पिय जो तनने लगे, बन गई वह लता
छिन में चढ़ने लगी छिन उतरने लगी

प्रेम का रङ्ग जीवन में रस भर गया
रेत पानी सा ब्यौहार करने लगी

मन की आवाज़ सुन कें हुआ ये गज़ब

ओस की बूँद से प्यास बुझने लगी

पराई आँखों से जलधार को बहाना क्या - नवीन

कहा तो सब ने सभी से कि है छुपाना क्या।
मगर किसी ने किसी के कहे को माना क्या॥

पराई आँखों से जलधार को बहाना क्या।
नहीं है प्यार तो फिर प्यार का बहाना क्या॥

ये रोज़-रोज़ का ही रूठना मनाना क्या।
मुहब्बतों में सनम जीतना-हराना क्या॥

कभी तो दिल की नदी के भँवर को भी तोड़ो।
नदी किनारे ही पानी को छपछपाना क्या॥

हयात जैसी भी गुजरी, दुरुस्त गुजरी है।
सो रोज़-रोज़ इसे जोड़ना-घटाना क्या॥

न फूल जैसी छुअन और न ख़ार जैसी चुभन।
तुम्हारी यादों को अब ओढ़ना-बिछाना क्या॥

उसे बता दो कि दिल उस का कर दिया खाली।
जो अपना है ही नहीं उस पे हक़ जताना क्या॥

कभी वनों को जलाया कभी बुझाये चराग़।
हवाओ तुमने किसी के मरम को जाना क्या॥

तेरे हुजूर में, तेरी पनाह में रख ले।
यूँ बार-बार मुझे भेजना-बुलाना क्या॥


:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22  

नया समस्या पूर्ति आयोजन

प्रणाम

हमें लगता था समस्या पूर्ति आयोजन के पाठक रचनाधर्मी व्यक्ति ही हैं। परन्तु पिछले दिनों सुखद आश्चर्य हुआ जब अनेक कविमना व्यक्तियों ने उलाहना दिया कि भाई पाँच महीने हो गये, अगली समस्या पूर्ति  कब? अच्छा लगता है यह जान कर कि कोई हमारे काम को चुपचाप देख-पढ़ रहा है। इन व्यक्तियों से जब पूछा कि अब तक का सब से अच्छा छंद कौन सा लगा तो अधिकांश लोगों का मानना रहा कि कुंडली छंद वाला आयोजन सब से ज़ियादा मज़ेदार रहा और साथ ही काका हाथरसी टाइप कुंडली को शामिल करने के लिए भी कहा। तो मन में आया क्यूँ न इस बार अधिक से अधिक लोगों को शामिल होने का मौक़ा दिया जाये। काका हाथरसी टाइप छंदों को लोग छक्का भी कहते रहे हैं और इस तरह के नामकरण से खिन्न हो कर मैंने इस तरह के छंदों को अपनी तरफ़ से नव-कुण्डलिया छन्द का नाम दिया है। आप के सुझाव चाहिए कि क्या इस बार का आयोजन नव-कुण्डलिया छन्द” पर रखा जाये? आप के सुझाव मिलने के बाद अगला क़दम उठाया जायेगा।


किसी व्यक्ति विशेष का नाम लिये बिना सभी नये-पुराने साथियों से सविनय निवेदन बल्कि साधिकार विनम्र आग्रह है कि मञ्च की गरिमा को उठाने में सहकार्य करें। 

कोई बताये कि हम क्यूँ पड़े रहें घर में - नवीन

मन में इच्छा थी कि एक ग़ज़ल इंग्लिश क़ाफ़ियों के साथ कह कर देखा जाये, कोशिश आप के सामने हाज़िर है। उमीद है पसन्द आयेगी।


कोई बताये कि हम क्यूँ पड़े रहें घर में
हमें भी तैरना आता है अब समन्दर में

ये तेरा आना मुझे छूना और निकल जाना
कि जैसे करने हों बस दस्तख़त रजिस्टर में

हमें तो रोज़ ही बस इन्तज़ार है तेरा
किसी भी डेट पे गोला बना केलेण्डर में

ये सोच कर ही कई रत्न आये थे मुम्बै
कि एक दिन वो दिखेंगे बड़े से पोस्टर में

वो एक दौर था जब डाकिये फ़रिश्ते थे
ख़ुदा सा दिखता था हजरात पोस्ट-मास्टर में

मेरी तरह से कभी सोच कर भी देखो ‘नवीन’
तुम्हें भी दिखने लगेगा - ‘शिवम’ - इरेज़र में 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22  

