8 दिसंबर 2013

कोई बताये कि हम क्यूँ पड़े रहें घर में - नवीन

मन में इच्छा थी कि एक ग़ज़ल इंग्लिश क़ाफ़ियों के साथ कह कर देखा जाये, कोशिश आप के सामने हाज़िर है। उमीद है पसन्द आयेगी।


कोई बताये कि हम क्यूँ पड़े रहें घर में
हमें भी तैरना आता है अब समन्दर में

ये तेरा आना मुझे छूना और निकल जाना
कि जैसे करने हों बस दस्तख़त रजिस्टर में

हमें तो रोज़ ही बस इन्तज़ार है तेरा
किसी भी डेट पे गोला बना केलेण्डर में

ये सोच कर ही कई रत्न आये थे मुम्बै
कि एक दिन वो दिखेंगे बड़े से पोस्टर में

वो एक दौर था जब डाकिये फ़रिश्ते थे
ख़ुदा सा दिखता था हजरात पोस्ट-मास्टर में

मेरी तरह से कभी सोच कर भी देखो ‘नवीन’
तुम्हें भी दिखने लगेगा - ‘शिवम’ - इरेज़र में 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22  

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (09-12-2013) को "हार और जीत के माइने" (चर्चा मंच : अंक-1456) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वाह, नया प्रयोग, अधिक परिचित शब्द।

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  3. वाह जी वाह ... मज़ा आया इस प्रयोग पे ... गज़ब का एक्सपेरिमेंट ...

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