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नज़्म - सोशल मीडिया - मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ

 


सुनो ऐ हमनवा मेरी

तिजारत का ज़माना है

यहाँ हर ख़ास दिन ब्यौपार का इक आम हिस्सा है

वगरना इस ज़माने में 

मोहब्बत कौन करता है

नज़्म - ख़त लिखा चाहत के साथ - गुलशन मदान

 

ख़त लिखा चाहत के साथ 

लेकिन कुछ शिद्दत के साथ

 

मां की हालत भी पतली है

बापू की हालत के साथ

नज़्म - मेरे पापा – अलका मिश्रा

  

वो मेरे मसीहा हैं वही मेरे ख़ुदा हैं

ये सच है मेरे पापा ज़माने से जुदा हैं

 

बचपन में मुझे बाहों के झूले में झुलाया

हर दर्द मेरा अपने कलेजे से लगाया

माज़ी की गलियाँ - मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ



ये माज़ी की गलियाँ, वो यादों के घेरे

जहाँ रात-दिन हैं उदासी के फेरे

हैं अंजान से जाने-पहचाने चेहरे

मेरे दर्द-ओ-वहशत से बेगाने चेहरे

हैं ओढ़े मोहज़्ज़ब वफ़ा की नक़ाबें

पिये हैं जो जी भर ख़ुदी की शराबें

है इन पर चढ़ा उल्फ़तों का मुलम्मा

हैं बातें पहेली, अदाएँ मोअम्मा

हैं बदशक्ल चेहरे नक़ाबों के पीछे

नज़्म - ऐ शरीफ़ इन्सानो - साहिर लुधियानवी

नज़्म  -  ऐ शरीफ़ इन्सानो  -  साहिर लुधियानवी


खून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर,
जंग मशरिक़ में हो या मग़रिब में,
अमन-ए-आलम का ख़ून है आख़िर !

बम घरों पर गिरे कि सरहद पर ,
रूह-ए-तामीर जख्म खाती है !
खेत अपने जले कि औरों के ,
ज़ीस्त फ़ाकों से तिलमिलाती है !

टैंक आगे बढे कि पीछे हटे,
कोख धरती की बांझ होती है !
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग,
ज़िंदगी मय्यतों पे रोंती है !

जंग तो खुद ही एक मसलआ है
जंग क्या मसलों का हल देगी ?
आग और ख़ून आज बख्शेगी
भूख और एहतयाज कल देगी !

इसलिए ऐ शरीफ़ इंसानों ,
जंग टलती रहे तो बेहतर है !
आप और हम सभी के आंगन में,

शमा जलती रहे तो बेहतर है

नज़्म - रिश्वत – जोश मलीहाबादी

लोग हम  से रोज़ कहते हैं ये आदत छोड़िये
ये तिज़ारत है ख़िलाफ़ेआदमीयत – छोड़िये
इस से बदतर लत नहीं है कोई, ये लत छोड़िये
रोज़ अख़बारों में छपता है कि रिश्वत छोड़िये
भूल कर भी जो कोई लेता है रिश्वत – चोर है
आज क़ौमी पागलों में रात-दिन ये शोर है

किस को समझाएँ इसे खो देंगे तो फिर पाएँगे क्या
हम अगर रिश्वत नहीं लेंगे तो फिर खाएँगे क्या
क़ैद भी कर दें तो हम को राह पर लाएँगे क्या
यह जुनूनेइश्क़ के अंदाज़ छुट जाएँगे क्या
मुल्क़ भर को क़ैद कर दें किस के बस की बात है
ख़ैर से सब हैं कोई दो  चार दस की बात है

ये हवस ये चोर-बाज़ारी ये महँगाई ये भाव
राई की कीमत हो जब परबत तो क्यों आये न ताव
अपनी तनख़्वाहों के नालों में है पानी आध पाव
और लाखों टन की भारी अपने जीवन की है नाव
जब तलक रिश्वत न लें हम, दाल गल सकती नहीं
नाव तनख़्वाहों के नालों में तो चल सकती नहीं

ये है मिल वाला, वो बनिया और वो साहूकार है
ये है दूकाँदार वो है वैद्य वो अत्तार है
वो अगर ठग है तो वो डाकू है वो बटमार है
आज हर गर्दन में काली जीत का एक हार है
हैफ़, मुल्क़-ओ-क़ौम की ख़िदमत-गुज़ारी के लिये
रह गए हैं इक हमीं ईमानदारी के लिये

भूख के क़ानून में ईमानदारी ज़ुर्म है
और बे-ईमानियों पर शर्मसारी ज़ुर्म है
डाकुओं के दौर में परहेज़गारी ज़ुर्म है
जब हुकूमत ख़ाम हो तो पुख़्ताकारी ज़ुर्म है
लोग अटकाते हैं क्यों रोड़े हमारे काम में
जिस को देखो ख़ैर से नङ्गा है वो हम्माम में

