4 नवंबर 2013

कहानी बड़ी मुख़्तसर है - नवीन

कहानी बड़ी मुख़्तसर है
कोई सीप कोई गुहर है

बगूलों से उपजे बगूले
हवा तो फ़क़त नोंक भर है

फ़क़ीरों को दुनिया की परवा
अगरचे नहीं है, मगर है

ठहरते- ठहरते, ठहरते
ठहरना भी तो इक हुनर है

तुम्हारा कहा भी सुनेगी
अभी रूह परवाज़ पर है

कहो तो यहीं दिन तलाशें
यहाँ तीरगी पुरअसर है

अदब की डगर पर कहें क्या
यही रहगुज़र थरगुजर है

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे मुतकारिब मुसद्दस सालिम
122 122 122
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन

1 टिप्पणी:

  1. इसी बहर में क्या मेरी यह ग़ज़ल सही है?

    क्या मसअला है सफर में,
    अभी दर रहेंगे नज़र में,
    .
    सरेआम इज़हार कर के,
    निशाना बने रात भर में!
    .
    हजारों सितारे जलेंगे,
    तुझे देखने के हुनर में!
    .
    वफा के सिले आजमाओ,
    कभी दुश्मनों के शहर में!
    .
    पिला कर ज़हर वो मुनाफ़िक़,
    खड़े हैं हमारी खबर में!
    .
    जली है बड़ी शांत रूहें,
    लगी आग थी सोए घर में!

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