परिचर्चा - पत्रिकाओं में छपते छन्द और ग़ज़लें

हर महीने दर्जन भर से अधिक पत्रिकाओं से गुजरने का मौक़ा मिलता है। आज के साहित्यिक-क्षरण के दौर में साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रयासों को न सराहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता , परन्तु एक बात हर बार व्यथित करती है। इन में से अधिकान्श पत्रिकाओं के सम्पादक ग़ज़ल और छन्द के नाम पर कुछ भी छापे जा रहे हैं।

जब-जब इस बिन्दु पर ध्यान जाता है तो सिक्के के दूसरे पहलू वाले सिद्धान्त का अनुसरण करते हुये यह बात भी अवश्य ही ध्यान में आती है कि हम भी तो कभी इसी डगर से गुजरे हैं और आज भी अधिकार के साथ कहना मुश्किल ही होगा कि हम पारङ्गत हो चुके हैं।

इन दो बिन्दुओं पर मनन करने के बाद मन में विचार आता है कि इन सम्पादकों को उक्त रचनाओं को प्रकाशित करने से पूर्व किसी जानकार से चेक करवा लेना चाहिये और उत्साहवर्धन या कि फिर फेसिलिटेशन , जैसा भी हो, वाले काम को ध्यान में रखते हुये उक्त रचनाओं को ग़ज़ल या छन्द शीर्षक के बजाय अन्य-रचनाएँ शीर्षक के अन्तर्गत छापना चाहिये।


अपने मन की बात रखी है, विद्वतसमुदाय की राय की प्रतीक्षा रहेगी 

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