देखिये जिस को दबाये है बगल में वो छुरा
फ़र्क़ क्या इस में कि मुजरिम सख़्त है या भुरभुरा
ग़म तो इस का है, ज़माना ही है कुछ-कुछ खुरदुरा
एक मुजरिम दूसरे मुजरिम को कहता है बुरा
हम को जो चाहें सो कह लें, हम तो रिश्वत खोर हैं
वाइज़-ओ-नासेह-ओ-मुसफ़िक अल्ला रक्खे चोर हैं

तोंद वालों की तो हो आईनादारी वाह वा
और हम भूखों के सर पे चाँदमारी वाह वा
उन की ख़ातिर सुब्ह होते ही नहारी वाह वा
और हम चाटा करें ईमानदारी वाह वा
सेठ जी तो खूब मोटर में हवा खाते फिरें
और हम सब जूतियाँ गलियों में चटखाते फिरें

इस गिरानी में भला क्या गुंच-ए-ईमाँ खिले
जौ के दाने सख़्त हैं ताँबे के सिक्के पिलपिले
जाएँ कपड़ों के लिये तो दाम सुन कर दिल हिले
जब गिरेबाँ ताबा दे कर आएँ तो कपड़ा मिले
जान भी दे दें तो सस्ते दाम मिल सकता नहीं

आदमीयत का कफ़न है दोस्तो कपड़ा नहीं 

:- जोश मलीहाबादी

नज़्म - ज़ियारत - अब्दुल अहद साज़




बहुत से लोग मुझ में मर चुके हैं------;
किसी की मौत को बारह बरस बीते
कुछ ऐसे हैं के तीस इक साल होने आए हैं
अब जिन की रेहलत को
इधर कुछ सान्हे ताज़ा भी हैं
हफ़्तों महीनों के

किसी की हादेसाती मौत
अचानक बेज़मीरी का नतीजा थी
बहुत से दब गए मलबे में
दीवार-ए-अना के आप ही अपनी
मरे कुछ राबेतों की ख़ुश्क साली में

कुछ ऐसे भी जिनको ज़िन्दा रखना चाहा मैंने
अपनी पलकों पर
मगर ख़ुद को जिन्होंने मेरी नज़रों से गिराकर
ख़ुदकुशी करली
बचा पाया न मैं कितनों को सारी कोशिशों पर भी
रहे बीमार मुद्दत तक मेरे बातिन के बिस्तर पर
बिलाख़िर फ़ौत हो बैठे

घरों मेंदफ़्तरों मेंमेहफिलों मेंरास्तों पर
कितने क़बरिस्तान क़ाइम हैं

मैं जिन से रोज़ ही होकर गुज़रता हूँ
ज़ियारत चलते फिरते मक़बरों की रोज़ करता हूँ
अब्दुल अहद साज़

9833710207

नज़्म / कवितायें - मयङ्क अवस्थी



(एक नज़्म अपनी बहन प्रीति के नाम ..)
  
मेरे हक़ में वो इक शम्म: जलती रही
रोशनी मुझकों रातों में मिलती रही

रच रहे थे अँधेरे नई साजिशें
ज़ख्मे-दिल पर नमक की हुईं बारिशें
इस कदर था शिकंजे में मैं वक्त के
खुदकुशी कर रही थीं मेरी ख्वाहिशें

उन खिज़ाओं में नरगिस महकने लगी
एक लौ जगमगा कर कसकने लगी
मेरे ख्वाबों में फिर रंग भरते हुये
आँधियों के मुकाबिल दहकने लगी

मेरे हक मे वो इक शम्म: जलती रही
रोशनी मुझको रातों में मिलती रही

इक सियाही से लिपटी थी ये रहगुज़र
उसने मुझको उजाला दिया तासहर
कुछ अँधेरे निगल ही गये थे मुझे
मैं न होता कहींवो न होती अगर

जिस्म उसका जला जाँ पिघलती रही
कर्ब अपने बदन का निगलती रही
मोम के दिल में इक कच्चा धागा भी था
तंज़ सह कर हवाओं के जलती रही

मेरे हक में वो इक शम्म: जलती रही
रोशनी मुझको रातों में मिलती रही




आस्थाओं से सदा इस भाँति यदि लिपटे रहोगे,
लघु कथाओं के कथानक की तरह सिमटे रहोगे !!

पुष्प बन अर्पित हुये तो
पददलित बन त्यज्य होगे ,
गर बनो पाषाण अविचल
पूज्य बन स्तुत्य होगे !!
संशयों के शहर में अफवाह बन जाओ नहीं तो,
अर्धसत्यों की तरह न लिखे हुये न मिटे रहोगे !!

लालसा की वेश्या को
स्वार्थ की मदिरा पिलाओ,
और मर्यादा सती को
हो सके तो भूल जाओ !!
मस्तरामो की तरह मदमस्त रहना चाहते हो ?!!
या विरागी हाथ में आध्यात्म के चिमटे रहोगे !!!

