18 नवंबर 2013

कहाँ गागर में सागर होतु ऐ भैया - नवीन

कहाँ गागर में सागर होतु ऐ भैया
समन्दर तौ समन्दर होतु ऐ भैया

हरिक तकलीफ कौं अँसुआ कहाँ मिलत्वें
दुखन कौ ऊ मुकद्दर होतु ऐ भैया

छिमा तौ माँग और सँग में भलौ हू कर
हिसाब ऐसें बरब्बर होतु ऐ भैया

सबेरें उठ कें बासे म्हों न खाऔ कर
जे अतिथी कौ अनादर होतु ऐ भैया

कबउ खुद्दऊ तौ गीता-सार समझौ कर
जिसम सब कौ ही नस्वर होतु ऐ भैया

जबै हाथन में मेरे होतु ऐ पतबार
तबै पाँइन में लंगर होतु ऐ भैया

बिना आकार कछ होबत नहीं साकार
सबद कौ मूल - अक्षर होतु ऐ भैया

:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे  हजज मुसद्दस सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222



कहाँ गागर में सागर होता है साहब
समन्दर तौ समन्दर होता है साहब

हरिक तकलीफ़ को आँसू नहीं मिलते
ग़मों का भी मुक़द्दर होता है साहब

मुआफ़ी के सिवा नेकी भी कीजेगा
हिसाब ऐसे बराबर होता है साहब

सवेरे उठ के बासे मुँह न खाएँ हुजूर
ये महमाँ का अनादर होता है साहब

कभी ख़ुद भी तो गीता-सार समझें आप
बदन सब ही का नश्वर होता है साहब

हमारे हाथों में जब होती है पतवार
तभी पाँवों में लंगर होता है साहब

बिना आकार कछ होता नहीं साकार

सबद का मूल - अक्षर होता है साहब

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें