ख़ुद अपनी नाक के नीचे धुआँ करते नहीं देखा।
किसी पागल को ये कारेज़ियाँ1 करते नहीं देखा॥
बिना सिर-पैर की बातें बयाँ करते नहीं देखा।
ग़रीबों को ज़मीं का आसमाँ करते नहीं देखा॥
न जाने रोज़ कितनी बार परबत लाँघते होंगे।
परिन्दों को मगर ख़ुद पर गुमाँ करते नहीं देखा॥
कोई आलिम भले ही कतरनें कर डाले दरिया की।
किसी नादाँ को तो यों धज्जियाँ करते नहीं देखा॥
शराफ़त-बाज़ ही तकते हैं छुप-छुप कर हसीनों को।
किसी दीवाने को ये चोरियाँ करते नहीं देखा॥
कोई इनसान ही डोनेट कर सकता है अंगों को।
फ़रिश्तों को तो ऐसी नेकियाँ करते नहीं देखा॥
किसी पागल को ये कारेज़ियाँ1 करते नहीं देखा॥
बिना सिर-पैर की बातें बयाँ करते नहीं देखा।
ग़रीबों को ज़मीं का आसमाँ करते नहीं देखा॥
न जाने रोज़ कितनी बार परबत लाँघते होंगे।
परिन्दों को मगर ख़ुद पर गुमाँ करते नहीं देखा॥
कोई आलिम भले ही कतरनें कर डाले दरिया की।
किसी नादाँ को तो यों धज्जियाँ करते नहीं देखा॥
शराफ़त-बाज़ ही तकते हैं छुप-छुप कर हसीनों को।
किसी दीवाने को ये चोरियाँ करते नहीं देखा॥
कोई इनसान ही डोनेट कर सकता है अंगों को।
फ़रिश्तों को तो ऐसी नेकियाँ करते नहीं देखा॥
1 बेकार का काम
बहुत ख़ूब! वाह!
जवाब देंहटाएंवाह वाह आदरणीय नवीन जी बेहद उम्दा ग़ज़ल क्या कहने बहुत बहुत बधाई आपको
जवाब देंहटाएंनवीन भाई बहुत बढ़िया व दमदार गज़ल , धन्यवाद
जवाब देंहटाएंनया प्रकाशन --: प्रश्न ? उत्तर -- भाग - ६
कल 20/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!