29 मार्च 2014

हाथ हमारे सब से ऊँचे, हाथों ही से गिला भी है - रईस फ़रोग़

हाथ हमारे सब से ऊँचे, हाथों ही से गिला भी है
घर ऐसे को सौंप दिया जो आग भी है और हवा भी है

अपनी अना का जाल किसी दिन पागल-पन में तोड़ूँगा
अपनी अना के जाल को मैं ने पागल-पन में बुना भी है

दिये के जलने और बुझने का भेद समझ में आये तो क्या
इसी हवा से जल भी रहा था इसी हवा से बुझा भी है

रौशनियों पर पाँव जमा के चलना हम को आये नहीं
वैसे दर-ए-ख़ुर्शीद तो हम पर गाहे-गाहे खुला भी है

दर्द की झिलमिल रौशनियों से बारह ख़्वाब की दूरी पर
हम ने देखी एक धनक जो शोला भी है सदा भी है

तेज़ हवा के साथ चला है ज़र्द मुसाफ़िर मौसम का
ओस ने दामन थाम लिया तो पल दो पल को रुका भी है

साहिल जैसी उम्र में हम से सागर ने इक बात न की
लहरों ने तो जाने का-क्या कहा भी है और सुना भी है

इश्क़ तो इक इल्ज़ाम है उस का वस्ल को तो बस नाम हुआ
वो आया था क़ातिल बन के क़त्ल ही कर के गया भी है 

रईस फ़रोग़

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