अपनी बेकार तमन्नाओं पे शर्मिंदा हूँ
अपनी बेसूद[5] उम्मीदों पे नदामत है मुझे
मेरे माज़ी को अँधेरे में दबा रहने दो
मेरा माज़ी मेरी ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं
कितनी बेकार उम्मीदों का सहारा लेकर
अपने ख़्वाबों में बसाए थे किसी की ख़ातिर
मुझसे अब मेरी मोहब्बत के फ़साने[11] न कहो
मुझको कहने दो कि मैंने उन्हें चाहा ही नहीं
और वो मस्त निगाहें जो मुझे भूल गईं
मैंने उन मस्त निगाहों को सराहा ही नहीं
मुझको कहने दो कि मैं आज भी जी सकता हूँ
इश्क़ नाकाम सही – ज़िन्दगी नाकाम नहीं
उन्हें अपनाने की ख्वाहिश, उन्हें पाने की तलब
मैं जो चाहूं तो मुझे और भी मिल सकते हैं
वो कंवल जिनको कभी उनके लिए खिलना था
उनकी नज़रों से बहुत दूर भी खिल सकते हैं
शब्दार्थ:
कविता कोश से साभार
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