14 नवंबर 2013

अपनी खुसी सूँ थोरें ई सब नें करी सही - नवीन

अपनी खुसी सूँ थोरें ई सब नें करी सही
बौहरे नें दाब-दूब कें करबा लई सही

जै सोच कें ई सबनें उमर भर दई सही
समझे कि अब की बार की है आखरी सही

पहली सही नें लूट लयो सगरौ चैन-चान
अब और का हरैगी मरी दूसरी सही

मन कह रह्यौ है बौहरे की बहियन कूँ फार दऊँ
फिर देखूँ काँ सों लाउतै पुरखान की सही

धौंताए सूँ नहर पे खड़ो है मुनीम साब
रुक्का पे लेयगौ मेरी सायद नई सही

म्हाँ- म्हाँ जमीन आग उगल रइ ए आज तक
घर-घर परी ही बन कें जहाँ बीजरी सही

तो कूँ भी जो ‘नवीन’ पसंद आबै मेरी बात
तौ कर गजल पे अपने सगे-गाम की सही

सही = दस्तख़त, सगरौ – सारा, कुल, हरैगी – हर लेगी, छीनेगी, मरी = ब्रजभाषा की एक प्यार भरी गाली, बहियन = बही का बहुवचन, लाउतै = लाता है, धौंताए सूँ = अलस्सुबह से, बीजरी = बिजली,

[ब्रजभाषा – ग्रामीण]


भावार्थ ग़ज़ल 
[मानकों के अधिकतम निकट रहते हुये]

अपनी ख़ुशी से तो न किसी ने भी की सही
बौहरे के दबदबे ने ही करवा ली थी सही

बस ये ही सब ने सोच के ताउम्र की सही
शायद हो अब की बार की ये आख़िरी सही

पहली सही ही लूट चुकी थी सुकूनोचैन
अब और क्या करेगी मुई दूसरी सही

मन कह रहा है बौहरे की बहियों को फाड़ दूँ
देखूँ कहाँ से लाता है अजदाद की सही

अल सुब्ह से मुनीम जी बैठे हैं नह्र पर
रुक्के पे लेनी है मेरी शायद नयी सही

वाँ-वाँ ज़मीन आग उगलती है आज तक
घर-घर गिरी थी बन के जहाँ बीजरी सही

तुमको भी जो ‘नवीन’ पसन्द आये मेरी बात
कीजे ग़ज़ल पे अपने सगे-गाँव की सही

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:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
 221 2121 1221 212

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