पीपल-बरगद
नीम-कनैले
सबकी अपनी-अपनी छाजन
!
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन..
लटके पर्दे से लाचारी
आँगन-चूल्हा
दोनों भारी
कठवत सूखा बिन पानी
के
पर उम्मीदें
लेती परथन !
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन..
खिड़की अंधी
साँकल बहरा
दीप बिना ही
तुलसी चौरा
गुमसुम देव शिवाला
थामें
आज पराये
कातिक-अगहन !
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन..
कोने-कोने
छाया कुहरा
सूरज रह-रह घबरा-घबरा--
अपने हिस्से के आँगन
में
टुक-टुक ताके
औंधे बरतन..
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन..
छागल अलता
कोर सुनहरी
काजल-सेनुर, बातें गहरी
चुभती चूड़ी याद हुई
फिर
देख रुआँसा
दरका दरपन !
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन..
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:- सौरभ पाण्डेय
शब्दार्थ -
छाजन - छप्पर, छाया ; कठवत - कठौता, आटा गूँधने के लिए बरतन ; परथन - रोटी बेलते समय प्रयुक्त सूखा आटा ; थामना - सँभालना,
निगरानी करना ; टुक-टुक ताकना - निरुपाय हो अपलक
देखना ; कातिक-अगहन - कार्तिक और अग्रहण मास ; छागल - पायल ; सेनुर - सिन्दूर ;
आपने इस नवगीत को मान दे कर उत्साित किा है, नवीन भाईजी.
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद