राहों की धूल फाँकी है बरसात भी सही।
हम इस के बावुजूद हैं नक़्शानवीस ही॥
टपके नहीं फ़लक से ग़रीबों के अस्पताल।
अक्सर इन्हें बनाता है कोई रईस ही॥
पैदल चलें, उड़ें कि तसव्वुर के डग भरें।
आख़िर तो सब के हाथ में लगनी है टीस ही॥
क़दमों में तीरगी है बदन भर में चन्द्रमा।
क़िस्मत में राख लिक्खी है तो राख ही सही॥
इस आज को तबाह न कर बह्स में ‘नवीन’।
कल ही पता चलेगा समझ किस की थी सही॥
नक़्शानवीस - नक़्शा बनाने वाला, तसव्वुर – कल्पना, तीरगी - अँधेरा
:- नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आप की इस प्रविष्टि की चर्चा सोमवार 18/11/2013 को एक आम भारतीय का सच...हिन्दी ब्लागर्स चौपाल चर्चा : अंक 046(http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/)- पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर।
बहुत सुंदर प्रस्तुति..
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