जड़ सदा ही गुम रही
तारीफ फूलों की हुई है ,
फूल कहते हैं हमारी
जड़ बड़ी ही जड़ रही है,
छन्द के उद्यान का वैभव तुम्हीं में शेष हो यदि,
मुक्त छन्दों की तरह विषबेल बन चिपटे रहोगे !!!




सृष्टि के संताप कितने हम रहे उर में छुपाये
ताप का वर्चस्व था लेकिन नही आँसू बहाये
गल न जाते थे क्षणिक सी ऊष्मा में हम समर की
हम न थे हिमशैल हम पाषाण थे

दृष्टिहीनों ने हमें अविचल कहा था जड़ कहा था
यह नहीं देखा कि हम निर्लिप्त थे स्थिर अगर थे
दे रहे थे दिशा औ आधार हम ही निम्नगा को
पर नियति के खेल हम पाषाण थे

वेदना अपनी सघन थी ऊष्मा उर में बहुत थी
हम मनुज की तुष्टियों के प्रथम पोषक भी बने थे
दिख रहे अनगढ विभव था मूर्तियों का आत्मा में
हम न थे विष बेल हम पाषाण थे


मयंक अवस्थी ( 07897716173 08765213905)

तीन कविताएँ - आलम खुरशीद

कविता (१)
बदलता हुआ मञ्ज़र
आलम खुरशीद

मेरे सामने
झील की गहरी खमोशी फैली हुई है
बहुत दूर तक ........
नीले पानी में
कोई भी हलचल नहीं है
हवा जाने किस दश्त में खो गई है
हर शजर सर झुकाए हुए चुप खड़ा है
परिंदा किसी शाखे-गुल पर
न नग़मासरा है
न पत्ते किसी शाख पर झूमते हैं
हर इक सम्त खामोशियों का
अजब सा समाँ है
मेरे शहर में ऐसा मंज़र कहाँ है!!!

चलूँ !
ऐसे ख़ामोश मंज़र की तस्वीर ही
कैनवस पर उभारूँ
..............
........................
.............................
अभी तो फ़क़त ज़ेह्न में
एक खाका बना था
कि मंज़र अचानक बदल सा गया है
किसी पेड़ की शाख से
कोई फल टूट कर झील में गिर पड़ा है
बहुत दूर तक
पानिओं में
अजब खलबली सी मची है
हर इक मौज बिफरी हुई है .............


कविता (२)
नया खेल
*********
आलम खुरशीद
------------------------------------
पिंकी ! बबलू ! डब्लू ! राजू !
आओ खेलें !
खेल नया .

पिंकी ! तुम मम्मी बन जाओ !
इधर ज़मीं पर चित पड़ जाओ !
अपने कपड़ों,
अपने बालों को बिखरा लो !
आँखें बंद तो कर ले पगली !

डब्लू ! तुम पापा बन जाओ !
रंग लगा लो गर्दन पर !
इस टीले से टिक कर बैठो !
अपना सर पीछे लटका लो !
लेकिन आँखें खोल के रखना !

बब्ली ! तुम गुड़िया बन जाओ !
अपने हाथ में गुड्डा पकड़ो !
इस पत्थर पर आकर बैठो !
अपने पेट में काग़ज़ का
ये खंजर घोंपो !

राजू आओ !
हम तुम मिल कर गड्ढा खोदें !
मम्मी , पापा , गुड़िया तीनों
कई रात के जागे हैं
इस गड्ढे में सो जाएँगे !

भागो ! भागो !
जान बचाओ !
आग उगलने वाली गाड़ी
फिर आती है ...
इस झाड़ी में हम छुप जाएँ !
जान बची तो
कल खेलेंगे
बाक़ी खेल ....................!!

कविता ३
नया ख़्वाब
***********
आलम खुरशीद
***************
मैं यकीं से कह नहीं सकता
ये कोई ख़्वाब है या वाकिआ
जो अक्सर देखता हूँ मैं

मैं अक्सर देखता हूँ
अपने कमरे में हूँ
मैं बिखरा हुआ
इक तरफ़ कोने में
दोनों हाथ हैं फेंके हुए
दुसरे कोने में
टांगें हैं पड़ीं
बीच कमरे में गिरा है धड़ मिरा
इक तिपाई पर
सलीके से सजा है सर मिरा
मेरी आँखें झांकती हैं
मेज़ के शो केस से ...

ये मंज़र देखना
मेरा मुक़द्दर बन चूका है
मगर अब इन् मनाज़िर से
मुझे दहशत ही होती है
न वहशत का कोई आलम
मिरे दिल पर गुज़रता है
बड़े आराम से
यक्जा किया करता हूँ
मैं अपने जिस्म के टुकड़े
सलीके से इन्हें तर्तीब दे कर
केमिकल से जोड़ देता हूँ ....

न जाने क्यूं मगर
तर्तीब में
इक चूक होती है हमेशा
मेरी आँखें
जड़ी होती हैं
मेरी पीठ पर .....

आलम खुर्शीद
9835871919