दर्द के हाथों में परचम आ गया - नवीन

दर्द के हाथों में परचम आ गया
बात में लहजा मुलायम आ गया

क्या करिश्मे हो रहे हैं आज कल
आप को आवाज़ दी, ग़म आ गया

हम ने समझा प्यार बरसायेगा प्यार
अश्क़ बरसाने का मौसम आ गया

चार दिन तक ही रही दिल में बहार
फिर उजड़ जाने का मौसम आ गया

आज नज़राने की थी उस से उमीद
भर के वो आँखों में शबनम आ गया

चल, नई धुन छेड़ कर आलाप लें
ज़िन्दगी की ताल में सम आ गया

शाम को तो तैश मत खाएँ 'नवीन'
सूर्य भी पूरब से पच्छम आ गया

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

घर की अँखियान कौ सुरमा जो हते - नवीन

घर की अँखियान कौ सुरमा जो हते
दब कें रहनौ परौ दद्दा जो हते

बिन दिनन खूब ई मस्ती लूटी
हम सबन्ह के लिएँ बच्चा जो हते

आप के बिन कछू नीकौ न लगे
टोंट से लगतु एँ सीसा जो हते

चन्द बदरन नें हमें ढाँक दयो
और का करते चँदरमा जो हते

पेड़ तौ काट कें म्हाँ रोप दयौ
किन्तु जा पेड़ के पत्ता जो हते

पैठ पाए न महल के भीतर 
बिप्र-छत्री और बनिया जो हते

देख सिच्छा कौ चमत्कार ‘नवीन’
ठाठ सूँ रहतु एँ मंगा जो हते

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[भाषा धर्म के अधिकतम निकट रहते हुये उपरोक्त गजल का भावार्थ]

घर की, हम, आँखों का सुरमा जो थे 
दब के रहना पड़ा दद्दा जो थे 

उन दिनों खूब ही मस्ती लूटी
हम सभी के लिये बच्चा जो थे 

आप के बिन ज़रा अच्छा न लगे
टोंट से लगते हैं शीशा जो थे

चन्द अब्रों [बादलों] नें हमें ढँक डाला
और क्या करते जी, चन्दा जो थे

पेड़ तौ काट कें वाँ रोप दिया
किन्तु इस पेड़ के पत्ता जो थे

पैठ पाए न महल के भीतर 
बिप्र-छत्री और बनिया जो थे

देख शिक्षा का चमत्कार ‘नवीन’
ठाठ से रहते हैं मङ्गा जो थे



:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसद्दस मख़बून मुसककन
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 22

एक लाइन में आउते बालक - नवीन

एक लाइन में आउते बालक
एक लाइन में जाउते बालक

धूर-मट्टी उड़ाउते बालक
मैल मन कौ मिटाउते बालक

लौट सहरन सूँ आउते बालक
जोत की लौ बचाउते बालक

बन सकतु ऐ नसीब धरती पै
देख पढ़ते-पढाउते बालक

रूस बैठी गरूर की गुम्बद
गुलगुली सूँ मनाउते बालक

किस्न बन कें जसोदा मैया कूँ
ता-ता थैया नचाउते बालक

कितनी टीचर कितेक रिस्तेदार
सब की सब सूँ निभाउते बालक

घर की दुर्गत हजम न कर पाये
हँस कें पत्थर पचाउते बालक

और एक दिन असान्त ह्वे ई गये
सोर कब लौं मचाउते बालक


[भाषा धर्म के अधिकतम निकट रहते हुये भावार्थ-गजल ]
आउते - आते हुये, जाउते - जाते हुये - इस तरह से क्रिया शब्दों को पढ़ने की कृपा करें। 
अन्तिम शेर के मचाउते को 'कब तक शोर मचाते' के अभिप्राय के साथ पढ़ें।


एक लाइन में आउते बालक
एक लाइन में जाउते बालक

धूर-मट्टी उड़ाउते बालक
मैल मन कौ मिटाउते बालक

लौट शहरों से आउते बालक
जोत की लौ बचाउते बालक

बन सके है नसीब धरती पर
देख, पढ़ते-पढाउते बालक

रूठ बैठी गरूर की गुम्बद
गुलगुली से मनाउते बालक

किस्न बन के जसोदा मैया को
ता-ता थैया नचाउते बालक

कितनी टीचर कितेक [कितने सारे] रिस्तेदार
सब की सब से निभाउते बालक

घर की दुर्गत हजम न कर पाये
हँस के पत्थर पचाउते बालक

और एक दिन असान्त हो ही गये
सोर कब तक मचाउते [मचाते] बालक


:- नवीन सी. चतुर्वेदी